युगदृष्टा जोहारी

बाबू रामसिंह पांगती जोहार की उन महान विभूतियों में से एक थे जिन्होंने इस क्षेत्र के तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, अन्धविश्वासों और डगमगाती अर्थव्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने का बीड़ा उठाया था। उनका जन्म जोहार के उस सम्पन्न परिवार में हुआ था। जिसका व्यापार सीधे पश्चिमी तिब्बत के सरकारी व्यापारी ज्युङ छुङ के साथ होता था। इन्होंने कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई, कानपुर, दिल्ली और अमृतसर से कपड़ा, मूँगा, मोती आदि व्यापारिक वस्तुएँ खरीदकर तिब्बत का व्यापार भी किया था, परन्तु इस प्रकार के व्यापार को अस्थाई मानकर वे क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिए गृह उद्योग को अधिक महत्व देते थे। अनिच्छापूर्वक अल्मोड़ा में अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर इन्होंने सर्वे विभाग देहरादून में नौकरी भी की परन्तु सीतापुर और काठियाबाड़ (गुजरात) में कार्य करते समय वहाँ की असह्य गर्मी के कारण उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः विवश होकर इन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी।

अब ये विजय सिंह पांगती और किशन सिंह जंगपांगी आदि दूरदर्शी व्यक्तियों के सहयोग से फलोत्पादन जड़ी-बूटी उद्योग, शिलाजीत तथा अभ्रक शोधन के कार्य में लग गए। इससे उनको कुछ आर्थिक लाभ भी होने लगा था। सन 1914 से शान्ति कुंज (नानासेन) में ही स्थाई रूप से वे निवास करने लगे। इन्हीं दिनों जोहार में आर्यसमाज का भी प्रभाव पड़ने लगा था। रायबहादुर किशन सिंह, दौलत सिंह रावत, प्रेमसिंह मर्तोलिया, भवान सिंह धर्मशक्तू, खडगमय और भवानसिंह पांगती आदि प्रबुद्ध लोग समाज में व्याप्त कुरीतियों को हटाकर नवचेतना जागृत करना चाहते थे। बाबू रामसिंह ने इस कार्य में अपने को समर्पित कर दिया और इसी उद्देश्य से सन 1913 में जोहार सोसाइटी का गठन किया था परन्तु किसी भी समाज की मान्यताओं को अकस्मात अमान्य घोषित करना वास्तव में उस समाज में उत्पन्न अपना ही विरोध उत्पन्न करना सिद्ध होता है। इसी कारण बाबूराम सिंह अपनी आत्मकहानी में लिखते हैं कि आर्य समाज के प्रचार से पुरोहित वर्ग नाराज हो गए। जान-दारू का प्रचार रोकने के आन्दोलन पर डूम-हुड़किए और अन्य शराबी दुश्मन बने। बाल विवाह को रुकवाने पर कन्या बेचने और खरीदने वाले उदास हुए। घटेलियों का दमन करने तथा उन्हें गाँव में न आने देने पर घटेली के प्रवर्तक क्रोधित हुए। स्वदेशी और स्वराज्य के आन्दोलनों से सरकार के भक्त लोग रोड़ा अटकने लगे।

बाबू रामसिंह तिब्बत के व्यापार के भविष्य को अनिश्चित मानकर जोहारवासियों को उत्क्रमण जीवन की अपेक्षा एक स्थान पर व्यवस्थित होकर बच्चों को शिक्षित करने का आग्रह करते थे। उन्होंने जोहार उपकारक, शौका मण्डल, जोहार पंचायत, अछूताद्धार, नारी शिक्षा और महिला सुधार आदि पुस्तकें प्रकाशित कर युवा पीढ़ी में नव चेतना का संचार आरम्भ किया। सहकारिता, कुटीर उद्योग, बैकिंग प्रथा तथा शिक्षा के प्रसार से प्रजातांत्रिक भारत के समाज की कल्पना वे स्वतंत्रता से तीन दशक पूर्व किया करते थे।

सन 1911 में रामसिंह जोहार में उत्पादित ऊनी वस्त्र, शिलाजीत आदि लेकर अखिल भारतीय प्रदर्शनी में भाग लेने इलाहाबाद गए। अधिवेशन में आए राष्ट्रीय नेताओं के ओजस्वी भाषण सुनकर इनके मन में भी जागरण की भावनाएँ उभरने लगीं। अतः 1923 में इन्होंने कौन्सिल की सदस्यता के प्रत्याशी हरगोविन्द पंत और 1936 में बद्रीदत्त पाण्डे का समर्थन कर उन्हें सफल बनाया। 1930 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में भाग लेने के पश्चात जोहार में भी चार आना सदस्यता शुल्क लेकर कांग्रेस मण्डल की स्थापना की गई। इनके विचारों से प्रभावित होकर जोहार में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भावनाएँ उभरने लगीं थीं, परन्तु शारीरिक दुर्बलता के कारण ये स्वतंत्रता आन्दोलन में प्रत्यक्ष भाग नहीं ले सके। द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भड़क रहे जनाक्रोश के समय बाबू रामसिंह ने सांसारिक जीवन से सन्यास ले लिया था। अब वे एकान्त में तपस्वी जीवन बिताने लगे। सन 1951 में 68 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपने नश्वर जीवन से मुक्ति प्राप्ति की।

शान्तिकुंज की यादें

मैं जब शान्तिकुंज को देखती हूँ तो अतीत के दृश्य चलचित्र की तरह आँखों के सामने उभर आते हैं। मेरे पिता (स्व. राम सिंह पाँगीत) ने सन 1914 में ग्राम नानासेन (मुनस्यारी) में मकान बनाने के लिए 17 नाली जमीन खरीदी। कुछ समय बाद उन्होंने रहने के लिए मकान बनाया।

