यमुना के हत्यारे

दिल्ली के धरती पर हृदय धमनियों की तरह बहने वाली जीवनदायिनी यमुना की मंदिर, मेट्रो, मॉल तथा अवैध निर्माण के नाम पर लूट-पाट जारी है। यमुना तट की भूभौगोलिक परिस्थितियों की अनदेखी की जा रही है। हमारे समाज के कुछ लोग इस बात से बहुत खुश हैं कि यमुना तट पर अंधाधुंध निर्माण से रीयल एस्टेट के दाम घटेंगे पर मंदिर, खेलगांव के शोर में यमुना के दर्द को जानने-समझने का शायद किसी के पास वक्त है। दिल्ली में प्रभावशाली संस्थाओं ने यमुना की गोद में अतिक्रमण कर अक्षरधाम जैसे मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के निर्माण होते ही कई और संस्थाओं तथा बिल्डरों की नजर यमुना की गोद को खाली करके मोटी रकम कमाने की है। एक जीती-जागती नदी के धीरे-धीरे विलुप्त होने के बारे में बता रहे हैं संतोष कुमार और सरोज कुमार।

यमुना की लूट अब तक दिल्ली में मुद्दा नहीं है। शहर और शहर के लोग इसे लेकर ‘‘चलता है’’ वाले अंदाज में हैं। पर्यावरण को लेकर जब देश और समाज दोनों में लापरवाही का भाव हो तो फिर परवाह किसे है। लेकिन इस साल जून में उत्तराखंड में जो हुआ, उसने तमाम टाउन प्लानर्स और पर्यावरणविदों के बीच खतरे की घंटी बजा दी है। मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी समेत जिन नदियों से मिलकर गंगा बनती है, उनमें जब अचानक ढेर सारा पानी आया, तो नदियों ने अपनी वह ज़मीन वापस ले ली, जो हमेशा से उनकी थी और जिस पर पिछले कुछ दशकों में इंसानों ने कब्ज़ा कर लिया था।इस साल अक्तूबर में दिल्ली में एक अजीब वाक़या हुआ। दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच यमुना नदी पर बना ओखला पक्षी अभ्यारण्य देखते ही देखते सूख गया। यहां पानी की जगह रेत और मिट्टी के टीले नजर आने लगे। सारी नावें मिट्टी पर आ लगीं। कुछ ही दिनों में यह घास का मैदान बन गया और यहां झाड़ियां उग आईं। यह विदेशी पक्षियों के आने का सीजन था, यहां हर साल देश-विदेश से लाखों पक्षी आते हैं। लेकिन इस साल शायद वे भी भौचक होंगे कि यह हुआ क्या। पूरे पक्षी अभ्यारण्य में छोटे-से तालाब भर का पानी था। वे आ रहे थे और उड़कर कहीं और निकल जाने को मजबूर थे। साल के इस समय में दिल्ली की यमुना में यमुनोत्री की एक बूंद भी नहीं होती। होता है तो सिर्फ दिल्ली का मल-मूत्र और सीवेज का कचरा। इसलिए यमुना के तथाकथित पानी को मोड़कर जब इसे भर दिया गया तो भी यह यमुना के पानी का नहीं, सीवर के पानी से बना अभ्यारण्य बनकर रह गया।

यह महज एक वाकया है, जिससे समझा जा सकता है कि जिस यमुना नदी की वजह से दिल्ली या इंद्रप्रस्थ या शाहजहानाबाद नाम का शहर बसा, उस नदी को लेकर यह शहर और देश तथा प्रदेश की सरकार कितनी बेपरवाह है। दिल्ली में यमुना लगातार सिकुड़ती और पतली होती जा रही है। बरसात के अलावा बाकी महीनों में तो वह चंद 100 मीटर की एक पतली धार में नाले की शक्ल में बहती है। सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकार समिति ने नदी का जलप्रवाह 10 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड (क्यूसेक) रखने की सिफारिश की थी, जिस पर कभी अमल नहीं किया गया। बरसात में अब इसके बहने और पानी फैलने के लिए जमीन कम पड़ रही है। इंसानी लालच और सरकारी लापरवाही ने इससे उसकी काफी ज़मीन छीन ली है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में यमुना की 292 एकड़ जमीन अब उसकी नहीं रही और उस पर तमाम तरह के कंस्ट्रक्शन हो चुके हैं और लालच की यह गिनती अभी पूरी नहीं हुई है।

यमराज की बहन क्रुद्ध हुई तो?


