यमुना की बीमारी क्या है

गंगा के बाद यमुना दूसरी नदी है, जिसके संरक्षण में लापरवाही का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि पर्यावरणविदों के साथ साधु-संतों और आमजनों ने संघर्ष का एक लंबा सिलसिला शुरू कर दिया है। यमुना किनारे के विभिन्न क्षेत्रों से बढ़ता हुआ यह संघर्ष दिल्ली तक भी एकाधिक बार पहुंच चुका है। आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार और इनके संरक्षण के बाद गंगा और यमुना की प्रवाह निरंतरता और निर्मलता दूसरा ऐसा मुद्दा है, जिस पर शुरू हुए संघर्ष के कारण सरकार को कई पहलों और आश्वासनों के साथ सामने आना पड़ा। पर बड़ा सवाल यह है कि नदी जल संरक्षण का सवाल क्या सिर्फ पर्यावरणीय मसला है या फिर नागरिक और शहरी विकास की नई अवधारणाओं से भी इसका साझा सरोकार है? क्या अपने साथ और अपने आसपास जीवन और संस्कृति का सजल आख्यान लिखने वाली नदियों के लाचार-बीमार होने के कसूरवार वही लोग नहीं हैं, जो अब भी इन जीवनदायी प्रवाहों का अपने लालची इरादों के लिए दोहन कर रहे हैं? इस बार के हस्तक्षेप में हम यमुना के बहाने नदियों की दुर्दशा को लेकर ऐसे तमाम सवालों से दो-चार होते हुए संभव समाधानकारी विकल्प को तलाश रहे हैं।

त्रासदी यह है कि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का हमारा प्रयास भी कोई गर्व करने लायक नहीं है। इसका विचित्र विरोधाभासी परिणाम यह हुआ है कि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के काम में इधर करोड़ों रुपये बहाए गए हैं, वहीं वह उतनी ही गंदी और ज़हरीली होती गई हैं। रोग के मूल कारण को समझे बिना हमारी नदियों की सफाई का यह व्यापार तमाम नदियों के रोगी होने की असल जड़ है। लिहाजा, हमें जो बात शिद्दत से समझने की है, वह यह कि नहर नहीं है, नदी। एक पूरी की पूरी पर्यावरण पण्राली है, जिसमें खुद जिंदगी धड़कती है। यमुना नदी के बीमार होने के कई कारण हैं! लेकिन उनमें सबसे अव्वल आमतौर पर नदियों और खासकर यमुना को लेकर हमारी समझदारी का घोर अभाव है। इसी वजह से उस दिशा में हमारा समाधान आधा-अधूरा रहता है और हमारे प्रयास निष्फल हो जाते हैं। जलधारा अपनी स्वाभाविक गति में सदियों से बहती है, तब जाकर वह नदी कहलाती है। लेकिन अगर प्रवाह थम गया या उसमें किसी तरह की छेड़छाड़ की गई तो बची-खुची नदी भी मर जाएगी अथवा वह अपने आवश्यक कामकाज और सेवा नहीं दे पाएगी। इस तथ्य को न तो समझा गया और न ही सराहा गया है कि ढलान की ओर बहाव गुरुत्वाकर्षण बल के कारण होता है, जो नदी को धरती पर मौजूद जल संचयन के अन्य रूपों जैसे; झीलों, तालाबों और समुद्रों से इसे विशिष्टता प्रदान करता है। इसके परिणामस्वरूप ही, मनुष्य के सजीव साथी (पौधे और जानवर) जुड़ते हैं और नदी के निर्जीव रूप (यथा, छोटे-छोटे गोल पत्थर, बालू, धार के समानांतर बाढ़ से बने मैदान, घाटी, संकरा नाला, पठार आदि) बनते हैं। ये समय के साथ बदलते व विकसित होते रहते हैं। नदी के अलावा धरती का कोई भी जल संकाय इतने अधिक संसाधनों पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता।

पानी नहीं पूरी जिंदगी बहती है लेकिन उपरोक्त वास्तविकता के विपरीत, हम में बहुतों लोग नदियों को केवल पानी का बहाव ही मानते हैं, जहां से पानी लिया जा सकता है और मर्ज़ी मुताबिक विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में उसका उपयोग किया सकता है।अगर इस मामले में भी यही बात है तो फिर हमें नदियों से अलग मनुष्य निर्मित नहरों की जरूरत क्यों पड़ती है? हमारी नासमझी के चलते समाधान तदर्थ होते रहे हैं, जो केवल नदियों के प्रदूषण की समस्या को दूर करने तक ही सीमित रह जाते हैं। यमुना के संदर्भ में तो यह नदी दिल्ली के एनसीटी में मात्र 22 किलोमीटर तक ही भयंकर प्रदूषित है। त्रासदी यह है कि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का हमारा प्रयास भी कोई गर्व करने लायक नहीं है। इसका विचित्र विरोधाभासी परिणाम यह हुआ है कि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के काम में इधर करोड़ों रुपये बहाए गए हैं उधर, वह उतनी ही गंदी और ज़हरीली होती गई हैं। रोग के मूल कारण को समझे बिना हमारी नदियों की सफाई का यह व्यापार तमाम नदियों के रोगी होने की असल जड़ है। लिहाजा, हमें जो बात शिद्दत से समझने की है, वह यह कि नहर नहीं है नदी। एक पर्यावरण प्रणाली है, जिसमें खुद जिंदगी धड़कती है। इसके तहत, नदियों में पानी बहता है। यह एक प्रमुख तथ्य है लेकिन यही सब कुछ नहीं। नदियों को तंदरुस्त रखने के लिए पर्याप्त प्रवाह, बाढ़ से बना मैदान और पेड़-पौधे व वन्यजीवों के रूप में इसकी आवश्यक जैव-विविधता की जरूरत पड़ती है, जो नदी को वैविध्य प्रदान करती है और उसे जीवंत बनाने में मदद करती है।

