लौटता मानसून दक्षिण भारत के खेतों को धान की हरियाली से भर देता है और किसानों के चेहरों को उम्मीद की मुस्कुराहट से। लेकिन अति किसी भी चीज की बुरी होती है, इस बार ये अति तमिलनाडु खासकर इस राज्य की राजधानी चेन्नई के लिये प्रलयंकारी साबित हुई।
चेन्नई समेत तमिलनाडु के कई जिलों में नवम्बर-दिसम्बर के महीने में लगभग एक महीने तक लगातार हुई बारिश से 50 हजार करोड़ से ज्यादा का सीधे और कुल एक लाख करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान हुआ।
हालांकि चेन्नई के लिये ये प्राकृतिक आपदा उतनी विनाशक होनी नहीं चाहिए थी जितनी ये साबित हुई, शहर का अनियोजित विकास और बारिश के पानी को सोख लेने वाले झीलों, जलाशयों व दलदलों को पाट दिया जाना इस बाढ़ के ज्यादा बड़े कारण रहे, चेन्नई के 300 के करीब तालाब, टैंक और छोटी झीलें इन्हीं इमारतों में समा गईं।
चेन्नई की दो नदियाँ अड्यार और कुवम के प्राकृतिक बहाव मार्ग को अवरुद्ध कर दिया गया, उनके जलग्रहण इलाकों का अतिक्रमण कर उसे बस्तियों व इमारतों से भर दिया गया, बारिश के पानी को ना तो ज़मीन में जाने का रास्ता दिया गया ना झीलों, तालाबों में और ना ही नदी-नालों के मार्फत बंगाल की खाड़ी में, नतीजा सबके सामने हैं।
वैसे चेन्नई के हालात कोई नए नहीं थे, इससे पहले पिछले साल जम्मू-कश्मीर और 2005 में मुम्बई में भी ऐसी ही तबाही मची थी जब 944 मिली मीटर बारिश ने 25 घंटे में 500 से ज्यादा जानें ले लीं। बात साफ है दस साल बाद भी हमारे शहरों और महानगरों के नियोजन में बारिश, जलनिकासी, समुचित सीवर लाइन और जलसंग्रह जैसी शब्दावलियों को शामिल ही नहीं किया गया है।
चेन्नई की बात करें तो इस शहर का बुनियादी ढाँचा और जलनिकासी तंत्र साढ़े छह लाख की आबादी के लिहाज से है जबकि आज इस महानगर में एक करोड़ से ज्यादा आबादी बसती है और यहाँ की 29 फीसदी जनसंख्या झुग्गी बस्ती में रहती है, इस 29 प्रतिशत आबादी का अधिकांश नदियों, झीलों और तालाबों के जलग्रहण इलाकों में ही अतिक्रमण है लेकिन वो उनकी मजबूरी भी है।
दरअसल, सर्दियों में लौटते मानसून से दक्षिण भारत में 50 से 60 फीसदी बारिश होती है लेकिन चेन्नई में नवम्बर में 1218.6 मि मी या 47.98 इंच बारिश हो गई जो पिछले सौ साल में कभी नहीं हुई थी, फिर 1 और 2 दिसम्बर को चेन्नई और आसपास के इलाकों में 48 घंटे के दौरान करीब 400 मिमी या 16 इंच बारिश हो गई।
इसकी एक वजह 2015 का अलनीनो के प्रभाव वाला होना रहा इसके कारण श्रीलंका के आसपास कम दबाव का क्षेत्र बन गया जिससे चेन्नई में लगातार पाँच हफ्ते तक बारिश होती रही।
बहरहाल, चेन्नई में आई बाढ़ अनियोजित और अनियंत्रित शहरीकरण का नतीजा तो है ही लेकिन इससे भी ज्यादा अपने नदियों, जलाशयों और झीलों की क्रूरता की हद तक अनदेखी का नतीजा है। इसलिये चेन्नई में आई बाढ़ की चर्चा यहाँ की नदियों खासतौर पर अड्यार और कुवम और जलाशयों के सन्दर्भ में जरूर होनी चाहिए।