यमुना की लूट अब तक दिल्ली में मुद्दा नहीं है। शहर और शहर के लोग इसे लेकर ‘‘चलता है’’ वाले अंदाज में हैं। पर्यावरण को लेकर जब देश और समाज दोनों में लापरवाही का भाव हो तो फिर परवाह किसे है। लेकिन इस साल जून में उत्तराखंड में जो हुआ, उसने तमाम टाउन प्लानर्स और पर्यावरणविदों के बीच खतरे की घंटी बजा दी है। मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी समेत जिन नदियों से मिलकर गंगा बनती है, उनमें जब अचानक ढेर सारा पानी आया, तो नदियों ने अपनी वह ज़मीन वापस ले ली, जो हमेशा से उनकी थी और जिस पर पिछले कुछ दशकों में इंसानों ने कब्ज़ा कर लिया था। नदियां उमड़ीं और अपने प्रवाह मार्ग पर बनाए गए घर, होटल और तमाम ढांचों को बहाकर ले गईं। कहीं किसी दिन यमुना में भी ऐसा हुआ, तो पहले सात बार उजड़ चुकी दिल्ली शायद अपने इतिहास में आठवीं बार उजड़ जाएगी। दिल्ली तो उत्तराखंड के उलट घनी आबादी वाला क्षेत्र है। यहां अगर यमुना ने अपनी ज़मीन को रातों-रात वापस ले लिया, तो साथ में कितने लाख लोग तबाह होंगे, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। वैसे भी यमुना को हिंदू धर्मशास्त्रों में यमराज की बहन माना गया है।

आज़ादी के बाद 1966, 1978, 1988, 1995, 1998 और 21वीं सदी में 2010 और 2013 में भारी बाढ़ आई थी। इस साल जून में उत्तराखंड में जल प्रलय के कारण जब हिमालय से निकलने वाली सारी नदियों का जल स्तर बढ़ा तो दिल्ली में भी 18-20 जून को जल स्तर इतना बढ़ गया कि उस्मानपुर गांव, सोनिया विहार, गढ़ी मंडी, शास्त्री पार्क और तिब्बती बाजार में पानी भर गया और लोगों को यहां से हटाकर राहत शिविरों में पहुंचा दिया गया। इसके अलावा, मॉडल टाउन, निगमबोध घाट, यमुना बाजार, राजघाट, बटला हाउस और मदनपुर खादर जैसे इलाकों में बाढ़ की आशंका जताई जाने लगी। दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार और नोएडा प्रशासन ने स्थिति पर लगातार नजर रखी, लेकिन किसी ने यह नहीं जताया कि ये सारे इलाके नदी को गोद में आबाद हैं और नदी में पानी को बाढ़ नहीं कह सकते।

दिल्ली में लूट, हरियाणा-यूपी में तबाही


लेकिन नदी के ऊपर बसे सबसे पहले शहर और लंबे समय से बाढ़ग्रस्त दिल्ली को बचाने के लिए क्या अब अन्य राज्यों को बाढ़ग्रस्त बनाया जा रहा है? यमुना से जुड़े आंदोलनकारियों का कहना है कि नदी को तो बहना है और अगर उसके मार्ग को संकरा किया जाएगा तो निश्चित तौर से नदी का पानी बैक फ्लो (प्रतिवाह) यानी नदी के ऊपर की ओर ही दबाव बनाएगा, जिससे नदी के ऊपरी और निचले दोनों हिस्सों में बाढ़ का खतरा बना रहेगा। यमुना क्षेत्र की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की होड़ ने अब ऊपरी हिस्से यानी उत्तर प्रदेश के बागपत, सहारनपुर जैसे यमुना के तटवर्ती क्षेत्रों को बाढ़ग्रस्त बना दिया है।

