यमुना घाटी में हिमनदों का अध्ययन : एक रोमांचक यात्रा


समुद्र तल से 3500 मी. की ऊँचाई पर स्थित हर-की-दून वाकई अपने नाम के अनुरूप सुंदर है, शायद कभी यहाँ पर भगवान वास करते होंगे चारों तरफ बर्फ से ढकी यह घाटी ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो हम स्वर्ग में आ गये हों यहाँ पर आते ही हम सब ऐसा अविभूत हुए कि चढ़ाई चढ़ने का जो कष्ट था वो भूल ही गये। हिमनदों के अपरदन से बनी यह विशाल चौड़ी घाटी वास्तव में अद्भुत है इसी लिये यह उत्तराखंड के पर्यटक स्थलों में सर्वोच्च स्थान पर है।

4 जुलाई 2009 को भारत सरकार के विज्ञान एवं तकनीकी विभाग ने वाडिया भूविज्ञान संस्थान में हिमनद अध्ययन केंद्र की स्थापना की, इस केंद्र के माध्यम से हम लोग टोंस घाटी में हिमनदों का सर्वेक्षण करने के लिये 28 मार्च 2010 को देहरादून से रवाना हुए। इस यात्रा में सात सदस्यों का दल था, और इस दल का नेतृत्व डा. डी. पी. डोभाल कर रहे थे, अन्य सदस्यों में शोध छात्र अमित कुमार, अक्षय वर्मा, भानु ठाकुर, जाहिद मजीद एवं चालक श्याम सिंह थे।

28 मार्च 2010 को हम सुबह 8 बजे देहरादून से चल दिये और दिन का खाना हमने पुरोला में खाया, वहाँ से 1 बजे हम सांकरी की ओर चल दिये। शाम को 4 बजे हम लोग सांकरी पहुँचे। यह एक छोटा सा गाँव है जो समुद्र तल से लगभग 2200 मी. की ऊँचाई पर टोंस नदी के बायें किनारे पर बसा है, यह अंतिम गाँव है जहाँ तक गाड़ी जाती है, यहाँ पर पर्यटकों को रहने के लिये केवल गढ़वाल मंडल व वन विभाग के दो पर्यटक आवास हैं। मैं यह इस लिये कह रहा हूँ क्योंकि यहाँ से आगे सिर्फ 6 फुट चौड़ी कच्ची सड़क है और यहाँ से आगे गाड़ी से सिर्फ जोखिम लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है, और सिर्फ चालक के अनुभव पर ही आगे का सफर निर्भर करता है हम लोग देहरादून से दो छोटी गाड़ी ले गये थे, एक अपने संस्थान की और दूसरी किराये की थी। सांकरी से आगे 12 किमी दूर तालुका है हम लोग शाम को 4:30 बजे सांकरी से तालुका की ओर रवाना हुए। आगे चालक श्याम सिंह, डा. डोभाल, जाहीद व अमित थे तथा उनके पीछे मैं, भानु और अक्षय थे अभी हम दो किमी. ही गये थे कि हमारे चालक ने गाड़ी आगे बढ़ाने से मना कर दिया और सड़क को देख कर कहने लगा साब मेरे छोटे-छोटे बच्चें हैं और मैं मरना नहीं चाहता।

हमने उसको बहुत समझाया क्योंकि श्याम सिंह जी एक दल को लेकर आगे पहुँच चुके थे, पर वह नहीं माना और हमें उतार कर वापिस सांकरी की ओर चला गया। हम 2 किमी. पर ही फँस गये यहाँ से आगे हमें 10 किमी. और चलना था और दिन भी धुँधला होने लगा था। समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। सांकरी से आगे बहुत कम वाहन चलते हैं वो भी दिन की रोशनी में, और अब रात होने वाली थी, यहाँ पर तेंदुआ, भालू और भेड़िया जैसे जानवर बहुतायत से पाये जाते हैं और कभी-कभी आदमखोर तेंदुआ भी टकरा जाता है। हम तीनों जंगल में बहुत डर गये थे पर एक दूसरे को यह जाहिर नहीं होने दे रहे थे। यह भी सोच रहे थे डा. डोभाल व अन्य हमारा इंतजार करके परेशान हो रहे होंगे मन में अनेक बुरे विचार आ रहे थे। हम लोग पैदल ही आगे बढ़ने लगे लेकिन तभी किस्मत से एक वाहन सांकरी से आता दिखा। और उस में बैठकर, जैसे तैसे हम लोग 7:30 बजे तालुका पहुँचे। सभी लोग हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ पर वन विभाग के विश्राम गृह में ठहरने की व्यवस्था थी हमने जल्दी सोने की तैयारी कर दी थी क्योंकि दूसरे दिन सुबह वहाँ से आगे का सफर तय करना था।

