गोमती नदी में प्रदूषण की शुरुआत लखनऊ से 50 किमी पहले ही सीतापुर जिले के भट्टपुर घाट से हो जाती है। यहां गोमती की एक प्रमुख सहायक नदी सरिया इसमें आकर मिलती है। सरिया के पानी में सीतापुर जिले में स्थित शक्कर व शराब के कारखनों का प्रदूषित स्राव होता है। जैसे-तैसे गोमती लखनऊ तक शुद्ध हो पाती है तो इस राजधानी में आकर यह गंदी गटर बन जाती है। 20 लाख आबादी वाले इस शहर का कोई 1800 टन घरेलू कचरा व 33 करोड़ लीटर गंदा पानी हर रोज गोमती में घुलता है। जब आसमान में बादल छाए हुए थे और सारा शहर श्रावण के स्वागत की तैयारी कर रहा था, अचानक ही गोमती का तट मरी हुई मछलियों से पट गया। पूरे सावन में भले ही पानी कम बरसा हो, लेकिन लखनऊ में मछलियां खूब सस्ती बिकीं। हर सुबह गोमती का तट मरी मछलियों व उसकी बू से पटा रहता है। यह पिछले 25 दिनों से जारी है।
कहा जा रहा है कि सीतापुर के चीनी कारखाने से गंदा पानी छोड़ा गया था, उसी से मछलियां मर रही हैं। ना कोई उत्तेजना, ना ही चिंता और ना ही समाधान का कोई प्रयास! कभी गोमती वहां के बाशिंदों के जीवन-जगत का मुख्य आधार हुआ करती थी। सूर्य की अस्ताचलगामी किरणें इस नदी की अथाह जलनिधि से परावर्तित होकर सारे शहर को सुनहरे लाल रंग से सराबोर कर देती थीं।
गौरतलब है कि लखनऊ शहर में गोमती के बहाव की दिशा पूर्व-पश्चिम है। सो डूबते सूरज की किरणों का सीधा परावर्तन होता है। लेकिन आज शहरीकरण की चपेट में आकर गोमती गंदा नाला बन कर रह गई है। नदी में पानी कम और काई अधिक दिखाई देती है। इसकी बदबू के कारण शहीद स्मारक पार्क की क्या कहें, दूर इमामबाड़े के बगीचे में भी बैठना दूभर है। सूरज की रोशनी वही है, उसके अस्त होने की दिशा भी नहीं बदली है, लेकिन शाम-ए-अवध का वह सुनहरा सुरूर नदारद है।
पीलीभीत से 32 किमी दूर पूर्व दिशा में ग्राम बैजनाथ की फुल्हर झील (माधो टांडा के करीब) गोमती का उद्गम स्थल है। करीब 20 किमी तक इसकी चौड़ाई किसी छोटे से नाले सरीखी संकरी है,जहां गर्मियों में अक्सर पानी का नामोनिशान नहीं होता है। फिर इसमें गैहाई नाम की छोटी-सी नदी आकर मिलती है और एक छिछला जल-मार्ग बन जाता है।
जन्म स्थली से 56 किमी का सफर तय करने के बाद जब इसमें जोकनई नदी आ कर मिलती है, तो इसका पूरा रूप निखर आता है। फिर यह काफी धीमी गति से शाहजहांपुर और खीरी से होती हुई घूमती-घामती अपतृण व सिवार से सघन जल-मार्गों का जाल सा रचती हुई आगे बढ़ती है।
मुहमदी से नीचे आकर इसके जलमार्ग का स्वरूप बदल जाता है और इसका पाट 30 से 60 मीटर चौड़ा हो जाता है। अपने उद्गम से 560 किमी चलकर जब यह लखनऊ पहुंचती है तो इसके तट धीरे-धीरे उठते हुए 20 मीटर तक ऊंचे हो जाते हैं। लखनऊ के बाद यह काफी चक्कर काटती हुई बाराबंकी, सुल्तानपुर और जौनपुर जिलों से गुजरती है। सई नदी, जो लगभग 560 किमी. तक गोमती के समानांतर बहती आती है, जौनपुर से नीचे इसमें मिल जाती है।