यह बात तो खुली आंखों से नजर आ सकती है कि दिल्ली में यमुना को जिन तटबंधों से घेरकर बहाया जा रहा है, वे काफी मजबूत हैं, जबकि हरियाणा और उत्तर प्रदेश में यमुना के तटबंध काफी पतले और कमजोर हैं। इसलिए दिल्ली के तटबंध कभी नहीं टूटते, जबकि हरियाणा और उत्तर प्रदेश के तटबंध हर साल टूट जाते हैं और लाखों जिंदगियों को प्रभावित करते हैं। बरसात में अचानक आए पानी को कहीं रोका जाएगा, तो पानी अपना रास्ता ढूंढ ही लेगा। ऐसा लगता है कि दिल्ली के लालच की कीमत हरियाणा और यूपी को भी लंबे समय तक चुकानी होगी। हालात बदल सकते हैं लेकिन क्या यह संभव है।

यमुना लुट गई मंदिर के नाम


दिल्ली में यमुना पर अतिक्रमण झुग्गी-झोपड़ी वालों ने या अवैध कॉलोनियों ने नहीं किया है कि सरकार आसानी से बुलडोजर चला देगी। यह अतिक्रमण देश की प्रभावशाली संस्थाओं ने किया है। उनमें सबसे प्रभावशाली संस्था है-धर्म। हाल के वर्षों में यमुना की गोद में अतिक्रमण की सबसे बड़ी मिसाल अक्षरधाम मंदिर है। वर्ष 2000 में केंद्र की एनडीए सरकार ने अक्षरधाम मंदिर को जमीन देना शुरू किया और अभी मंदिर परिसर के पास कुल 47 हेक्टेयर (116 एकड़) जमीन है। आरटीआइ के तहत पूछे गए सवाल में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने बोचसन्वासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) को दी 23.5 हेक्टेयर जमीन की ही कीमत 37.5 करोड़ रु. बताई है। बाकी 23.5 हेक्टेयर (58 एकड़) जमीन जो आवास और पार्किंग आदि के लिए दी गई, उसकी कीमत का जिक्र तक नहीं है। जबकि उस ज़मीन की तत्कालीन बाजार कीमत भी अरबों रुपए में थी।

आधुनिका विकास ने यमुना को बर्बाद कियाएक दशक से रियल एस्टेट कंसल्टेंट का काम कर रहे गौरव पी. मल्होत्रा के मुताबिक चूंकि यमुना क्षेत्र की जमीन पूरी तरह से सरकार के अधीन है, इसलिए इसकी बाजार कीमत का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। अक्षरधाम मंदिर से दक्षिणी दिल्ली, कनॉट प्लेस, बाहरी रिंग रोड और मेट्रो की कनेक्टिविटी बेहतरीन है। मल्होत्रा का दावा है, ‘‘सन् 2000 में रियल एस्टेट मार्केट में तेजी नहीं थी लेकिन 2005 और 2007 में सीलिंग के बाद दिल्ली की प्रोपर्टी की कीमतों में आए उछाल के मद्देनजर इसकी कीमत प्रति एकड़ कम से कम पौने दो अरब रु. बनती है।

मल्होत्रा के दावे का आधार पिछले 10 साल में प्रोपर्टी में आए उतार-चढ़ाव के दस्तावेज़ है। इस दावे को माना जाए तो आज अक्षरधाम परिसर की कुल कीमत कम-से-कम 200 अरब रु. के पार होगी।’’ इस मंदिर से सटे कॉमनवेल्थ विलेज में एक फ्लैट औसतन 4 से 6 करोड़ रु. में बिक रहा है। लेकिन क्या धार्मिक और नैतिक लिहाज से यमुना नदी पर अक्षरधाम मंदिर का बनना गलत नहीं है? इस पर अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी डॉ. जे.एम. दवे इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘हमें सांस्कृतिक धार्मिक मंदिर ट्रस्ट कानून के तहत और उस समय की कीमतों पर ज़मीन दी गई, इसलिए किसी भी लिहाज से हम इसे गैरकानूनी या अनैतिक नहीं मानते। हमने सारी औपचारिकताएं पूरी की हैं।’’

