प्रेमशंकर शुक्ल

प्रेमशंकर शुक्ल
आकाश एक ताल है
Posted on 01 Aug, 2011 09:01 AM
आकाश एक ताल है
हम जहाँ भी हैं उसके
घाट पर हैं। अपने संकल्प-विकल्प को
तिलक देते हुए

आकाश एक ताल है
महाताल-
जिसकी गगन-गुफा से अजर रस झरता है
कबीर का
(योगी जिसे पीता है)

आकाश एक ताल है
सुबह-सुबह जिसके एक फूल से
उजाला फैलता है। और रात में
जिसमें असंख्य कुमुदिनी के फूल
खिलते हैं जो हमारी आँखों के तारे हैं।
विडम्बना
Posted on 30 Jul, 2011 09:02 AM
बदलियों में पानी घट रहा
नदियों में प्रवाह
बातें भी अब कहाँ रहीं
अथाह
(उथलापन बार-बार दिखता
चरित्र है!)

घाटों पर निरापद न रही
प्यास
उतार पर है आँख का पानी

बेआब झील
एक पूरा शहर उदास करती है!

मिटा दिए गए ताल-पोखर के लिए
Posted on 29 Jul, 2011 09:14 AM
पानी के बैरी या
प्यास का दुश्मन ही कहा जाएगा उन्हें
मिटा दिया जिन्होंने पोखर-तालाब

कितनी पुलक से-पुण्याकांक्षा से भी
खुदबाए गए होंगे ये पोखर-ताल
औचक लील गए जिन्हें
मूढ़ता, कटुता और स्वार्थ

पूर्वजों की थाती
बेरहमी-बेअक्ली से
कर दी गयी मटियामेट
तालाब नष्ट करना
पानी के साथ पसीने का अपमान है
और कुल की साधुता की हत्या
हो सकता है
Posted on 27 Jul, 2011 09:21 AM
हो सकता है! कल को तुम्हारे हरे-भरे किनारों को
बेदखल कर बनवा दिए जाएँ बड़े-बड़े शापिंगमाल
और कोई वणिज-वक्रता रोक दे तुम्हारी हवा
खड़े कर तुम्हारे आसपास ईमारतों के ढेर
यह भी हो सकता है-कल को कोई धन्नासेठ!
जोत ले तुम्हारी ज़मीन और रातोंरात वहाँ
चमचमाने लगें कई सितारों के होटल

बड़ी झील!
पूँजी की माया!! कल को हो सकता है
झील धरती का सुख है
Posted on 27 Jul, 2011 09:16 AM
झील धरती का सुख है
जिस में आकाश लहराता रहता है
अपने बचपन के दोस्त आबो-हवा के साथ

अपनी चाँदनी के लिए
पानी मालकौंस गाता है

चिडि़यों के कोरस में
प्रेम-पत्र की एक पंक्ति अरझ जाती है
किनारे पर बैठे हुए प्रेमी युगल
जिसे सुलझाते आपस में डूबे हुए हैं

हवा एक अलंकार है
लहरें जिससे अपना शृंगार करती हैं

धूप एक छन्द है
पानी बचेगा तो जीवन रचेगा
Posted on 26 Jul, 2011 09:07 AM
पानी बचाओ रे
झील बचाओ रे

झील बची तो
पानी बचेगा

पानी बचेगा
तो जीवन रचेगा

जीवन के रचने में
दुनिया सँवरती

दुनिया सँवारो
तो पानी बचाओ रे

पानी बचेगा
तो जीवन रचेगा !

नीली जल सतह
Posted on 23 Jul, 2011 09:13 AM
बड़ी झील!
तुम्हारी ऊपरी नीली जल सतह
और उसके ऊपर नीला आसमान
दोनों के बीच उड़ते परिन्दों से
ख्यात चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के
कैनवास की उड़ती चिड़िया
नीले रंग पर बातचीत में मगन है
इसी नीलांश में
सालिम अली के पंक्षी-प्रेम पर
अपनी बोली-बानी में परिन्दे कर रहे हैं विचार-विमर्श

बूँदें चुगने के बाद
उड़ते परिन्दे कभी-कभी
बड़ी झील हँसी
Posted on 23 Jul, 2011 09:05 AM
बड़ी झील हँसी
तो भोपाल खिलखिला उठा
बड़ी झील सूखी
तो भोपाल तिलमिला उठा

रात गहराई
तो बड़ी झील ने
शहर को सोने का कह दिया
सुबह हुई तो कहा लग जाओ
काम पे

गर मेहमान कोई आया
तो कायल हुआ यहाँ की
खातिर की रिवायत पर
बड़ी झील से जब मुलाकात हुई

तो उसके भी जिगर में
ज़िन्दगी का प्यार आया-
खूब ! इतना खूब !
अनलिखी
Posted on 22 Jul, 2011 09:47 AM
बड़ी झील !
कितनी उथली है मेरे भीतर
तुम्हारी पहचान

मेरा उथला ज्ञान -
उथली अनुभूति
कैसे कहेगी तुम्हारी गहराई
थाहेगी कैसे तुम्हारी दहार

तैर रहा हूँ पर मछली की तरह
कहाँ है मेरा पानी से प्रेम

लहरें मुझे बाँधती तो हैं
कितनी जकड़नों से मुक्त कर
प्रवाह मुझे बहाता तो है
पानी का तनाव दुरुस्त तो करता है
बड़ी झील में ताल है
Posted on 21 Jul, 2011 09:33 AM
भोपाल ताल
बड़ी झील की चाल-ढाल
पूरी सांगीतिक:
लहरों की लय
पानी का ताल
मौसमी राग-रंग
बजते हुए से चैड़े पूरे घाट
घाट पर पीपल की अखण्ड धुन
पत्ती-पत्ती साज़ है
पाखियों के कोरस हैं
सबको हैं जो बहुत पसन्द
मछलियाँ भी कुछ न कुछ गाती ही हैं मीठा-मधुर
पानी की महफि़ल में
हज़ार साल की हो चुकी है बड़ी झील
निर्मल मन बोलता है जिसे
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