उद्गम से 900 किलोमीटर का सफर तय करते हुए यह नदी जौनपुर व बनारस जिलों में बहती हुई गाजीपुर जिले के सैदपुर में गंगा में विलीन हो जाती है। इस नदी का अपवाह लगभग 18,750 वर्ग किमी है। 240 किलोमीटर की यात्रा के बाद लखनऊ पहुंच कर नदी-तल का उतार सिर्फ 36 सेंटीमीटर प्रति किमी है, तभी यहां इसमें पानी के बहाव की रफ्तार अत्यधिक धीमी रहती है। लखनऊ में गोमती का सफर 12 किलोमीटर रहता है और यहां इसमें छोटे-बड़े 25 नालों से औद्योगिक और घरेलू कचरा गिरता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों को विश्वास करें तो गोमती नदी लखनऊ आने तक काफी-कुछ निर्मल रहती है। लेकिन लखनऊ शहर से उसके गंगा में मिलने तक इसमें ‘डी’ व ‘ई’ स्तर का प्रदूषण व्याप्त रहता है। सनद रहे बोर्ड के मानदंडों के मुताबिक ‘डी’ स्तर का पानी केवल वन्यजीवों और मछली पालन योग्य होता है, जबकि ‘ई’ स्तर के पानी को मात्र सिंचाई, औद्योगिक शीतकरण व नियंत्रित कचरा डालने लायक माना जाता है। हालांकि बोर्ड के मापदंडों को झुठलाते हुए, सन् 1984 से ही लगातार गर्मी के दिनों में गोमती का तट मरी हुई मछलियों से पटा दिखता है। यानि कि लखनऊ शहर से ही नदी का पानी ‘ई’ स्तर का होता है। कितना दुखद है कि हर साल मरी हुई मछलियों तो लोगों को नदी के प्रदूषण की याद दिलाती हैं, लेकिन पूरे साल नदी के कारण फैले प्रदूषण से मरने वाले सैंकड़ों इंसानों के प्रति सरकार कतई संवेदनशील नहीं है।
वैसे गोमती नदी में प्रदूषण की शुरुआत लखनऊ से 50 किमी पहले ही सीतापुर जिले के भट्टपुर घाट से हो जाती है। यहां गोमती की एक प्रमुख सहायक नदी सरिया इसमें आकर मिलती है। सरिया के पानी में सीतापुर जिले में स्थित शक्कर व शराब के कारखनों का प्रदूषित स्राव होता है। जैसे-तैसे गोमती लखनऊ तक शुद्ध हो पाती है तो इस राजधानी में आकर यह गंदी गटर बन जाती है।
कोई 20 लाख आबादी वाले इस शहर का कोई 1800 टन घरेलू कचरा व 33 करोड़ लीटर गंदा पानी हर रोज गोमती में घुलता है। हालांकि शहर के पुराने इलाकों में सीवर प्रणाली काफी सालों से है, पर यह जगह-जगह जाम पड़ी है व पूरी तरह बेकार है। गंदे पानी का नाममात्र का हिस्सा ही सीवर से गुजर पाता है। बकाया गंदा पानी 23 छोटी और बड़ी नालियों से बहकर गोमती में ही समाहित होता है।
यही नहीं 12 साल पहले यहां के 600 एकड़ वाले सलेज फार्म को बगैर कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए खत्म कर दिया गया था। सलेज फार्म में शहर के सारे सीवेज को पंप करके खेती के लिए काम में लाया जाता था। सलेज फार्म खत्म होने के बाद शहर का पूरा मैला नालों के जरिए गोमती में गिर रहा है। इसके अलावा शहर के भीतर स्थित कोई आधा दर्जन बड़े कारखाने भी बगैर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए अपना अपशिष्ट निकास गोमती में कर रहे हैं।
सनद रहे लखनऊ में गऊघाट से ऐशबाग और बालागंज इलाकों में जल सप्लाई के लिए गोमती का पानी लिया जाता है । यहीं गऊघाट पर ही एक बड़ा गंदा नाला आकर नदी में मिलता है । इस घाट पर घुलित आक्सीजन यानि बीओडी की मात्रा 1.35 तक पहुंच जाती है, जबकि यहां पानी की बहाव गति एक एमएलटी मिलियन लीटर है। विदित हो पीने लायक पानी में बीओडी का स्तर 6.5 से 8.5 होना चाहिए।