चेन्नई नम-आर्द्र समुद्र तटीय मैदानी शहर है, जबकि तमिलनाडु समेत पूरा भीतरी दक्षिण भारत प्रायद्वीपीय पठार है। पठारों से बहकर आने वाली नदियाँ तटीय मैदानों जिन्हें बाढ़ का मैदान भी कहते हैं में फैलकर बहती हैं और अपने विशाल जलसंग्रह इलाके से होती हुई अन्त में डेल्टा या एस्चुअरी बनाते हुए समुद्र में मिल जाती हैं, डेल्टा और एस्चुअरी के साथ समृद्ध जैवविविधता वाले विस्तृत वेटलैंड या दलदल होते हैं इसलिये तटीय शहरों के पास नदियों के पानी को फैलने की ज़मीन होनी चाहिए, चेन्नई भी प्राकृतिक दलदली ज़मीन वाला शहर हुआ करता था।
चेन्नई में भी अड्यार नदी से लगा पल्लीकरनाई दलदल है, साठ-सत्तर साल पहले यह दलदल पाँच हजार हेक्टेयर भूभाग में फैला था जो अब घटकर कागज़ पर 600 हेक्टेयर में सिमट गया है और असलियत में 300 हेक्टेयर में भी कम में। हैरान करने वाली बात ये है कि इस वेटलैंड की ज़मीन का इमारतों, रिहायशी कॉलोनियों, व्यावसायिक भवनों, कारखानों व डम्पयार्ड के तौर पर इस्तेमाल सरकारी मशीनरी के सहयोग और सहमति से हुआ।
आज इस दलदल के 90 प्रतिशत भूूभाग पर निर्माण हो चुका है या कचरा फेंकने का डम्पयार्ड बन चुका है। इसके कारण चेन्नई की ज़मीन की पानी सोखने की नैसर्गिक क्षमता खत्म हो गई है।
पल्लीकरनाई दलदल की ओर राज्य सरकार ने थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो अड्यार नदी की बढ़ा पानी चेन्नई में बाढ़ बनने के बजाय उसी दलदल में खप जाता। सौ साल पहले जब चेन्नई में इसी पैमाने पर बारिश हुई होगी तब यहाँ की नदियों उनकी शाखाओं, झीलों, तालाबों, जलाशयों और बाढ़ के मैदानों ने सारा पानी समेट लिया होगा लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता।
बाढ़ के मैदान न सिर्फ अतिरिक्त जल को समेटते हैं बल्कि भूजल भण्डार को रीचार्ज भी करते हैं क्योंकि पानी का वाष्पीकरण लम्बे समय में होता है इसलिये बाढ़ के मैदान और दलदल प्रवासी पक्षियों, जलचरों, मछलियों, उभयचरों और तरह तरह के सरीसृप प्रजातियों का स्वर्ग माने जाते हैं। साथ ही पानी सूख जाने के बाद दो-तीन फसलों के बराबर की उपज एक फसल में देने वाले उर्वरतम भूभाग होते हैं।
आज से बीस साल पहले तक भी चेन्नई के प्राकृतिक बाढ़ के मैदानों, दलदलों के हालात सन्तोषजनक थे, लेकिन आर्थिक उदारीकरण के साथ इनकी स्थिति बद-से-बदतर होती गई, बाढ़ के मैदान हवा भी नहीं सोख पाने वाले कंक्रीट के जंगल में बदलते चले गए और नदियाँ व उनकी शाखाएँ सीवर या गन्दे नालों में।
कभी चेन्नई में 650 वेटलैंड हुआ करते थे अब शायद 30 बचे हैं और वो भी मृतप्राय अवस्था में। भूगोल और पारिस्थितिकी की सरकारी समझ का आलम ये है कि चेन्नई अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डा का निर्माण जिस भूभाग पर हुआ है वो अड्यार नदी का जलग्रहण क्षेत्र हुआ करता था साथ ही पल्लीकरनाई दलदल की ज़मीन पर नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ ओशन टेक्नोलॉजी संस्थान का।
इसलिये ये अकारण नहीं है कि इस बारिश में चेन्नई हवाई अड्डा पाँच दिन तक सात फीट पानी में डूबा रहा और हवाई सेवाएँ एकदम ठप्प रहीं, दर्जनों विमान बर्बाद हो गए।
