मैं यहां पर एक तीर्थयात्री के रूप में आया हूँ। आप पूछेंगे, "यहां कौन-सा तीर्थ है ? तीर्थ तो वही है उत्तराखण्ड में-गंगोत्री धाम, जहाँ वर्षों पहले जयपुर नरेश ने गंगा मैय्या के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने के लिए गंगोत्री मंदिर बनाया था।" राजस्थान में एक नया तीर्थ है- खेजड़ली गांव । वहीं पर सन् 1730 में वृक्षों की रक्षा के लिए अमृता देवी के नेतृत्व में 363 बिश्नोई स्त्री, पुरुषों और बच्चों ने अपना बलिदान दिया था। जोधपुर नरेश को अपना महल बनाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता थी। रेगिस्तान में इमारती लकड़ी कहाँ से होती ? किसी ने बता दिया कि खेजड़ली गांव में, खेजड़ी के मोटे-मोटे वृक्ष हैं। महाराजा के कुल्हाड़ी वाले वहाँ पहुँच गये और पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने लगे। घर के अन्दर अमृता देवी छाछ बिलो रही थी। उसने कुल्हाड़ियों की आवाज सुनी तो कहा, "हटो ! ये पेड़ तो हमारे पाले हुए हैं।" लेकिन सत्ता के दम में चूर अधिकारी क्यों सुनते ? अमृता देवी पेड़ से चिपक गई। कुल्हाड़ी वालों ने कहा, "राजा का आदेश है। हम तो पेड़ काटेंगे, तुम नहीं मानोगी तो हम तुम्हारा सिर काट देंगे।" अमृता देवी ने तत्काल उत्तर दिया, "काट लो, क्योंकि-सिर कांटे रुख रहे, तो भी सस्तो जाण ।" वह बलिदान हो गई। उसके बाद बारी-बारी से उसकी तीन बेटियों ने बलिदान दिया। सारे गाँव में और आस-पास के इलाके में आग की तरह खबर फैल गई और लोग आ-आ कर पेड़ों से चिपकते गये और अपना बलिदान देते गये। जब 363 लोग बलिदान दे चुके तो कुल्हाड़ियां रुक गईं।
खेजड़ली के अमर बलिदान की यह कहानी जब मैंने विश्वविख्यात वृक्षमानव रिचर्ड सेंट बार्ब बेकर को सुनाई तो वे सुनकर अभिभूत हो गये। उन्होंने कहा, "भारत में सब लोग अपनी बेटियों का नाम अमृता क्यों नहीं रखते ?" बेकर ने खेजड़ली के महान् बलिदान की कहानी सारे विश्व में वृक्षमानव संस्था की 108 शाखाओं के माध्यम से प्रसारित की खेजड़ली के बलिदान के 243 वर्ष बाद उत्तराखण्ड में महिलाओं ने वनों की सुरक्षा के लिये 'चिपको आन्दोलन' चलाया। जब ठेकेदारों की ओर से कुल्हाड़ी वाले नीलामी में खरीदे पेड़ों की कटाई करने आते तो महिलाएं पेड़ों पर चिपक जातीं और कहतीं,क्या हैं जंगल के उपकार ? मिट्टी, पानी और बयार। जिन्दा रहने के आधार।" जब उन्हें हटाने के लिए पुलिस आती तो वे कहतीं जंगल हमारा मायका है। हम पेड़ नहीं कटने देंगी उनके साथ बच्चे भी पेड़ों से चिपक जाते और कहते, "बोलो पेड़ हमारे हैं। प्राणों से भी प्यारे हैं।"
