कुमार विकल

कुमार विकल
नदी मां
Posted on 10 Oct, 2014 01:06 PM
पहाड़ पर आकर
कवि को ताप हो गया है
किंतु हर्षित नदी
कोई लोकगीत गा रही है, जैसे पर्व मना रही है
कवि गीत को समझ नहीं पा रहा है
केवल ताप में बुड़ाबुड़ा रहा है-
मां, ओ नदी मां, मुझे थोड़ा-सा बल दो
मेरी सूख रही जिजीविषा को जल दो

मां, तुमने अपने रास्ते
कई बार बदले हैं
एक बार और बदल लो
आज की रात तुम मेरे कक्ष में बहो
मेरे अंग-संग रहो
विपाशा
Posted on 01 Oct, 2013 04:08 PM
विपाशा किसी नदी या नारी का नाम नहीं
बल्कि किसी पुराने स्मृति-कोष्ठ से निकलकर आए
एक सूख गए जल-संसार का धुँधला-सा बिंब है
जिसे...
मैं सोचता हूँ,
शायद ही मेरी कोई कविता सहेज पाए।

यह बिंब मैंने पहली बार
बचपन में कहीं बरीमाम के मेले में
पीर के मजार पर नाचतीं
तवायफों के पवित्र चेहरों पर
धुँधले चिरागों की रोशनी में देखा था
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