चूंकि गोमती बर्फीले पहाड़ों से उद्गमित नदी तो है नहीं, सो गर्मी के दिनों में इसका जलस्तर काफी कम हो जाता है। तब इसका प्रदूषण स्तर चरम पर होता है, क्योंकि उन दिनों में पानी के बहाव से कई गुणा अधिक सीवेज इसमें मिलता है। गोमती में प्रदूषण का बड़ा कारण सभी नालों का बैराज से पहले अपस्ट्रीम में मिलना भी है।
महानगर के अनियोजित विकास का उदाहरण कुकरैल नाला है। यह नाला पहले बैराज के बाद नदी में मिलता था, लेकिन कुछ साल पहले इसकी दिशा बदल कर बैराज से पहले कर दी गई। स्थानीय प्रशासन इस प्रदूषण से निबटने में खुद को असहाय पाता है। जब अधिक गंदगी बढ़ जाती है तो जल संस्थान विभाग बैराज के फाटक खोल देता है। इसके कारण एक तो गऊघाट पर पानी कम हो जाता है और दूसरा पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है व मछलियां मरने लगती हैं।
इसके अलावा सामूहिक स्नान, धार्मिक अनुष्ठान, मवेशियों को नहलाने, ठीक किनारे मुर्दों को जलाने और छोटे बच्चों व मवेशियों के शव गोमती में बेरोकटोक डाले जाने से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। सामूहिक स्नान के समय रोगों को फैलाने वाले अनेक बैक्टीरिया, वायरस व कवक पानी में संचालित हो जाते हैं ।
धार्मिक अनुष्ठानों के समय नदी में पत्तियों, फूल, दूध, दही, सिर के बाल, आटा, अस्थियां, राख डाले जाते हैं, यह भी पानी को दूषित कर रहे हैं। यही कारण है कि लखनऊ के लोग मलेरिया, दमा, वायरल फीवर, दस्त, हैजा, आंत्रशोथ सरीखी बीमारियों के स्थाई मरीज होते जा रहे हैं।
राज्य सरकार ने कई साल पहले ब्रिटेन की मदद से 200 करोड़ की लागत का गोमती एक्शन प्लान शुरू किया था। पता नहीं उसके क्या नतीजे रहे। अभी पिछले साल 28 जुलाई 2008 को 345 मिलियन लीटर दूषित पानी प्रतिदिन शोधित करने की क्षमता वाले शोधन-यंत्र का शिलान्यास भी हुआ है। कहा जा रहा है कि यह देश का सबसे बड़ा जल-शोधन संयंत्र होगा। पता नहीं कब होगा? हां, आज की हकीकत तो यही है कि बढ़ते प्रदूषण के कारण अब गोमती एक ‘मरी हुई नदी’ रह गई है।
कहा जा रहा है कि सीतापुर के चीनी कारखाने से गंदा पानी छोड़ा गया था, उसी से मछलियां मर रही हैं। ना कोई उत्तेजना, ना ही चिंता और ना ही समाधान का कोई प्रयास! कभी गोमती वहां के बाशिंदों के जीवन-जगत का मुख्य आधार हुआ करती थी। सूर्य की अस्ताचलगामी किरणें इस नदी की अथाह जलनिधि से परावर्तित होकर सारे शहर को सुनहरे लाल रंग से सराबोर कर देती थीं।
गौरतलब है कि लखनऊ शहर में गोमती के बहाव की दिशा पूर्व-पश्चिम है। सो डूबते सूरज की किरणों का सीधा परावर्तन होता है। लेकिन आज शहरीकरण की चपेट में आकर गोमती गंदा नाला बन कर रह गई है। नदी में पानी कम और काई अधिक दिखाई देती है। इसकी बदबू के कारण शहीद स्मारक पार्क की क्या कहें, दूर इमामबाड़े के बगीचे में भी बैठना दूभर है। सूरज की रोशनी वही है, उसके अस्त होने की दिशा भी नहीं बदली है, लेकिन शाम-ए-अवध का वह सुनहरा सुरूर नदारद है।
पीलीभीत से 32 किमी दूर पूर्व दिशा में ग्राम बैजनाथ की फुल्हर झील (माधो टांडा के करीब) गोमती का उद्गम स्थल है। करीब 20 किमी तक इसकी चौड़ाई किसी छोटे से नाले सरीखी संकरी है,जहां गर्मियों में अक्सर पानी का नामोनिशान नहीं होता है। फिर इसमें गैहाई नाम की छोटी-सी नदी आकर मिलती है और एक छिछला जल-मार्ग बन जाता है।
