काका कालेलकर

काका कालेलकर
बिहार की गंडकी
Posted on 25 Feb, 2011 12:05 PM
छुटपन में मैंने इतना ही सुना था कि गंडकी नदी नेपाल से आती हैं और उसमें शालिग्राम मिलते हैं। शालिग्राम एक तरह के शंख जैसे प्राणी होते हैं; उन्हें तुलसी के पत्ते बहुत पसंद आते हैं; पानी में तुलसी के पत्ते डालने पर ये प्राणी धीरे-धीरे बाहर आते है और पत्ते खाने लगते हैं; उन्हें पकड़कर अंदर के जीवों को मार डालते हैं और काले पत्थर जैसे ये शंख साफ करके पूजा के लिए बेचे जाते हैं; लेकिन आज-कल के धूर्त लोग
गया कि फल्गु
Posted on 25 Feb, 2011 11:41 AM
संस्कृत में फल्गु के दो अर्थ होते हैं। (1) फल्गु यानी निःसार, क्षुद्र, तुंच्छ; और (2) फल्गु यानी सुन्दर। गया के समीप की नदी का फल्गु नाम दोनों अर्थों में सार्थक है पुराण कहते हैं कि उसे सीता का शाप लगा है। सीता के शाप के बारे में जो होगा सो सही; किन्तु उसे सिकता का शाप लगा है यह तो हम अपनी आंखों से देख सकते हैं। जहां भी देखें, बालू-ही-बालू दिखाई देती है। बेचारा क्षीण प्रवाह इसमें सिर ऊंचा करे तो भ
गरजता हुआ शोणभद्र
Posted on 25 Feb, 2011 11:39 AM
‘अयं शोणः शुभ जलोSगाधः पुलिन-मण्डितः’।
‘कतरेण पथा ब्रह्मन् संतरिष्यामहे वयम्?’।।

एवम् उक्तस् तु रामेण विश्वामित्रोSब्रवीद् इदम्।
‘एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः’।।

तेरदाल का मृगजल
Posted on 25 Feb, 2011 11:26 AM
मेरे विवाह के बाद कुछ ही दिनों में हम शाहपुर से जमखंडी गये। पिताजी हम से पहले वहां पहुंच गये थे। रात को हम कुड़ची स्टेशन पर उतरे। वहां से रात को ही बैलगाड़ी से रवाना हुए। दोनों बैल सफेद और मजबूत थे। रंग, सींगों का आकार, मुखमुद्रा और चलने का ढंग सब बातें दोनों में समान थीं। हमारे यहां ऐसी जोड़ी को ‘खिल्लारी’ कहते हैं। इन बैलों ने हमें चौबीस घंटों में पैंतीस मील पहुंचा दिया।
शिवनाथ और ईब
Posted on 25 Feb, 2011 11:17 AM
कलकत्ता आते और जाते समय अनेक नदियों से मुलाकात होती है। इस प्रदेश का इतिहास मुझे मालूम नहीं है, इसकी शर्म आती है। यहां के लोग कितने सरल और भले मालूम होते हैं! उन्होंने यदि मनुष्य-संहार की कला हस्तगत की होती, तो उनका नाम इतिहास में अमर हो जाता। कुछ लोग मरकर अमर होते हैं। कुछ लोग मारनेवालों के रूप में अमर होते हैं। मलिक काफुर, काला पहाड़ आदि दूसरी कोटि के लोग हैं।
चर्मण्वती चंबल
Posted on 25 Feb, 2011 10:28 AM
जिनके पानी का स्नान-पान मैंने किया है, उन्हीं नदियों का यहां उपस्थान करने का मेरा संकल्प है। फिर भी इसमें एक अपवाद किए बिना रहा नहीं जाता। मध्य देश की चंबल नदी के दर्शन करने का मुझे स्मरण नहीं है। किन्तु पौराणिक काल के चर्मण्वती नाम के साथ यह नदी स्मरण में हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है। नदियों के नाम उनके किनारे के पशु, पक्षी या वनस्पति पर से रखे गए हैं, इसकी मिसालें बहुत हैं। दृषद्वती, सारस्वती,
नदी का सरोवर
Posted on 25 Feb, 2011 10:21 AM
हमारे देश में इतने सौंदर्य-स्थान बिखरे हुए हैं कि उनका कोई हिसाब ही नहीं रखता। मानों प्रकृति ने जो उड़ाऊपन दिखाया उसके लिए मनुष्य उसे सजा दे रहा है। आश्रम मे जिन्हें चौबीसों घंटे बापूजी के साथ रहने तथा बातें करने का मौका मिला है, वे जैसे बापू जी का महत्त्व नहीं समझते और बापू जी का भाव नहीं पूछते, वैसा ही हमारे देश में प्रकृति की भव्यता के बारे में हुआ है।
निशीथ-यात्रा
Posted on 24 Feb, 2011 08:44 PM
जबलपुर के समीप भेड़ाघाट के पास नर्मदा के प्रवाह की रक्षा करने वाले संगमरमर के पहाड़ हम रात्रि के समय देख आयेंगे, यह खयाल शायद मध्यरात्रि के स्वप्न में भी न आता। किन्तु ‘सबिन्दु-सिंधु-सुस्खलत् तरंगभंग-रजिंतम्’ कहकर जिसका वर्णन हम किसी समय संध्या-वंदन के साथ गाते थे, उस शर्मदा नर्मदा के दर्शन करने के लिए यह एक सुन्दर काव्यमय स्थान होगा, ऐसी अस्पष्ट कल्पना मन के किसी कोने में पड़ी हुई थी।
धुवांधार
Posted on 24 Feb, 2011 07:43 PM

एक, दो, तीन। धुवांधार अभी-अभी मैंने तीसरी बार देख लिया। धुवांधार नाम सुन्दर है। इस नाम में ही सारा दृश्य समा जाता है। किन्तु अबकी बार इस प्रपात को देखते-देखते मन में आया कि इसको धारधुवां क्यों न कहूं? धार गिरती है, फव्वारे उड़ते हैं और तुरन्त उसके तुषार बनकर कुहरे के बादल हवा में दौड़ते हैं। अतः धारधुवां नाम ही सार्थक लगता है। मगर यह नाम चल नहीं सकता!
दुर्दैवी शिवनाथ
Posted on 24 Feb, 2011 05:01 PM
[‘शिवनाथ और ईब’ लेख में जिसका जिक्र आया है, उस लोककथा का सार बेमेतरा-द्रुग से लिखे हुए नीचे के पत्र में मिलेगा।]
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