रमेशदत्त दुबे

रमेशदत्त दुबे
बूंद बूंद पानी
Posted on 20 Dec, 2010 11:16 AM
अतीत बंदरिया के मरे बच्चे की तरह बोझ है और भविष्य भूमंडलीकरण के हाथों में है। अब आवश्यकता की जननी जरूरत-बेजरूरत बारहों माह फल लुटा सकती है। हम कुआं खुदवा कर बूंद-बूंद पानी का भंडारण क्यों, करें, हम तो जरूरत पड़ने पर टैंकरों, रेल-हवाई जहाज से भी पानी मंगाने की औकात रखते हैं। गरमी लगते ही बूंद-बूंद पानी की तलाश शुरू हो जाती है। आसपास के कुएं सूख जाते, मां दस हाथ की रसरी लेकर, टीकाटीक दोपहर में पांच किलोमीटर दूर ‘इमरती’ कुएं से पानी खोजने निकलती। हम बच्चे भी ‘कुआं का पानी कुआं में जाए, ताल का पानी ताल में जाए’ गाते हुए एक-एक बूंद पानी को जलाशयों में फिर विसर्जित कर देते। उपभोग और बचत के बीच चक्रीय व्यवस्था थी और यह व्यवस्था जीवन और संस्कारों में समाई हुई थी। लोक जीवन का प्रथम ‘निष्क्रमण संस्कार’ पानी की तलाश से ही शुरू होता है।

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