केंद्र की एनडीए सरकार ने नदी की धारा और यमुना की धार्मिक महत्ता को नज़रअंदाज़ करते हुए संस्था को कौड़ियों के भाव ज़मीन लुटा दी। बाद में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने पर्यावरणीय अनुमति नहीं होने के बावजूद उस पर रोक नहीं लगाई। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तब लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी 6 नवंबर, 2005 के उद्घाटन समारोह में पहुंचे। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इसका उद्घाटन किया था। अक्षरधाम मंदिर में धार्मिक गतिविधियों को छोड़कर दो घंटे की प्रदर्शनी के लिए 200 रु. प्रति व्यक्ति तो पार्किंग के लिए भी हर गाड़ी से 20 रु. वसूले जाते हैं। जबकि दिल्ली नगर निगम का पार्किंग रेट 10 रु. है। मंदिर परिसर में श्रद्धालु खाने-पीने की कोई वस्तु नहीं ले जा सकते, जिससे वहां स्थित आहार गृह में जबरदस्त भीड़ होना लाज़िमी है।

भोजन की दरें किसी बड़े रेस्टोरेंट से कम नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि एक तरह से व्यावसायिक अंदाज से चल रहे मंदिर को कौड़ियों के भाव ज़मीन एनडीए सरकार ने क्यों दी और बाद में यूपीए सरकार ने भूल सुधारने के बजाए उसे आगे क्यों बढ़ने दिया? हालांकि अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी डॉ. जे.एम. दवे इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘सिर्फ हाईटेक प्रदर्शनियों के लिए चार्ज लिए जाते हैं। जब डीडीए से जमीन मिली थी, उसमें यह इजाज़त थी कि रख-रखाव के लिए ये गतिविधियाँ हो सकती हैं। लेकिन ये पूरी तरह से वैकल्पिक हैं।’’

लूट के लिए बदला मास्टर प्लान


सांठगांठ का ही नतीजा है कि यमुना नदी क्षेत्र में अतिक्रमण के लिए सरकार ने मास्टर प्लान 2001 में कृषि और पानी क्षेत्र वाली जमीन का लैंड यूज बदलकर प्लान 2021 में सार्वजनिक और अर्द्ध सार्वजनिक सुविधाओं के लिए कर दिया। इंडिया टुडे के पास इस संबंध में आरटीआइ से मिले दस्तावेज़ हैं, लेकिन कोई यह बताने को राजी नहीं है कि कृषि और जलीय भूमि को पब्लिक लैंड बनाने का फैसला किसने और क्यों किया।

धार्मिक गतिविधियों के लिए यमुना क्षेत्र में जमीन देने के तत्कालीन सरकार के मकसद पर गांधीवादी अनुपम मिश्र मौजूं टिप्पणी करते हैं, ‘‘जमीन लुटाने के मामले में कोई सरकार पीछे नहीं है। जो पार्टी संस्कार की बात करती है, उसने भी वही काम किया। जब आप यमुना को देवी मानते हैं तो उसी की गोद में एक और देवता की क्या जरूरत थी।’’ सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) में वाटर प्रोग्राम के निदेशक नित्या जैकब कहते हैं, ‘‘अक्षरधाम के बाद तो मानो जमीन हड़पने की खुली छूट मिल गई है। लालकिला के पास जितना स्लम यमुना संरक्षण के नाम पर हटाया गया, उससे दोगुना तो सरकारी अतिक्रमण यमुना क्षेत्र में हो चुका है।’’