यही नहीं अड्यार नदी पूरे चेन्नई को जाफेरखानपेट, सैदापेट और कोट्टापूरम में सर्पीले रास्ते से काटते हुए दो भाग उत्तर और दक्षिण में बाँटते हुए समुद्र में समाती है, पुराना शहर या ओल्ड मद्रास नदी के उत्तर में है और नया बसा चेन्नई दक्षिण में, अड्यार के तीनों घुमावों पर नदी के ऊपर पूल बनाए गए हैं जो उसके प्रवाह को और अवरुद्ध कर देते हैं।
वैसे इस बाढ़ की एक बड़ी वजह प्रशासनिक लापरवाही भी रही, खबरों के मुताबिक अक्टूबर में ही मौसम विभाग की ओर से नवम्बर में अप्रत्याशित बारिश होने की सूचना दे दी गई थी लेकिन इस सूचना को गम्भीरता से नहीं लिया गया और ना निपटने की तैयारी की गई।
1 और 2 दिसम्बर को 500 मिमी बारिश की चेतावनी के बावजूद पुलिस विभाग की ओर से निचले इलाकों में रहने वाले लोगों के लिये कोई चेतावनी नहीं जारी की गई। पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों ने भी समय पूर्व चेतावनी मिलने के बावजूद चेमबरम्बक्कम बाँध से 1 और 2 दिसम्बर से पहले धीरे-धीरे पानी निकाल कर उसे बाद में बारिश का पानी जमा करने के लिये तैयार नहीं किया, जबकि घोषित रूप से 2015 अलनीनो का साल रहा है।
चेन्नई की बाढ़ नदियों, जलाशयों और झीलों के प्रति हमारे रवैए के लिये एक चेतावनी है, साथ ही यह सीख भी कि जल निकासी व्यवस्था और पर्यावरण को समायोजित किये बगैर कितनी भी आकर्षक, खर्चीली इमारतें या बुनियादी ढाँचा क्यों न खड़े कर लिये जाएँ, प्राकृतिक आपदाएँ उन्हें पल में मटियामेट कर सकती हैं। बहरहाल, हम और हमारी सरकारें भविष्य के लिये कितना सचेत हो पाएँगे ये आने वाला वक्त ही बताएगा।सरकार के विभिन्न विभागों में कोई सामंजस्य नहीं था। पिछले साढ़े चार साल से अड्यार नदी और चेमबरम्बक्कम बाँध दोनों की तली के गाद को भी साफ नहीं किया गया, अड्यार नदी के मुहाने पर भारी गाद के कारण समुद्र में पानी निकलने का रास्ता अवरुद्ध हो गया, बाद में चेमबरम्बक्कम बाँध से प्रति सेकेंड 20,000 घनमीटर पानी को अड्यार नदी में धीरे-धीरे छोड़ा गया।
चेन्नई महानगर जल आपूर्ति और सीवेज बोर्ड के आँकड़ों के मुताबिक 16 नवम्बर और 1 दिसम्बर को आई बाढ़ बाँध से पानी छोड़े, कारण आई थी जब लगभग 18,000 क्यूसेक पानी चेम्बरमबक्कम बाँध से छोड़ा गया था। साथ ही चेम्बरमबक्कम बाँध की स्टोरेज क्षमता को बहुत ऊपर रखने से भी दिक्कतें हुईं, यदि यह 75 फीसद या इससे थोड़ा सा ज्यादा पानी होने पर ही उसे पहले ही निकाल दिया जाता।
लापरवाही केवल उच्च व निचले स्तर पर ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के स्तर पर भी हुई, 2009 में विशेषज्ञों की समिति ने चेन्नई नगर विकास योजना—2009 रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंपी थी जिसमें शहर की नदियों और जलाशयों को पुनर्जीवित नहीं करने पर भविष्य में ऐसे ही खतरों से आगाह किया गया था।
लेकिन उस रिपोर्ट की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। विशेषज्ञों की राय में चेन्नई में बाढ़ को रोका जा सकता था अगर प्रशासन ने चेम्बरमबक्कम बाँध को अलग-थलग ना रखा होता।
