28 साल पहले यूनियन कार्बाइड संयंत्र से गैस का रिसाव होने से हजारों लोगों की जानें चली गई थीं। तभी से यह संयंत्र बंद पड़ा है। तीन वर्ष पूर्व 2005 में परिसर में मौजूद रासायनिक कचरे को इकट्ठा कर सुरक्षित शेड में रखा गया था। मध्यप्रदेश के भोपाल शहर में स्थित यूनियन कार्बाइड परिसर में लगभग चार सौ मैट्रिक टन रासायनिक कचरा है। इस कचरे में से साढ़े तीन सौ मैट्रिक टन कचरे को गुजरात में भस्म किया जाना है जबकि 40 मैट्रिक टन कचरे को पीथमपुर में जमीन में भरा जाना है। कार्बाइड कचरे को गुजरात ने भस्म किए जाने से मना कर दिया है
सरकार इस कचरे को हटाने की बाबत कोई व्यावहारिक फैसला नहीं कर पाई है। शुरू में यही तय नहीं हो पा रहा था कि इस कचरे के निपटारे की जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए, यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ केमिकल्स की या भारत सरकार की। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि मध्यप्रदेश के पीथमपुर और गुजरात के अंकलेश्वर के भस्मकों में जला कर इसे नष्ट कर दिया जाए। मगर गुजरात सरकार ने इस कचरे के खतरनाक प्रभावों को देखते हुए अपने यहां इसे नष्ट करने की इजाजत नहीं दी। मध्यप्रदेश सरकार का रुख भी ऐसा ही था। तब केंद्र ने करीब चालीस टन कचरा पीथमपुर के पास जमीन में दफन कर दिया। जबकि ऐसे कचरे को एक खास तापमान पर जलाना जरूरी होता है, नहीं तो वह लंबे समय तक अपना असर छोड़ता रहता है।
खतरनाक कचरे को लेकर लापरवाही बरतने का यह अकेला मामला नहीं है। कबाड़ में घातक चीजें मिलने के कई मामले उजागर हो चुके हैं। दिल्ली के मायापुरी में कोबाल्ट-60 मिलने की घटना को इस सिलसिले में एक उदाहरण के तौर पर याद किया जा सकता है। अपने आदेश पर समुचित कार्रवाई न हो पाने पर साल भर बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार को फटकार लगाई है। अब मंत्रियों का समूह इस मामले में विचार कर कोई रूपरेखा तैयार करेगा। यूनियन कार्बाइड के परिसर में फैला रासायनिक कचरा स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है यह बताने की जरूरत नहीं है, खासकर उन लोगों को जो जहरीली गैसों के रिसाव का कहर देख चुके हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस कचरे को जलाने के लिए अपने देश में उपयुक्त भस्मक नहीं हैं। इसके लिए विशेष प्रबंध करना होगा। मगर सरकार ने इसके निपटारे के उपायों पर कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया और जब सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाई तो वह उसे जैसे-तैसे जमीन में दफन कर खानापूर्ति करने की हड़बड़ी में दिखी। तत्परता और संजीदगी दिखाना तो दूर, वह डाउ केमिकल्स को बचाने की कोशिश में लगी रही। क्या अमेरिका या यूरोप के किसी देश में अपने नागरिकों की जान जोखिम में डाल कर विषैले रासायनिक कचरे को इतने साल खुले में पड़ा रहने दिया जाता?