तालुका समुद्र तल से लगभग 2100 मी की ऊँचाई पर नदी व हिम अवधान से जमा गाद पर बसा गाँव है, यहाँ पर लोग ज्यादातर कम पढ़े लिखे या बिल्कुल अनपढ़ हैं तथा गाँव में एक भी आदमी सरकारी नौकरी में नहीं है। दूसरे दिन सुबह हमलोग तालुका से अगले पड़ाव के लिये रवाना हुए, मन में उत्साह एवं उमंग तो था ही साथ में कुछ नया करने की इच्छा भी थी, हम लोग तालुका से भूआकृति एवं शैलों के प्रकार को देख कर आगे बढ़े, दिन में करीब 12:30 बजे हम लोग गांगर गाँव पहुँचे एवं वहाँ पर दिन का खाना खाया एवं एक घंटे तक आराम किया।

तालुका से 7 किमी. दूर समुद्र तल से लगभग 2400 मीटर की ऊँचाई पर बसा गाँव गांगर है। यहाँ लगभग 40 परिवारों का आवास है, और सारे मकान लकड़ी एवं पत्थरों से मिल कर बने हैं, ये मकान पूर्णतया भूकम्परोधी है इसीलिये 1992 में जो उत्तरकाशी में भूकम्प आया था उसका इस इलाके में ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ था। लेकिन लकड़ी के बने होने से 2004 में सारा गाँव जलकर राख हो गया था। गांगर गाँव तक जोनदार हिमनद के अवशेष मिलते हैं तथा गाँव हिमनद के दांये तरफ के मोरेन पर बसा है यह मोरेन लगभग 800 मी. लम्बा है, गाँव वालों ने इसे काट कर, खेती के लिये भूमि तैयार की है तथा अपने आवास भी इसी के ऊपर बनाये हैं, हम लोग 1:30 बजे गांगर से आगे बढ़े। रास्ते में नदियाँ, नालों और पहाड़ को पार कर हम औसला गाँव पहुँचे। शाम के 5 बज गये थे और लगातार 11 घंटे चलने की वजह से हम लोग बहुत थक गये थे और शरीर को आराम की जरूरत थी। वन विश्राम गृह का चौकीदार वहाँ उस समय नहीं था। इस लिये डा. डोभाल और हम लोग विश्राम गृह के बाहर ही आराम करने लगे और चौकीदार का इंतजार करने लगे ताकि वो कमरे खोल दे। शाम को 6:30 बजे चौकीदार आया और कमरे खुले, दिन भर से थके थे तो रात में कम खाना खाकर ही सो गये क्योंकि फिर अगली सुबह हमें आगे बढ़ना था, नींद बहुत अच्छी आयी।

सुबह बहुत जल्दी उठकर हम ओसला के लिये चल पड़े। गांगर से सात किलोमीटर एवं तालुका से 14 किमी. दूर बसा यह गाँव समुद्र तल से 2800 मी. की ऊँचाई पर स्थित है, गाँव हिमनद क्षरा जमा किये हुए हिमोढ़ (मोरेन) पर बसा है, जो नदी के तल से लगभग 400 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नदी के दोनों किनारों पर जोनदार हिमनद द्वारा जमा किये गये हिमोद (मोरेन) हैं। इस गाँव में लगभग 100 परिवार रहते हैं, गाँव में सिर्फ एक विद्यालय है जो केवल कक्षा आठ तक है तथा उसमें भी कोई शिक्षक नहीं है। गाँव के ही एक लड़के को बतौर शिक्षक नियुक्त किया गया है इससे आगे की शिक्षा के लिये गाँव के बच्चों को लगभग 20 किमी. दूर ताकुला में जाना पड़ता है। इससे गाँव का कोई भी बच्चा कक्षा आठ से आगे की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता है। हमें यह जान कर बड़ी खुशी हुई कि इस गाँव से ही एक बच्चा उत्तरकाशी में किसी संस्था द्वारा पढ़ाया जा रहा है, जो वर्तमान में कक्षा दसवीं का छात्र है। इसके अलावा गाँव में सरकार द्वारा स्वास्थ्य संबंधी कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। हमारे वहाँ पहुँचने पर ग्रामीणों द्वारा हमसे दवाई मांगने पर हमें अत्यधिक दुख: हुआ, वे हमें सरकारी प्रतिनिधि समझ बैठे और अपनी समस्याओं का विवरण करने लगे। हम लोगों ने उन्हें समझाया कि हम वैज्ञानिक हैं और हिमनदों का अध्ययन करने आये हैं।