जन्म स्थली से 56 किमी का सफर तय करने के बाद जब इसमें जोकनई नदी आ कर मिलती है, तो इसका पूरा रूप निखर आता है। फिर यह काफी धीमी गति से शाहजहांपुर और खीरी से होती हुई घूमती-घामती अपतृण व सिवार से सघन जल-मार्गों का जाल सा रचती हुई आगे बढ़ती है।
मुहमदी से नीचे आकर इसके जलमार्ग का स्वरूप बदल जाता है और इसका पाट 30 से 60 मीटर चौड़ा हो जाता है। अपने उद्गम से 560 किमी चलकर जब यह लखनऊ पहुंचती है तो इसके तट धीरे-धीरे उठते हुए 20 मीटर तक ऊंचे हो जाते हैं। लखनऊ के बाद यह काफी चक्कर काटती हुई बाराबंकी, सुल्तानपुर और जौनपुर जिलों से गुजरती है। सई नदी, जो लगभग 560 किमी. तक गोमती के समानांतर बहती आती है, जौनपुर से नीचे इसमें मिल जाती है।
उद्गम से 900 किलोमीटर का सफर तय करते हुए यह नदी जौनपुर व बनारस जिलों में बहती हुई गाजीपुर जिले के सैदपुर में गंगा में विलीन हो जाती है। इस नदी का अपवाह लगभग 18,750 वर्ग किमी है। 240 किलोमीटर की यात्रा के बाद लखनऊ पहुंच कर नदी-तल का उतार सिर्फ 36 सेंटीमीटर प्रति किमी है, तभी यहां इसमें पानी के बहाव की रफ्तार अत्यधिक धीमी रहती है। लखनऊ में गोमती का सफर 12 किलोमीटर रहता है और यहां इसमें छोटे-बड़े 25 नालों से औद्योगिक और घरेलू कचरा गिरता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों को विश्वास करें तो गोमती नदी लखनऊ आने तक काफी-कुछ निर्मल रहती है। लेकिन लखनऊ शहर से उसके गंगा में मिलने तक इसमें ‘डी’ व ‘ई’ स्तर का प्रदूषण व्याप्त रहता है। सनद रहे बोर्ड के मानदंडों के मुताबिक ‘डी’ स्तर का पानी केवल वन्यजीवों और मछली पालन योग्य होता है, जबकि ‘ई’ स्तर के पानी को मात्र सिंचाई, औद्योगिक शीतकरण व नियंत्रित कचरा डालने लायक माना जाता है। हालांकि बोर्ड के मापदंडों को झुठलाते हुए, सन् 1984 से ही लगातार गर्मी के दिनों में गोमती का तट मरी हुई मछलियों से पटा दिखता है। यानि कि लखनऊ शहर से ही नदी का पानी ‘ई’ स्तर का होता है। कितना दुखद है कि हर साल मरी हुई मछलियों तो लोगों को नदी के प्रदूषण की याद दिलाती हैं, लेकिन पूरे साल नदी के कारण फैले प्रदूषण से मरने वाले सैंकड़ों इंसानों के प्रति सरकार कतई संवेदनशील नहीं है।
वैसे गोमती नदी में प्रदूषण की शुरुआत लखनऊ से 50 किमी पहले ही सीतापुर जिले के भट्टपुर घाट से हो जाती है। यहां गोमती की एक प्रमुख सहायक नदी सरिया इसमें आकर मिलती है। सरिया के पानी में सीतापुर जिले में स्थित शक्कर व शराब के कारखनों का प्रदूषित स्राव होता है। जैसे-तैसे गोमती लखनऊ तक शुद्ध हो पाती है तो इस राजधानी में आकर यह गंदी गटर बन जाती है।
कोई 20 लाख आबादी वाले इस शहर का कोई 1800 टन घरेलू कचरा व 33 करोड़ लीटर गंदा पानी हर रोज गोमती में घुलता है। हालांकि शहर के पुराने इलाकों में सीवर प्रणाली काफी सालों से है, पर यह जगह-जगह जाम पड़ी है व पूरी तरह बेकार है। गंदे पानी का नाममात्र का हिस्सा ही सीवर से गुजर पाता है। बकाया गंदा पानी 23 छोटी और बड़ी नालियों से बहकर गोमती में ही समाहित होता है।