मिथक और इतिहास से अटूट रिश्ता


यमुना नदी 1400 किलोमीटर लंबी नदी प्रणाली है, जिससे निकलीं 30 सहायक नदियां मिलकर उसे वह शाश्वत व पवित्र धार बनाती हैं, जो हमारे मिथक (कृष्ण और महाभारत) और इतिहास (दिल्ली, मथुरा और आगरा जैसे पुराने शहर इसके तट पर बसे हैं) से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी है। तो क्या हम ऐसी राष्ट्रीय विरासत को इस या उस सरकार की लालच पर बलि दे सकते हैं? जापान के सहयोग से यमुना एक्शन प्लान (वाईएपी) को 1993 में बुनियादी तौर पर उसे प्रदूषण मुक्त करने की गरज से शुरू की गई थी। हरियाणा, उत्तर प्रदेश के शहरों व दिल्ली में 5000 करोड़ रुपये के निवेश से बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स (एसटीपीज), विद्युत शवदाह गृहों, शौचालयों और घाटों के निर्माण के बाद सबको उस समय क्रूर आघात लगा, जब केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सर्वोच्च न्यायालय को 2012 में सूचित किया कि पहले के प्रदूषित 500 किलोमीटर तक का जल प्रवाह मौजूदा समय में पानीपत से इटावा तक 600 किलोमीटर हो गया है। तो क्या यमुना एक्शन प्लान-एक और दो के क्रियान्वयन में गलती जगजाहिर हमारी अकुशलता और भ्रष्टाचार के चलते हुई? और क्या प्रदूषण दूर करने के लिए दिल्ली में और आधारभूत ढांचा, पहले से तीन भयंकर प्रदूषित अवरोधक नालों के साथ, तैयार करने के लिए 5000 करोड़ रुपये की दूसरी खेप नदी को पुनर्जीवित कर सकती है?

प्रवाह बनाए बिना जीवित नहीं होगी यमुना


स्पष्ट रूप से इसका जवाब न है। हां, अगर मौजूदा आधारभूत ढांचा एक बार पूरी तरह से कामकाज के लिए तैयार हो गया तो भी यह तभी मददगार होगा जब नदी में सालों भर पर्याप्त जल प्रवाह बना रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने 1999 में व्यवस्था दी थी कि सालों भर नदी में पानी का न्यूनतम बहाव 10 क्यूमेक (प्रति सेंकेंड क्यूबिक मीटर) या 360 क्यूसेक (प्रति सेकेंड क्यूबिक फीट) रखा जाए। अब इटावा के आसपास, जहां भरेह गांव के नज़दीक चंबल नदी यमुना में मिलती है, 360 क्यूसेक पानी बहाव सुनिश्चित करने के लिए, आगरा में हर समय 600 क्यूसेक पानी बहते रहना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली में प्रवाह की तरफ यमुना के बहाव के लिए कम से कम 1000 क्यूसेक पानी चाहिए ही चाहिए, जिसकी जरूरत हथिनीकुंड बराज, जहां हरियाणा-उत्तर प्रदेश की सीमा पर नदी 2002 से ही कैद है, की तरह हर वक्त प्रवाह के लिए कम से कम 2000 क्यूसेक पानी की जरूरत होगी।

बहाना न करें, जवाबदेही निभाएं


यमुना एक्शन प्लान की समीक्षा करने वाले विशेषज्ञों ने उपरोक्त ज़रूरतों के बारे में कई बार याद दिलाया है। हालांकि वास्तविकता यह है कि दिल्ली या देश में बैठे नदी के प्रबंधक जबकि दिल्ली में प्रदूषण निरोधक ढांचा बनाने की बात करते हैं लेकिन उसमें हर वक्त पर्याप्त जल प्रवाह के बारे में सोचने की जहमत नहीं लेते। यमुना के तटवर्ती राज्यों; उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान ने 1994 में एक एमओयू पर दस्तख़त किए थे लेकिन ये सभी यमुना में पर्याप्त जल बहाव सुनिश्चित करने के लिए बहानेबाजी करते हैं। लेकिन यह क्या बहाने की वाजिब वजह है? जब यह स्पष्ट है कि नदी में पर्याप्त जल प्रवाह के बिना नदी को स्वच्छ रखने के तमाम प्रयासों पर पानी फिर जाएगा, ऐसी सूरत में 1994 के जिस एमओयू पर बिना किसी जवाबदेह पक्ष, चाहे वह जो हो, से पूछे बैगर दस्तख़त किए गए, उसकी अब तक समीक्षा नहीं की गई। नदी को उसका प्रवाह पहले सुनिश्चित किया जाना चाहिए और केवल तभी उसके जल का बँटवारा किया जाना चाहिए और विभिन्न राज्यों में पेयजल आपूर्ति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो तो यह भी काम हो सकता है। और इसके लिए हजारों कृष्ण भक्तों को अपनी लुटी हुई और उसके साथ छेड़छाड़ की गई नदी को वापस लेने के लिए व्रज से दिल्ली तक नंगे पांव यात्रा करने की भी आवश्यकता नहीं है।

(लेखक, यमुना जिये अभियान के संयोजक हैं तथा भारतीय वन सेवा के पूर्व सदस्य और छत्तीसगढ़ के पूर्व वन संरक्षक रहे हैं।)

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