आंदोलन आठ वर्षों तक चला और जब सरकार के लिये पेड़ काटना असम्भव हो गया, तो सन् 1981 में 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई के क्षेत्रों में हरे पेड़ों की कटाई पर पाबन्दी लग गई। उसके बाद पड़ोसी पर्वतीय राज्य हिमाचल में हरे पेड़ों की कटाई पर पाबन्दी लगी। पर्वतीय राज्यों के पास आय का कोई साधन नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश ने पिछले अप्रैल में पाबन्दी हटा दी। मैं चण्डीगढ़ में था। वहाँ पर 'दैनिक ट्रिब्यून' में एक वक्तव्य दिया कि "अंग्रेज गर्मियों में शिमला आते थे। वहाँ पानी की आपूर्ति सुनिश्चित रखने के लिये उन्होंने शिमला और कुफरी के बीच का वन संरक्षित वन घोषित कर दिया। उसमें पेड़ नहीं कट सकते । अब तो पूरे देश को हिमालय से पानी चाहिए। खासतौर से पंजाब, जो अन्न पैदा कर सबको खिला रहा है, हिमाचल के पानी पर निर्भर है। पेड़ कटेंगे तो भुखमरी की नौबत आयेगी।" मेरा आर्तनाद कौन सुनता? पर सौभाग्य से उच्चतम न्यायाधीश महोदय की निगाह इस समाचार पर पड़ी। उन्होंने इसकी कतरन ली और हिमाचल प्रदेश की सरकार को कोर्ट में तलब कर दिया। पेड़ों की कटाई के बारे में अपने उत्तर से सरकार न्यायालय को संतुष्ट न कर सकी और उच्चतम न्यायालय के आदेश से पुनः पेड़ों की कटाई पर पाबन्दी लग गई।
राजस्थान में खेजड़ली ऐसा प्रेरणा-स्थल है जिसे विश्व धरोहर (World Heritage) घोषित किया जाना चाहिये। खेजड़ली के बलिदान की कहानी का तो देश भर में व्यापक प्रचार किया जाना ही चाहिए। इसे स्कूल, कालेजों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिये, क्योंकि खेजड़ली आज के सबसे बड़े दैत्य प्रदूषण का संहार करने की प्रेरणा देता है। हम लोग बेखबर हैं कि हमारी भोगवादी सभ्यता धूल, धुआं और हल्ला का उपहार लेकर आती है। पेड़ इनसे हमारी रक्षा करते हैं।
हमारे देश में सुनामी का कहर बरपा । ऊँची-ऊँची समुद्र की तूफानी लहरों ने विनाश-लीला की। मैं वहाँ पर गया था। पंडिचेरी के उप-राज्यपाल महोदय ने मुझे बताया कि जहाँ-जहाँ पेड़ थे, वहाँ पर तूफान से कम नुकसान हुआ। पेड़ों ने तूफान की लहरों को रोक दिया और उनके वेग को कम कर दिया। सुनामी का हमारे लिये सबक है कि देश में सर्वत्र समुद्र के किनारे-किनारे पेड़ों की घनी पंक्तियाँ हों। मनुष्य के लालच ने समुद्र के किनारे के 'मैनग्रोव' वनों को नष्ट कर दिया। ये वन तटवर्ती क्षेत्रों की तूफानी प्रकोप से रक्षा करते आये हैं।
राजस्थान का रेगिस्तान हमारे सामने जिंदा रहने की दूसरी चुनौती प्रस्तुत करता है। रेगिस्तान के विस्तार को रोकने का एक ही उपाय है कि इसके किनारे-किनारे पेड़ों की सघन पंक्ति हों। भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी सद्भाव बढ़ाने का काम यह सघन वृक्ष पंक्ति कर सकती है। दोनों देशों की सेनाएँ, जो वहाँ पर सुरक्षा के लिये तैनात हैं, इस दिशा में जनता की स्थायी सुरक्षा के लिये वृक्ष पंक्ति बनाकर लोगों का प्रेम प्राप्त कर सकती हैं और अपनी उपस्थिति को चिरःस्थायी बना सकती हैं।