लेकिन अक्षरधाम मंदिर प्रबंधन का जलवा ऐसा है कि जब 2007 में सरकार ने इसी मंदिर के बगल में यमुना की जमीन पर कॉमनवेल्थ विलेज बसाने की योजना बनाई तो मंदिर की संस्था ने इस निर्माण विरोध जताया। संसद में दिए सवाल के जवाब में यूपीए सरकार के तत्कालीन खेल और पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर ने 10 मई, 2007 को कबूला है, ‘‘जहां तक संभव था, डीडीए ने मंदिर प्रबंधन की जो चिंताएं और आपत्तियां थीं उसका निवारण किया।’’ मंदिर प्रबंधन की वजह से सरकार ने कॉमनवेल्थ विलेज में बनी आवासीय बहुमंजिला इमारतों की ऊंचाई कम कर दी। ऐसे में सवाल उठता है कि खुद यमुना क्षेत्र में अतिक्रमण का दोषी अक्षरधाम मंदिर प्रबंधन क्या इतना शक्तिशाली है कि वह किसी और निर्माण के सरकारी निर्णय को डिक्टेट कर सके?

खुद 2011 में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था, ‘‘अक्षरधाम ने पर्यावरण की मंजूरी के लिए न तो आवेदन दिया और न उसे मंजूरी दी गई थी।’’ लेकिन अक्षरधाम मंदिर के मुख्य पीआरओ दवे की दलील है, ‘‘डीडीए की ओर से जमीन मिलने के बाद जितनी भी अनुमतियों की आवश्यकता थी, हमने 2001-02 में लेकर काम किया। कुछ चीजें बाद में हमारे सामने आई तो हम संबंधित अथॉरिटी के पास गए। लेकिन राजनेताओं के बयान पर हम टिप्पणी नहीं करना चाहते।’’ कॉमनवेल्थ विलेज की इमारतों की ऊंचाई कम कराने के सवाल पर दवे कहते हैं, ‘‘हम किसी सरकारी अथॉरिटी को चुनौती नहीं दे सकते, सिर्फ अनुरोध कर सकते हैं।’’

अक्षरधाम के बाद लूट सके सो लूट


अक्षरधाम ने भले यमुना क्षेत्र में अतिक्रमण की खुली छूट दी, लेकिन यमुना की जमीन हड़पने की शुरुआत विकास के नाम पर पुल बनाने से हुई। यमुना जिये अभियान के संयोजक मनोज कुमार मिश्र बताते हैं, ‘‘पुराने पुल और मेट्रो पुल को छोड़कर यमुना पर बनाए गए सारे पुल नकली हैं जिन्हें छद्म पुल कहा जाता है, जिनमें नदी के छोटे से प्रवाह के दोनों ओर पिलर बनाए गए हैं, लेकिन नदी का बाकी हिस्सा बांध के रूप में दिखता है। पुल के रूप में अतिक्रमण शुरू कर जमीन हड़पने की कवायद तेज हुई और शहर नदी में घुस गया।’’ नदी क्षेत्र में एक बड़ा अतिक्रमण 1982 में एशियन गेम्स के लिए बने प्लेयर्स हॉस्टल से हुआ जो अब दिल्ली सचिवालय है। उसके बाद इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम बना। फिर 1998 में पहला बड़ा अतिक्रमण शास्त्री पार्क मेट्रो को दी गई जमीन (16.60 हेक्टेयर) है, जहां मेट्रो का डिपो, आइटी पार्क और आवासीय भवन बनाए गए।

इसके बाद कॉमनवेल्थ विलेज के लिए 59 हेक्टेयर, यमुना बैंक मेट्रो डिपो के लिए 36 हेक्टेयर, गीता कॉलोनी ब्रिज के लिए 49 हेक्टेयर, दिल्ली ट्रांस्को लिमिटेड को 16 हेक्टेयर। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट, सीआरपीएफ, पुलिस ट्रेनिंग कैंप, शवदाह गृहों और तमाम समाधि स्थल यमुना क्षेत्र में घुसकर स्थापित किए गए। आंकड़ों के मुताबिक अब तक यमुना की करीब 292 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर सरकारी अतिक्रमण हो चुका है। इसके अलावा मेट्रो फेज-4 के तहत सोनिया विहार-जहांगीरपुरी लाइन, नए वजीराबाद से जोडऩा सलीमगढ़ किला से वेलोड्रम रोड तक नया एलायनमेंट, ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर, सराय काले खां-मयूर विहार मेट्रो लाइन आदि प्रस्तावित योजनाओं में से हैं जो यमुना पर अतिक्रमण के लिए रफ्तार भरने को तैयार हैं।