30 मार्च को हम लोगों ने सुबह सात बजे ओसला से हर-की-दून के लिये प्रस्थान किया अब हमें सिर्फ चढ़ाई ही चढ़नी थी धीरे-धीरे भूस्थलाकृति का मानचित्र बनाते हुए हम लोग अपने गंतव्य की ओर पहुँचने लगे। अभी तक मौसम हमारा बहुत साथ दे रहा था हमने ओसला से 6 किमी. ऊपर हर-की-दून धार में से बंदर पूंछ हिमनद की घाटी का मानचित्र बनाया एवं वहाँ बैठकर खाना खाया, लेकिन जैसे हम चलने को हुए तो मौसम ने एकाएक अपना मिजाज बदलना शुरू कर दिया और देखते-देखते हल्की बर्फवारी शुरू हो गई हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ने लगे बर्फ तेज होने लगी, अब तो वापस भी नहीं आ सकते थे क्योंकि अब हर-की-दून सिर्फ 4 किमी दूर था, ठण्ड से हमारे बुरे हाल हो गये थे, यह सोचकर और भी बेहाल कि हर-की-दून पहुँचकर अभी टेंट भी लगाना है आखिर हम 5:30 बजे हर-की-दून पहुँच ही गये। हम सब बुरी तरह थके थे किसी तरह जमीन का चुनाव करके टेंट लगाना शुरू कर दिया, यह हमारे जीवन का सबसे कठिन पल था। परंतु किसी ने हिम्मत नहीं हारी थी।

समुद्र तल से 3500 मी. की ऊँचाई पर स्थित हर-की-दून वाकई अपने नाम के अनुरूप सुंदर है, शायद कभी यहाँ पर भगवान वास करते होंगे चारों तरफ बर्फ से ढकी यह घाटी ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो हम स्वर्ग में आ गये हों यहाँ पर आते ही हम सब ऐसा अविभूत हुए कि चढ़ाई चढ़ने का जो कष्ट था वो भूल ही गये। हिमनदों के अपरदन से बनी यह विशाल चौड़ी घाटी वास्तव में अद्भुत है इसी लिये यह उत्तराखंड के पर्यटक स्थलों में सर्वोच्च स्थान पर है। यह घाटी पूरी तरह से हिमनदों द्वारा बनाई गई है इसमें विभिन्न प्रकार के स्थलाकृति जैसे पार्श्व मोरेन, बीच वाले मोरेन, ग्लेशियर टैरेस आदि हैं।

30 अप्रैल को, दो दिन की लगातार चढ़ाई के बाद हम लोगों ने आराम किया, जो कपड़े टेंट में भीग गये थे उनको धूप में सुखाया। कुछ स्थलाकृतियों के मानचित्र बनाये, शाम को सब लोगों ने एक टेंट में बैठकर खूब गप शप की। डा. डोभाल ने हमसे अपने पुराने अनुभव बाँटे और ग्लेशियरों के बारे में जानकारी दी।

31 अप्रैल की सुबह 7 बजे हम लोग जोनदार हिमनद के सर्वेक्षण के लिये निकल पड़े मौसम बिल्कुल साफ था, सब लोग नये उत्साह के साथ आगे बढ़ रहे थे, हिमनद पर पहुँचने के लिये हमें कई हिम आवधाव नालों को पार करना पड़ा, हमने यहाँ पर देखा कि जंगल क्षेत्र हिमनद के बहुत समीप तक पहुँच गये हैं। तीन घंटे लगातार चलने के बाद हम लोग जोनदार हिमनद के जिह्वा क्षेत्र पर पहुँच गये परंतु अत्यधिक बर्फ के कारण यह क्षेत्र पहचानना बहुत कठिन हो रहा था, लेकिन डा. डोभाल के अनुभव से हम लोगों ने जिह्वा क्षेत्र की सही पहचान की, इस क्षेत्र को मानचित्र में अंकित कर हम लोगों ने थोड़ा आगे जाना चाहा परंतु मौसम फिर खराब हो गया एवं बर्फ पड़नी शुरू हो गई और तेज बर्फ पड़ने से हमें आगे का मार्ग दिखना बंद हो गया बड़ी मुश्किल से किसी तरह हम लोग गिरते भागते चार बजे कैंप में पहुँच गये।

दूसरे दिन हम लोगों ने आराम किया, अपने भीगे हुए जूते, कपड़ों को सुखाया। खाना खाने के बाद हम लोग ओएसएल नमूनों के लिये जगह का चुनाव करने गये और कुछ नमूने भी जमा किये। शाम को हम लोग बिन समय गंवाये अपने-अपने टेंटों में जाकर सो गये, क्योंकि अगले दिन हम लोगों को कठिन चुनौती के लिये तैयार होना था।