किस प्रजाति के वृक्ष लगें? यह तो स्थान-विशेष की स्थलाकृति, वहाँ पर उपलब्ध नमी और मिट्टी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है, परन्तु उपयोग की दृष्टि से सर्वोच्च प्राथमिकता काष्ठ फल (nuts), खाद्य बीज, तैलीय बीज, शहद के लिये फूलों वाले वृक्ष व मौसमी फलों को क्रमश: दी जानी चाहिये। इसके बाद चारे के वृक्षों का स्थान आता है। हमने पशुओं के साथ भारी अन्याय किया है। उनका चारा हथिया लिया है। वास्तव में अन्न तो उन घासों के बीज हैं, जिन्हें जब मानव पशुपालक था, उसके पशु चरते थे। पशुपालकों को चारा समाप्त होते ही आगे बढ़ना पड़ता है। यह घुमंतू जीवन स्त्रियों के लिए कष्टदायक था, क्योंकि उन्हें बच्चों के साथ चलना कष्टदायक महसूस होता था। अतः घास के बीज पकाकर खाने का आविष्कार महिलाओं का है और आज भी रसोई पर उनका एकाधिकार है।
अब तापमान की वृद्धि के कारण हमने जल संकट के युग में प्रवेश किया है। हिमालय के हिमनद, जहाँ से हमारी सदाबहार नदियाँ निकलती हैं, तेजी से पीछे खिसक रहे हैं। गंगा का उद्गम गंगोत्री ग्लेशियर कभी गंगोत्री में रहा होगा, जिस शिला पर बैठकर राजा भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाने और शिव-जटा से मुक्त करने के लिए तपस्या की थी, वह आज भी गंगोत्री में 'भगीरथ शिला' के नाम से मौजूद है।
अन्न संकट आया था, तो हमने अनाज का आयात किया था, लेकिन जल का तो आयात नहीं किया जा सकता। जल संकट का मुकाबला करने का एक ही उपाय है-सघन वृक्ष कवच । वृक्ष वर्षा लाते हैं और पानी को संचित करते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भूटान में मिलता है। वहाँ पर सघन वन हैं और उनके कारण चूखा नदी में जाड़े और बरसात के बहाव के बीच एक और सात का अंतर है, जब कि गंगा के बहाव में एक और सत्तर का अंतर है।
पूरे हिमालय को अफगानिस्तान से बर्मा तक सघन वृक्षों से ढकने के लिए अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बंगला देश और बर्मा को एक संधि करनी चाहिये। यह कदम इन देशों की परिस्थितिकीय सुरक्षा के लिये एक व्यवहारिक कदम होगा और आपस में एक स्वस्थ होड़ पैदा करेगा। -एक दूसरे से सशंकित रहने की बजाय, एक दूसरे से प्रेरणालेने का जिंदा रहने की प्रेरणा । उनका नारा होगा Trees for surval-जिदा रहने के लिए पेड़। भूख और प्यास मिटाने के लिए पेड़। Trees for food and Water.
पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन एक आम घटना है। इससे कई जानें जाती हैं, खेती की भूमि नष्ट होती है, सड़कें अवरुद्ध हो जाती हैं। इनको रोकने का भी एक मात्र उपाय पहाड़ी ढलानों पर सघन वृक्षों का कवच है।
हमारा यह सेमिनार सारे देश में और पड़ोसी देशों में इस संदेश को कि "जिंदा रहने के लिए पेड़" को पहुँचाने में सफल हो। हमारे शिक्षकों को अपने उत्साही विद्यार्थियों को लेकर गर्मियों की छुट्टियों में पद-यात्राओं पर निकलने के बारे में विचार करना चाहिये। उन्हें विद्यार्थियों के अभि- भावकों से मिलने का अवसर मिलेगा। युवकों को एक नई जीवन की दिशा मिलेगी। वे आज शिक्षा के बाद बेरोजगारी से पैदा हुई हताशा से मुक्त होंगे। उनके जीवन में आशा का संचार शिक्षा की सबसे बड़ी सफलता है। हमारे शास्त्र का वचन है-"सा विद्या या विमुक्तयेः"एक बढ़ता हुआ पेड़ जीवन में आशा का संचार करता है और एक उज्जवल भविष्य का संदेश देता है।
स्रोत -जिंदा रहने के लिए पेड़
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