मोहन कुमार

मोहन कुमार
गंगा की पुकार हर दरिया का आधार
Posted on 17 Jun, 2013 03:57 PM
तुम मेरी धार पर कतार बनके आए हो
मेरी अपनी जिंदगी का आधार बनके आए हो
आज मैं दुखी हूं और तुम भी दुखी हो
अरे अपने घर पर संभालो मुझको
मैं भी सुखी और तुम भी सुखी हो
हां हैं बंधनों से बहुत शिकायत तुम्हारे
फिर भी बताओ कब न आई, सर से लेकर घर तक तुम्हारे
हाय तुमसे मुझको संभाला न गया
कलशों में भरकर ले जाते हो,
मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ
सृजन से विसर्जन तक
Posted on 14 Apr, 2010 02:43 PM

कुदरत खुद जो भी पैदा करती है तो उसके सृजन से लेकर विसर्जन तक की जिम्मेदारी भी खुद ही निभाती है। मगर मानव अपने कारखानों में जो भी बनाता है और उस बने हुए कृत्रिम सामान का उपयोग करता है परन्तु उसके विसर्जन की जिम्मेदारी न उत्पादनकर्ता लेता है और न उपभोक्ता लेता है चूंकि जो मानव ने कृत्रिम तरीके से बनाया है उसके अपव्यय को धरती भी स्वीकार नही करती। अर्थात् समस्त संसार में प्रदूषणरूपी राक्षस संसार से

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