योजनाओं में खामी से सूखे की समस्या


सूखापिछले छः दशक से बनाई जा रही योजनाओं के बावजूद साल दर साल फसलों और किसानों दोनों के लिये घातक साबित होकर अर्थव्यवस्था को खासा नुकसान पहुँचाने वाले सूखे की समस्या से अभी तक निजात नहीं मिल सकी है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार हर साल पड़ने वाला सूखा सरकारी योजनाओं और नीतियों को मुँह चिढ़ाता नजर आता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या से निबटने के लिये सरकार को इसे सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए लेकिन इतनी सलाहकार समितियों और विशेषज्ञ दलों के सुझाव के बावजूद इसके कोई सकारात्मक नतीजे नहीं निकल रहे हैं। इससे लगता है कि सरकार इस समस्या की तह तक नहीं पहुँच पा रही है या फिर इससे निबटने की उसकी इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी रह गयी है। जाने-माने वैज्ञानिक और देश में हरित क्रान्ति के जनक एमएस स्वामीनाथन ने कुछ दिनों पहले ऐसे ही विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि सरकार ने इस समस्या से निबटने के लिये सिर्फ चंद सलाहकार समितियाँ गठित कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। सिर्फ बातें की लेकिन हकीकत में कुछ नहीं किया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पीसीडीबीए कॉलेज के रीडर तथा इंडियन इकोनॉमी शीर्षक से चर्चित पुस्तक लिखने वाले डॉ. अश्विनी महाजन के अनुसार सरकार के पास कृषि से जुड़े सटीक आँकड़े नहीं हैं। उसका यह कहना सही नहीं है कि कुल आबादी का महज 24 प्रतिशत हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे है क्योंकि अर्जन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट खुद यह कह चुकी है कि देश की कुल जनसंख्या में से 70 फीसदी लोग गरीबों की श्रेणी में आते हैं।

उन्होंने कहा कि सच क्या है किसी को नहीं पता लेकिन जो बात सामने दिख रही है। उसकी सच्चाई सिर्फ यह है कि हर साल सूखे के कारण हजारों एकड़ फसल बर्बाद होती है। किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है। इन सबसे राहत पहुँचाने के लिये सरकार की ओर से जो सब्सिडी दी जाती है। वह नहीं के बराबर होती है, इन सबके बीच अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित होती है।

सरकार की ओर से सूखे से निबटने के लिये जो आर्थिक मदद जारी की जाती है उसमें कई स्तरों पर भ्रष्टाचार की मार पड़ती है जिससे सही जगह तक उसका बड़ा हिस्सा कहीं गुम हो चुका होता है ऐसे में यदि स्वयंसेवी संगठन बचाव और राहत के लिये आगे नहीं आए तो सूखा प्रभावित लोगों का न जाने क्या हाल हो जाए।

महाजन के अनुसार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्रणाली में भी बहुत कुछ कमियाँ हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। सरकार जो नीतियाँ बनाती है वे अमीरों को ध्यान में रखकर ही तय होती हैं। ऐसे में गाँवों में बसने वाली गरीब आबादी के हित कहीं न कहीं छूट जाते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में शुरू की गई नदियों को जोड़ने की योजना पता नहीं किन कारणों से ठंडे बस्ते में डाल दी गई थी। यदि इसे सही तरीके से लागू किया गया होता तो सूखे की समस्या से बड़ी राहत मिल सकती थी। उनके अनुसार देश में कृषि योजनाओं के लिये मदद करने वाले एशियाई विकास बैंक या विश्व बैंक की भी यह शिकायत है कि यहाँ योजनाओं पर सही तरीके से अमल नहीं किया जाता। जिसके कारण मदद बेमानी हो जाती है। सरकार खुद यह मानती है कि देश में 68 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर सूखे का खतरा रहता है। करीब 35 फीसदी क्षेत्र ऐसा है जहाँ सालाना 750 से 1125 मिलीमीटर वर्षा होती है जबकि 33 फीसदी में 750 मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती है। लिहाजा इन सभी पर सूखे का खतरा बना रहता है।