आधुनिका विकास ने यमुना को बर्बाद कियायमुना नदी जोन में जितनी बची हुई जगह है, उसे ओ जोन (सुरक्षित जोन) कहा जाता है जो करीब 9,700 हेक्टेयर में फैला है। सरकार अब इस जोन के आधे हिस्से को बाहर करना चाहती है। लेकिन पर्यावरणवादी और संरक्षणवादी इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं। दरअसल सरकार की इस नई पहल पर शक लाज़िमी है। यमुना के आधे हिस्से को ओ जोन से बाहर करने पर जमीन हड़पने की छूट मिल जाएगी। गांधीवादी अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘ये लोग (सरकार) नदी को नहर में बदल देंगे जिससे 800-1000 हेक्टेयर प्राइम लैंड निकल आएगी। दिल्ली ने इस तरह यमुना से ज्यादती की तो नदी इस शहर को बर्बाद कर देगी। हमें यह समझना होगा कि यमुना की दिल्ली है, दिल्ली की यमुना नहीं।’’

तमिलनाडु से लीजिए जानकारी?


अक्षरधाम मंदिर के निर्माण के बारे में जब इंडिया टुडे ने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) से लेकर पर्यावरण मंत्रालय तक सूचना के अधिकार के तहत जानकारियाँ मांगीं तो आवेदन पर जवाब कम, उसे घुमाया ज्यादा गया। आरटीआइ के तहत तीन आवेदन डीडीए और तीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, को भेजे गए। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से पूछा गया था कि अक्षरधाम मंदिर की संस्था बोचसंवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम ने क्या कोई क्लीयरेंस की मांग की थी? और किसने क्लीयरेंस दी? मंत्रालय (1ए-3 डिविजन) से जवाब मिला कि किसने क्लीयरेंस दी, इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

इस सबंध में इसी मंत्रालय से पूछा गया कि दिल्ली में यमुना का कितना एरिया कैचमेंट घोषित है, क्या इसमें किसी प्रकार का फेरबदल किया गया। इस संबंध में जन सूचना अधिकारी, नेशनल रिवर कंजर्वेशन डायरेक्टोरेट ने जल संसाधन मंत्रालय (गंगा विंग) को आवेदन पत्र भेज दिया। वहां से इस पत्र को अपर यमुना रिवर बोर्ड को भेजा गया जिसका कोई जवाब नहीं मिला।

आवेदन को मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय (मध्य क्षेत्र) लखनऊ भी भेजा गया। वहां से मुख्य वन संरक्षक का जवाब आया कि संस्था वन भूमि हस्तांतरण का कोई प्रस्ताव उनके कार्यालय को नहीं मिला इसलिए स्वीकृति प्रदान करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। आवेदन चंडीगढ़ के क्षेत्रीय कार्यालय के साथ-साथ तमिलनाडु सरकार के मुख्य वन संरक्षक को भी भेजा गया। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी, पर्यावरण विभाग ने अपने यहां आए आवेदन पर कहा कि यह मामला उसके विभाग का नहीं है। दिल्ली के सिंचाई-बाढ़ नियंत्रण विभाग ने किसी दस्तावेज़ के उपलब्ध होने से ही इनकार कर दिया।

जाहिर, है सरकार के पास बताने को कम और छिपाने को ज्यादा है। सरकार अपने जिस कुकर्म को छुपा रही है, उसकी कीमत दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के लोगों को तबाही की शक्ल में चुकानी पड़ सकती है।

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