अपनी आत्म कहानी में उन्होंने लिखा है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में आर्य समाज प्रचार का धूम मच रहा था। तिलक महाराज, गोखले, लाजपत राय आदि कांग्रेसी नेता स्वराज्य तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में जी जान से लगे हुए थे। इन सब आन्दोलनों का निरन्तर अध्ययन और मनन करने से दिल में उत्कट इच्छा हुई कि अपने शौका जाति और जोहार की गिरी हुई दशा को सुधारने के लिए अपनी मातृभूमि में विकट आन्दोलन किया जाए। अपने समाज के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालातों को सुधारने का संकल्प लेकर उन्होंने शान्तिकुंज से काम करना शुरू किया। मुझे याद है कि शान्तिकुंज में बड़े बूढ़े, कोई घोड़े में सवार, कोई पैदल लाठी टेककर आते थे। उन लोगों को अपनी जाति के अतीत की जानकारी तथा वंशावली तैयार करने के लिए बुलाया जाता था। वार्तालाप का विषय मेरी समझ से परे था। वृद्ध लोगों को कभी-कभी लोकगीत गाते हुई सुनती थी। वे मेरे आकर्षण बिन्दु थे। शान्तिकुंज में मण्डल कांग्रेस कार्यालय तथा स्वयं निर्मित आयुर्वेदिक दवाओं तथा अन्य सामान की दुकान थी। दिन भर आने-जाने वालों का तांत-सा लगा रहता था। मेरा अधिक समय पिताजी के मेहमानों के तम्बाकू भरने तथा धारे का ठण्डा पानी लाने में व्यतीत होता था। मेरी माँ वक्त-बेवक्त खाना बनाती रहती थी। मेहमानों को पिताजी अपने बगीचे में लगाए गए चाय की पत्ती की ही चाय पिलाते थे। तम्बाकू की पत्तियों से बीड़ी बनाते, जो राम बीड़ी नाम से जानी जाती। अभ्रक, शीलाजीत को बनाने तथा विकरित करने की विधि की जानकारी लोगों को देते। जन्म कुण्डली बनाये जाने वाले हस्त निर्मित कागज भी उनके द्वारा तैयार किया जाता था। भोजपत्र पर हल्का-सा गोंद लगाकर चिट्ठी लिखा करते। एक बार जब मैंने उनसे पूछा कि आप किसे पत्र लिख रहे हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि गाँधीजी को पत्र लिख रहा हूँ।

लोगों को बुला-बुलाकर भारत भर में चल रहे कांग्रेस आन्दोलन के बारे में जानकारी देते और मण्डल कांग्रेस के कार्य कर्ताओं से सम्पर्क भी करते। वे अन्धविश्वासों के घोर विरोधी थे। इस बारे में सिर्फ लिखते नहीं थे बल्कि स्वयं उससे दूर रहते। उन दिनों जोहार में हमारा परिवार ही था जो घटेली जागर आदि प्रथाओं से अलग था। छुआछूत से उनका बिल्कुल विश्वास नहीं था। एक बार तो हमारे परिवार को अछूत माना गया और हर साल की तरह ब्राह्मण लोग हमें राखी बाँधने नहीं आए। रात में जब तक हमें नीद नहीं आती, मैं उन्हें लिखते-पढ़ते, वंश वृक्ष बनाते या तम्बाकू पीते/सोचते हुए देखती थी।

प्रकाशित पुस्तकों में

1.जोहार का इतिहास व वंशावली (सन 1936 ई.)।
2.आत्म कहानी।
3.स्त्री शिक्षा (सन 1910)।
4.जोहारीय उपकारक (भाग 1)।
5.जोहारीय उपकारक (भाग 2)।

हस्तलिखित

1.होली का अखबार (1935)।
2.महिला सुधार (जोहारी बोली में 1936)।
3.देशोपकारक (जिसमें शौका सेवक मण्डल, जोहार पंचायत, सुधारकों को आदेश, अछूतोद्धार और मनोभिलाषा शामिल है)।
4.भूत शंका निवारण हैं।

सामाजिक तथा राजनैतिक कार्य

उन्होंने जोहार उपकारिणी महासभा, जोहार सोसाइटी (1969), नौजवान पांगती पुस्तकालय, जोहार कांग्रेस मण्डल आदि सामाजिक तथा राजनैतिक संस्थाओं के गठन में सक्रिय सहयोग दिया।

अन्य कार्य

रुगी, टाटुरी, गेनजरी, ताकल आदि अनेक जंगली साग-सब्जी लाने के लिए मजदूरों को जंगलों में भेजते। उन्होंने शान्ति कुंज में विभिन्न प्रजाति के देशी तथा विदेशी फलों के पेड़ लगाए। जोहार में महिलाओं के उत्थान के लिए वे सन 1900 से ही प्रयास करते रहे। बाल विवाह, कन्या विक्रय, अशिक्षा व महिलाओं में पर्दे का प्रचलन रोकने के लिए प्रचार तथा प्रसार किया। सन 1910 में महिलाओं में जागृति के लिए स्त्री शिक्षा नामक पुस्तक का प्रकाशन किया। जोहार में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्य अन्ध विश्वासों को समाप्त करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। भूत-पिचास पूजा के विरोध में भूत शंका निवारण नामक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन नहीं हो सका।

सौजन्य लक्ष्मण सिंह पांगती
 

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