अजित कुमार

अजित कुमार
असंभव स्वप्न
Posted on 29 Sep, 2013 01:31 PM
घाटी में बसे एक छोटे-से गाँव में
पहली बार जब मैं आया थाउमड़ती हुई पहाड़ी नदी के शोर ने
रात-रात भर मुझे जगाए रखा
मन हुआ था-
लुढ़कते पत्थरों के साथ बहता-बहता मैं
रेत बन अतीत में खो जाऊँ

फिर कुछ बरसों बाद
जब मैं वापस इधर आया-
जहाँ नदी थी
वहाँ सूखे बेढंगे, अनगढ़
ढेरों शिलाखंड बस बिखरे पड़े थे
अन्यमनस्क उनको लाँघते
व्यतिक्रम
Posted on 29 Sep, 2013 01:29 PM
नदी ने धारा बदली
कि धारा ने नदी?
इतने वर्षों
हम अपने को उघारते रहे
कि ढकते-मूँदते
कुछ भी ज्ञात है नहीं।

काली शक्ल को उजली
मानने में क्या तुक था?
अपने देश को अपनाना
क्या कुछ कम नाजुक था?

उलटबाँसी एक फाँसी है-
लगते ही मुक्ति देगी।
जिसको लेना हो, ले।
आधी भीतर
आधी बाहर
साँस मुझे कोई दे!
पहाड़ों को क्या पता था, होगा विकास से विनाश
Posted on 04 Aug, 2012 12:14 PM

रामगढ़ की जिस उफनती-शोर करती नदी और घाटी की हरियाली ने मुझे इसी जून महीने के आरंभ में लगभग पचीस वर्ष पहले मुग्ध

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