शंकर शरण

शंकर शरण
मन की मैल से गंगा मैली
Posted on 11 Jul, 2011 10:11 AM

अगर गंगा को स्वच्छ करना है तो पहले दृष्टि बदलनी होगी। उसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। गंगा की अस्वच्छता को पर्यावरण और स्वास्थ्य वाली भौतिकवादी दृष्टि से देखना छोड़ना होगा। उसके दूषण के लिए मूलतः बढ़ती आबादी, उद्योगों और शहरों का विस्तार, दाह-संस्कार की प्रथा आदि को प्राथमिक दोषी ठहराना भी सही नहीं है।

दो सप्ताह पहले आधिकारिक तौर पर घोषणा की गई कि सन् 2020 तक गंगा में शहरी गंदगी और औद्योगिक कचरा गिराना पूरी तरह बंद हो जाएगा। इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर की सहायता मिलने का करार हुआ है। प्रश्न है कि क्या धन की कमी के चलते गंगा मैली होती गई है? अपने घर के पूजा-घर की गंदगी भी हम अपने श्रम या साधन से दूर न कर सकें तो इससे विचित्र बात क्या हो सकती है। किस तरह की प्रगति या विकास कर रहे हैं हम, यह भी सोचने की बात है। मगर पहले इस पर विचार करें कि पिछले पच्चीस वर्षों में गंगा सफाई अभियान में जितना खर्च हुआ, उससे क्या निकला है। सन् 1985 में शुरू हुई गंगा कार्य योजना प्रायः विफल रही, जबकि उसमें आठ सौ सोलह करोड़ रुपए से अधिक धन खर्च किया जा चुका है। इसकी ईमानदार समीक्षा के बिना यह नई योजना भी वैसी ही साबित होगी। यह तो एक यांत्रिक, भौतिकवादी, नौकरशाही, आलसी समझ है कि किसी कार्य के लिए धन का आबंटन कर देने मात्र से फल प्राप्त हो सकता है।
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