समुद्र तल से 3950 और 4120 मी. की ऊँचाई पर बसे जज्जु एवं तिलकु हिमनद पर जाने के लिये हम लोगों ने दो दलों का गठन किया एक दल में डा. डोभाल भानु ठाकुर व अक्षय वर्मा तथा दूसरे दल में मैं, अमित व जाहिद थे। हम लोग तिलकु हिमनद तथा डा. डोभाल का दल जज्जु हिमनद की ओर रवाना हुए। तिलकु हिमनद की ओर जब हम लोग अभी 1 किमी. दूर ही गये थे लगा कि बर्फ की ऊँचाई बढ़ने लगी थी। 2 किमी. पहुँचते-पहुँचते बर्फ की ऊँचाई लगभग 2 फीट तक हो गई। मैं और जाहिद आगे से बर्फ काटते हुए आगे बढ़ने लगे, हमारे जूते एकदम भीग गये और हम लोग थक भी बहुत गये, पर हमें हिमनद तक पहुँचना ही था। बस हम यही सोच कर बढ़े चले जा रहे थे कि आज हिमनद तक नहीं गये तो फिर कभी नहीं जा पायेंगे। लगभग 2 किमी. की खड़ी चढ़ाई थी, हमारे अमित कुमार जी दो जोड़ी जूते लेकर गये थे पर वो भी भीग कर गीले हो गए थे।

हम लोगों ने उस चढ़ाई को चढ़ने में दो घंटे लिये, ऊपर चढ़कर हमें अब हिमनद दिखने लगा था, बर्फ की ऊँचाई लगभग 3.5 फिट हो गई थी और आगे जाना संभव नहीं था फिर भी हम जिह्वा क्षेत्र देखने के लिये आगे बढ़ते गये करीब दो सौ मीटर आगे बढ़े ही थे कि एकाएक देखा जाहिद एक हिमविदर में कमर तक घुस गया है हमारे तो होश उड़ गये मैंने और अमित ने किसी तरह उसे बाहर निकाला, आज जाहिद बाल-बाल बचा था क्योंकि वह तो हिमनद का एक विशाल न दिखने वाला विदर था, इसके लिये हमने भगवान को धन्यवाद दिया पर जाहिद बिलकुल घबराया नहीं था और आगे का काम करने को तैयार था। हम लोगों ने हिमनद का मानचित्र तैयार किया और वापिस चले आये। आकर हम लोगों ने सारी बात डा. डोभाल को बताया। वे लोग भी जज्जु हिमनद का पूरा मानचित्र बना कर आ गये थे। हम लोग बहुत थक गये थे इसलिये खाना खा कर फौरन सो गये।

अगले दिन हम लोग सुबह जल्दी उठे आज हमारा एक बार फिर जोनदार हिमनद को देखने का कार्यक्रम था, आज मैं, डा. डोभाल एवं भानु ही गये और अक्षय, जाहिद व अमित को आराम करने के लिये कैंप में छोड़ दिया। सुबह साढ़े सात बजे हम लोग हर-की-दून से हिमनद की ओर चल पड़े। हमें आज लगभग दस किमी. जाकर फिर वापस आना था। दो हिमनदों के संगम के पास पहुँचने में ही चार घंटे लग गये। वहाँ हमने देखा कि हिमनद दो टुकड़ों में टूट गया है, अभी तक जितने लोगों ने भी सर्वेक्षण किया उन्होंने हिमनद के जिह्वा क्षेत्र का ही अध्ययन किया था। हमने देखा कि हिमनद जहाँ से अलग हुआ है वह क्षेत्र लगभग 900 मीटर पीछे खिसक गया है, इस क्षेत्र का सर्वेक्षण करके वापस कैंप की ओर चल पड़े, शाम को हम 6:30 बजे कैम्प पर पहुँच पाये। दूसरे दिन हमको वापस जाना था इसलिये रात को हमलोगों ने अपना सामान पैक कर दिया।

दूसरे दिन हम लोग सुबह साढ़े सात बजे नाश्ता करके ओसला की ओर चल पड़े रास्ते में हमने ओ. एस. एल. के नमूने लिये और शाम को करीब चार बजे हम ओसला पहुँचे, आज हमें यहीं विश्राम करना था। हम लोगों ने गाँव के नीचे टैंट लगाया और रात्रि भोजन की व्यवस्था में लग गये। हमने कैंप फायर भी किया क्योंकि यहाँ आग जला सकते थे, और इस तरह बात चीत करके पूरे सफर की थकान उतारी।

5 अप्रैल को हम लोग औसला से तालुका की ओर चल पड़े यह हमारे इस रोमांचक सफर का आखरी दिन था, तालुका में हमें एक दिन और रह कर डस्मीर गाँव में जाना था तथा हिमनदों के अवशेषों का अध्ययन करना था। 7 अप्रैल को हम तालुका सांकरी, नटवार, पुरोला, विकास नगर होते हुए रात आठ बजे सकुशल देहरादून पहुँच गये।

सम्पर्क


मनीश मेहता
वा. हि. भू. सं., देहरादून


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