दिल्ली की एक अदालत ने डाई बनाने वाली एक इकाई के मालिक पर शोधित न किए गए अपशिष्ट को उन नालों में डालने का प्रथम दृष्टया आरोपी पाया है, जो नाले यमुना नदी में जा कर मिलते हैं। पुरानी दिल्ली स्थित सियाराम डाइंग के मालिक श्याम सुंदर सैनी के खिलाफ दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) ने 13 साल पहले शिकायत दर्ज कराई थी।
अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट देवेंद्र कुमार शर्मा ने सैनी पर जल कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत आरोप तय किए हैं। उन्होंने कहा कि प्रथम दृष्टया यह साबित होता है कि शोधित न किया हुआ अपशिष्ट नालों में डालना सुप्रीप कोर्ट के दिशा निर्देशों का और जल कानून का उल्लंघन है। उन्होंने यह भी कहा कि इसके अलावा सैनी को डाई बनाने वाली इकाई चलाने की अनुमति भी नहीं है। अदालत ने कहा कि हमारी राय है कि आरोपी के खिलाफ जल कानून की धारा 24, 25 और 26 के तहत आरोप तय करने के लिए रिकार्ड में पर्याप्त सबूत हैं।
डीपीसीसी के वकील एमएस जितेंद्र गाउबा ने अदालत में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने शोधित न किया हुआ अपशिष्ट यमुना में छोड़े जाने पर रोक लगा दी है। इस आदेश के बाद दिल्ली सरकार ने 18 फरवरी 2000 को एक सतर्कता दस्ता गठित किया जिसने पुरानी दिल्ली के सीतापुरी में सियाराम डाइंग का मुआयना किया। मुआयना करने गए दस्ते ने पाया कि यह इकाई बिना प्रभावी शोधक संयंत्र (ईटीपी) के ही चल रही है और रंग मिला हुआ अथवा शोधित न किया हुआ अपशिष्ट नालों में डाल देती है। इसके अलावा, जल कानून के तहत ऐसी इकाइयों को डीपीसीसी की अनुमति लेना जरूरी है लेकिन सियाराम डाइंग डीपीसीसी से अनुमति लिए बिना ही चल रही है।
इतना ही नहीं इस इकाई को बंद करने का आदेश जारी किया गया और इसके खिलाफ शिकायत भी दर्ज की गई। अदालत को बताया गया कि यमुना में अपशिष्ट छोड़े जाने से पहले उसके शोधन के लिए ईटीपी स्थापित करने के सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का सैनी जानबूझकर उल्लंघन कर रहा है। अगर सैनी के खिलाफ आरोप साबित हो जाते हैं तो उसे अधिकतम छह साल की सजा और जल कानून के तहत उस पर जुर्माना हो सकता है। डीपीसीसी ने अदालत को यह भी बताया कि एक अखबार में छपे लेख को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में आदेश दिया था कि कोई भी औद्योगिक अपशिष्ट को यमुना में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रवाहित करने की अनुमति नहीं है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने कहा कि 1999 और 2000 में सार्वजनिक नोटिस जारी कर जल प्रदूषित करने वाली सभी इकाइयों को ईटीपी स्थापित करने का आदेश दिया था। बाद में दिल्ली सरकार ने इकाइयों का निरीक्षण किया। अदालत ने सैनी को समन जारी किया। सैनी ने अदालत में कहा कि वह परिसर का मालिक नहीं है। बहरहाल अदालत ने उसके कर्मचारियों की इन गवाहियों पर भरोसा किया कि उसने परिसर पर कब्जा कर रखा है।
न्यायाधीश ने इकाई की उन तस्वीरों पर भी गौर किया जिनमें शोधित न किया गया अपशिष्ट नालों में डालते दिखाया गया है। अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट ने कहा कि रिकॉर्ड में उपलब्ध सबूतों से प्रथम दृष्टया साबित होता है कि आरोपी शोधित न किए गए अपशिष्ट को सीधे नालों में डाल रहा है।
अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट देवेंद्र कुमार शर्मा ने सैनी पर जल कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत आरोप तय किए हैं। उन्होंने कहा कि प्रथम दृष्टया यह साबित होता है कि शोधित न किया हुआ अपशिष्ट नालों में डालना सुप्रीप कोर्ट के दिशा निर्देशों का और जल कानून का उल्लंघन है। उन्होंने यह भी कहा कि इसके अलावा सैनी को डाई बनाने वाली इकाई चलाने की अनुमति भी नहीं है। अदालत ने कहा कि हमारी राय है कि आरोपी के खिलाफ जल कानून की धारा 24, 25 और 26 के तहत आरोप तय करने के लिए रिकार्ड में पर्याप्त सबूत हैं।
डीपीसीसी के वकील एमएस जितेंद्र गाउबा ने अदालत में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने शोधित न किया हुआ अपशिष्ट यमुना में छोड़े जाने पर रोक लगा दी है। इस आदेश के बाद दिल्ली सरकार ने 18 फरवरी 2000 को एक सतर्कता दस्ता गठित किया जिसने पुरानी दिल्ली के सीतापुरी में सियाराम डाइंग का मुआयना किया। मुआयना करने गए दस्ते ने पाया कि यह इकाई बिना प्रभावी शोधक संयंत्र (ईटीपी) के ही चल रही है और रंग मिला हुआ अथवा शोधित न किया हुआ अपशिष्ट नालों में डाल देती है। इसके अलावा, जल कानून के तहत ऐसी इकाइयों को डीपीसीसी की अनुमति लेना जरूरी है लेकिन सियाराम डाइंग डीपीसीसी से अनुमति लिए बिना ही चल रही है।
इतना ही नहीं इस इकाई को बंद करने का आदेश जारी किया गया और इसके खिलाफ शिकायत भी दर्ज की गई। अदालत को बताया गया कि यमुना में अपशिष्ट छोड़े जाने से पहले उसके शोधन के लिए ईटीपी स्थापित करने के सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का सैनी जानबूझकर उल्लंघन कर रहा है। अगर सैनी के खिलाफ आरोप साबित हो जाते हैं तो उसे अधिकतम छह साल की सजा और जल कानून के तहत उस पर जुर्माना हो सकता है। डीपीसीसी ने अदालत को यह भी बताया कि एक अखबार में छपे लेख को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में आदेश दिया था कि कोई भी औद्योगिक अपशिष्ट को यमुना में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रवाहित करने की अनुमति नहीं है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने कहा कि 1999 और 2000 में सार्वजनिक नोटिस जारी कर जल प्रदूषित करने वाली सभी इकाइयों को ईटीपी स्थापित करने का आदेश दिया था। बाद में दिल्ली सरकार ने इकाइयों का निरीक्षण किया। अदालत ने सैनी को समन जारी किया। सैनी ने अदालत में कहा कि वह परिसर का मालिक नहीं है। बहरहाल अदालत ने उसके कर्मचारियों की इन गवाहियों पर भरोसा किया कि उसने परिसर पर कब्जा कर रखा है।
न्यायाधीश ने इकाई की उन तस्वीरों पर भी गौर किया जिनमें शोधित न किया गया अपशिष्ट नालों में डालते दिखाया गया है। अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट ने कहा कि रिकॉर्ड में उपलब्ध सबूतों से प्रथम दृष्टया साबित होता है कि आरोपी शोधित न किए गए अपशिष्ट को सीधे नालों में डाल रहा है।
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