अनलिखी

बड़ी झील !
कितनी उथली है मेरे भीतर
तुम्हारी पहचान

मेरा उथला ज्ञान -
उथली अनुभूति
कैसे कहेगी तुम्हारी गहराई
थाहेगी कैसे तुम्हारी दहार

तैर रहा हूँ पर मछली की तरह
कहाँ है मेरा पानी से प्रेम

लहरें मुझे बाँधती तो हैं
कितनी जकड़नों से मुक्त कर
प्रवाह मुझे बहाता तो है
पानी का तनाव दुरुस्त तो करता है
मेरा अभ्यंतर - पाट
पर मेरी परती टूटी कहाँ है पूरम्पूर
मेरा बंजर भी अभी कहाँ हुआ उर्वर

प्यास पोसने का तुम्हारा हुनर
और तुम्हारे पानी का कवित्व
कहाँ कह पाया मुकम्मिल मैं

मेरा उथला ज्ञान-
उथली अनुभूति
कैसे कहेगी तुम्हारी गहराई
थाहेगी कैसे तुम्हारी दहार
बड़ी झील!
इसीलिए मेरी किसी अनलिखी कविता में ही
लहरा रही होगी अपनी सम्पूर्णता में तुम!

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