यही नहीं 12 साल पहले यहां के 600 एकड़ वाले सलेज फार्म को बगैर कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए खत्म कर दिया गया था। सलेज फार्म में शहर के सारे सीवेज को पंप करके खेती के लिए काम में लाया जाता था। सलेज फार्म खत्म होने के बाद शहर का पूरा मैला नालों के जरिए गोमती में गिर रहा है। इसके अलावा शहर के भीतर स्थित कोई आधा दर्जन बड़े कारखाने भी बगैर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए अपना अपशिष्ट निकास गोमती में कर रहे हैं।
सनद रहे लखनऊ में गऊघाट से ऐशबाग और बालागंज इलाकों में जल सप्लाई के लिए गोमती का पानी लिया जाता है । यहीं गऊघाट पर ही एक बड़ा गंदा नाला आकर नदी में मिलता है । इस घाट पर घुलित आक्सीजन यानि बीओडी की मात्रा 1.35 तक पहुंच जाती है, जबकि यहां पानी की बहाव गति एक एमएलटी मिलियन लीटर है। विदित हो पीने लायक पानी में बीओडी का स्तर 6.5 से 8.5 होना चाहिए।
चूंकि गोमती बर्फीले पहाड़ों से उद्गमित नदी तो है नहीं, सो गर्मी के दिनों में इसका जलस्तर काफी कम हो जाता है। तब इसका प्रदूषण स्तर चरम पर होता है, क्योंकि उन दिनों में पानी के बहाव से कई गुणा अधिक सीवेज इसमें मिलता है। गोमती में प्रदूषण का बड़ा कारण सभी नालों का बैराज से पहले अपस्ट्रीम में मिलना भी है।
महानगर के अनियोजित विकास का उदाहरण कुकरैल नाला है। यह नाला पहले बैराज के बाद नदी में मिलता था, लेकिन कुछ साल पहले इसकी दिशा बदल कर बैराज से पहले कर दी गई। स्थानीय प्रशासन इस प्रदूषण से निबटने में खुद को असहाय पाता है। जब अधिक गंदगी बढ़ जाती है तो जल संस्थान विभाग बैराज के फाटक खोल देता है। इसके कारण एक तो गऊघाट पर पानी कम हो जाता है और दूसरा पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है व मछलियां मरने लगती हैं।
इसके अलावा सामूहिक स्नान, धार्मिक अनुष्ठान, मवेशियों को नहलाने, ठीक किनारे मुर्दों को जलाने और छोटे बच्चों व मवेशियों के शव गोमती में बेरोकटोक डाले जाने से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। सामूहिक स्नान के समय रोगों को फैलाने वाले अनेक बैक्टीरिया, वायरस व कवक पानी में संचालित हो जाते हैं ।
धार्मिक अनुष्ठानों के समय नदी में पत्तियों, फूल, दूध, दही, सिर के बाल, आटा, अस्थियां, राख डाले जाते हैं, यह भी पानी को दूषित कर रहे हैं। यही कारण है कि लखनऊ के लोग मलेरिया, दमा, वायरल फीवर, दस्त, हैजा, आंत्रशोथ सरीखी बीमारियों के स्थाई मरीज होते जा रहे हैं।
राज्य सरकार ने कई साल पहले ब्रिटेन की मदद से 200 करोड़ की लागत का गोमती एक्शन प्लान शुरू किया था। पता नहीं उसके क्या नतीजे रहे। अभी पिछले साल 28 जुलाई 2008 को 345 मिलियन लीटर दूषित पानी प्रतिदिन शोधित करने की क्षमता वाले शोधन-यंत्र का शिलान्यास भी हुआ है। कहा जा रहा है कि यह देश का सबसे बड़ा जल-शोधन संयंत्र होगा। पता नहीं कब होगा? हां, आज की हकीकत तो यही है कि बढ़ते प्रदूषण के कारण अब गोमती एक ‘मरी हुई नदी’ रह गई है।
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Post By: Shivendra