चेम्बरमबक्कम बाँध और अड्यार नदी 200 टैंकों से जुड़े हुए हैं, इन सभी का प्रबन्धन होने पर चेम्बरमबक्कम बाँध से 33,500 क्यूसेक पानी छोड़े जाने पर भी पानी की निकासी बेहतर तरीके से हो जाती।
दरअसल, चेन्नई, कांचीपूरम और तिरुवल्लूर के बीच लगभग 3,600 तालाब, पोखरों व टैंक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, सरकार अगर इन सबकी सफाई और रखरखाव कर दे तो इनमें तीस हजार मिलियन क्यूबिक फीट पानी जमा हो सकता है और बाढ़ के हालात को आराम से रोका जा सकता है।
दरअसल, अड्यार और कुवम के अलावा चेन्नई में एक और छोटी नदी कोससथलयार भी है, ये तीनों नदियाँ पन्द्रह-बीस साल पहले तक ठीकठाक थीं, शहरीकरण बढ़ने के साथ-साथ इन नदियों के किनारे कचरे का डंपयार्ड बनते गए और खुद नदियाँ जगह-जगह कचरे के अम्बार के साथ सीवर नालों में तब्दील होती गईं।
यहाँ तक कि कचरे के कारण अड्यार और कोससथलयार अपने मुहानों के पास भी अवरुद्ध होती गईं। यही हाल बकिंघम नहर का भी हुआ जो 48.3 किलोमीटर लम्बा है, गन्दगी, कचरे और गन्दे नालों के पानी ने इस नहर को सीवर में बदल दिया। इसी तरह मदुरावोयेल झील भी 120 एकड़ से सिमट कर 25 एकड़ में रह गई है।
अंबातूर, कोदूनगईवूर और अदम्बाक्कम टैंक भी सिमट कर बहुत छोटे हो गए हैं। दूसरी ओर एनएच 45 और एनएच 4 को जोड़ने वाला चेन्नई बाइपास पूर्व की ओर बहने वाले नालों के प्रवाह को अवरुद्ध करता है, जिससे अन्नानगर, पोरूर, वनाग्रम, मुग्गापैर और अम्बातूतर जैसे इलाके बाढ़ प्रभावित हो जाते हैं।
सच तो ये है कि चेन्नई के नक्शे में अब भी 250 जलनिकाय दिखते हैं लेकिन हकीक़त में केवल 27 बच गए हैं और वो भी बुरी हालत में। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि राज्य सरकार या चेन्नई नगर प्रशासन के पास न तो जलनिकायों से सम्बन्धित सही आँकड़ें है ना ही उनका नक्शा और उनके जलचक्र अवधि व क्षेत्र के बारे में कोई जानकारी।
निचले इलाकों को स्वाभाविक तौर पर सीवर लाइन का इलाक़ा मान लिया गया है और शहर के रिहायशी इलाकों के गन्दे पानी की निकासी इन्हीं इलाकों में कर दिया गया है।
वैसे तमिलनाडु सरकार ने अड्यार नदी के एस्चुअरी के संरक्षण और सौन्दर्यीकरण पर 60 करोड़ की राशि खर्च करने का दावा किया था जिसकी पोल इस बाढ़ से खुल गई। अभी भी अड्यार भारत के सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में से एक है, कभी अड्यार क्रीक में पक्षियों की 170 प्रजातियाँ हुआ करती थीं, लेकिन अब यहाँ गन्दा पानी और प्लास्टिक के ढेर हैं।
जाहिर है चेन्नई की बाढ़ नदियों, जलाशयों और झीलों के प्रति हमारे रवैए के लिये एक चेतावनी है, साथ ही यह सीख भी कि जल निकासी व्यवस्था और पर्यावरण को समायोजित किये बगैर कितनी भी आकर्षक, खर्चीली इमारतें या बुनियादी ढाँचा क्यों न खड़े कर लिये जाएँ, प्राकृतिक आपदाएँ उन्हें पल में मटियामेट कर सकती हैं। बहरहाल, हम और हमारी सरकारें भविष्य के लिये कितना सचेत हो पाएँगे ये आने वाला वक्त ही बताएगा।
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Post By: RuralWater