हालाँकि मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही साबित न होने के कई उदाहरण खोजे जा सकते हैं, लेकिन पूर्वानुमान की उसकी प्रक्रिया बेहतर हुई है। इसलिए उसकी चेतावनी को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए। मौसम विभाग ने अप्रैल में ही इस साल मॉनसून के कमजोर रहने के संकेत दे दिए थे। पर तब उसका शुरुआती पूर्वानुमान तिरानबे फीसद बारिश का था। अब उसका कहना है कि इस वर्ष बारिश अट्ठासी फीसद ही रह सकती है। अगर बारिश का आँकड़ा छियानबे फीसद से नीचे रह जाए, तो उसे सामान्य से कम माना जाता है। अट्ठासी फीसद के पूर्वानुमान ने सूखे का डर पैदा किया है। इससे निपटने की तैयारी के लिये ज्यादा वक्त नहीं है। इसलिए सरकार को अभी से कमर कसनी होगी।

पूर्वानुमान के मुताबिक देश के उत्तर-पश्चिमी इलाकों में मॉनसून सबसे कमजोर रहेगा। जब भी ऐसी नौबत आती है, तो उसके पीछे अल नीनो प्रभाव की बात कही जाती है। वर्ष 2009 में भी यह बड़े सूखे का कारण बना था। लेकिन केन्द्रीय भूविज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने भी माना है कि जलवायु बदलाव मानसून के लचर रहने के अनुमान के पीछे एक बड़ा कारण है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का सिलसिला बढ़ रहा है। इसलिए अंदेशा सूखे का ही नहीं, बल्कि कम बारिश में व्यक्तिक्रम का भी है। बेमौसम की बरसात का कहर हम देख चुके हैं। अब खरीफ की फसलों पर सूखे का साया मंडरा रहा है। तीन दिन पहले आए जीडीपी के आँकड़े बताते हैं कि पिछले वित्तवर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर सात फीसद से अधिक रही, पर कृषि क्षेत्र में कोई वृद्धि होना तो दूर उल्टे 2.3 फीसद की कमी दर्ज की गई।

ऐसा लगता है कि कृषि की हालत लगातार दूसरे साल भी शोचनीय रहेगी। देश की करीब साठ फीसद आबादी की आजीविका सीधे खेती से जुड़ी है। पहले से ही बदहाल किसानों पर सूखे से कैसी मुसीबत आएगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। मगर असर खेती पर ही नहीं, समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। उपभोक्ता सामान की बिक्री में गिरावट के आँकड़े आ चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में माँग घट जाने के कारण यह गिरावट और बढ़ सकती है। बाँधों में पानी की मात्रा घटने से बिजली उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा। मौसम विभाग का पूर्वानुमान जारी होने से पहले ही रिजर्व बैंक ने मौजूदा वित्तवर्ष की बाबत विकास दर का सरकारी अनुमान कुछ कम कर दिया और मँहगाई बढ़ने की चेतावनी दी।

सूखे के हालात में एक तरफ मँहगाई और बढ़ेगी, तो दूसरी तरफ विकास दर में कमी आ सकती है। लेकिन सूखे की स्थिति दो कारणों से ज्यादा डरावनी हो जाती है। एक तो यह कि खेती पहले से ही घाटे का धंधा बनी हुई है। अपनी उपज का वाजिब दाम न मिलने का दंश किसान हर वक्त झेलते रहते हैं। बाढ़ या सूखे की स्थिति में तो वे कहीं के नहीं रहते। दूसरा कारण पर्यावरणीय है। पानी की बढ़ती समस्या के बरक्स उसकी बर्बादी का मंजर भी हर ओर नजर आता है। भूजल का ऐसा अंधाधुंध दोहन होता रहा है कि देश के अनेक इलाके ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ गए हैं यानी वहाँ जमीन के नीचे से पानी निकालना सम्भव नहीं रह गया है।

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