खतरनाक कचरे को लेकर लापरवाही बरतने का यह अकेला मामला नहीं है। कबाड़ में घातक चीजें मिलने के कई मामले उजागर हो चुके हैं। दिल्ली के मायापुरी में कोबाल्ट-60 मिलने की घटना को इस सिलसिले में एक उदाहरण के तौर पर याद किया जा सकता है। यूनियन कार्बाइड के परिसर में फैला रासायनिक कचरा स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है यह बताने की जरूरत नहीं है, खासकर उन लोगों को जो जहरीली गैसों के रिसाव का कहर देख चुके हैं।
भोपाल गैस हादसे से जुड़े हर पहलू पर केंद्र सरकार का रवैया ज्यादातर टालमटोल का ही रहा है। चाहे वह दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों को उचित मुआवजे के भुगतान का मामला रहा हो या यूनियन कार्बाइड कारखाने के कचरे के निपटान का। हर काम के लिए अदालत को निर्देश जारी करना या फटकार लगानी पड़ी। भोपाल गैस हादसा दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा था। इससे सबक लेने और दोषियों को कठोर सजा दिलाने की जरूरत थी, मगर सरकार इसे मामूली दुर्घटना की तरह रफा-दफा करने की कोशिश करती रही। इस हादसे में हजारों लोग मारे गए, बहुतों की आंख की रोशनी चली गई, लाखों लोग तरह-तरह की बीमारियों के शिकार हुए। पर्यावरण के लिहाज से भी यह बहुत बड़ी त्रासदी थी। इलाके का भूजल प्रदूषित हो गया; पेयजल का संकट खड़ा हुआ। हवा, मिट्टी, वनस्पतियों और स्थानीय लोगों की सेहत तक सब कुछ जहरीले कचरे से प्रभावित होता रहा है। पर हादसे के अट्ठाईस साल बाद भी यूनियन कार्बाइड कारखाना परिसर में साढ़े तीन सौ टन घातक कचरा पड़ा हुआ है।सरकार इस कचरे को हटाने की बाबत कोई व्यावहारिक फैसला नहीं कर पाई है। शुरू में यही तय नहीं हो पा रहा था कि इस कचरे के निपटारे की जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए, यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ केमिकल्स की या भारत सरकार की। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि मध्यप्रदेश के पीथमपुर और गुजरात के अंकलेश्वर के भस्मकों में जला कर इसे नष्ट कर दिया जाए। मगर गुजरात सरकार ने इस कचरे के खतरनाक प्रभावों को देखते हुए अपने यहां इसे नष्ट करने की इजाजत नहीं दी। मध्यप्रदेश सरकार का रुख भी ऐसा ही था। तब केंद्र ने करीब चालीस टन कचरा पीथमपुर के पास जमीन में दफन कर दिया। जबकि ऐसे कचरे को एक खास तापमान पर जलाना जरूरी होता है, नहीं तो वह लंबे समय तक अपना असर छोड़ता रहता है।
खतरनाक कचरे को लेकर लापरवाही बरतने का यह अकेला मामला नहीं है। कबाड़ में घातक चीजें मिलने के कई मामले उजागर हो चुके हैं। दिल्ली के मायापुरी में कोबाल्ट-60 मिलने की घटना को इस सिलसिले में एक उदाहरण के तौर पर याद किया जा सकता है। अपने आदेश पर समुचित कार्रवाई न हो पाने पर साल भर बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार को फटकार लगाई है। अब मंत्रियों का समूह इस मामले में विचार कर कोई रूपरेखा तैयार करेगा। यूनियन कार्बाइड के परिसर में फैला रासायनिक कचरा स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है यह बताने की जरूरत नहीं है, खासकर उन लोगों को जो जहरीली गैसों के रिसाव का कहर देख चुके हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस कचरे को जलाने के लिए अपने देश में उपयुक्त भस्मक नहीं हैं। इसके लिए विशेष प्रबंध करना होगा। मगर सरकार ने इसके निपटारे के उपायों पर कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया और जब सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाई तो वह उसे जैसे-तैसे जमीन में दफन कर खानापूर्ति करने की हड़बड़ी में दिखी। तत्परता और संजीदगी दिखाना तो दूर, वह डाउ केमिकल्स को बचाने की कोशिश में लगी रही। क्या अमेरिका या यूरोप के किसी देश में अपने नागरिकों की जान जोखिम में डाल कर विषैले रासायनिक कचरे को इतने साल खुले में पड़ा रहने दिया जाता?
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