देश के कुछ हिस्सों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ और सालभर चलने वाले जल संकट के समाधान के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने अहम निर्णय दिया है। वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रूप में सर्वाधिक हो रही है। जिसका मुख्य स्रोत नदियां और भू-जल हैं। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते जहां नदियां सिकुड़ रही हैं, वहीं केंद्रीय भू-जल बोर्ड ने राष्ट्र के लगभग 800 ऐसे भूखंडों को चिह्नित किया है, जिनमें भूजल का स्तर निरंतर घट रहा है।
उसने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना को समयबद्ध तरीके से अमल में लाया जाए। हालांकि नदियों को जोड़ने की बात पहली नजर में आसान लग सकती है, किंतु इस परियोजना को अंजाम तक पहुंचाना बेहद जटिल, दुष्कर और जोखिम भरा काम है। इससे पर्यावरणीय और भौगोलिक संतुलन बिगड़ने की समस्या तो पैदा होगी ही, राज्यों में परस्पर टकराव के साथ कई देशों से भी मतभेद उत्पन्न होंगे। चीन से ब्रह्मपुत्र नदी के जल को लेकर विवाद पहले से ही बना हुआ है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। साथ ही बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के विस्थापन और पुनर्वास का संकट भी झेलना होगा। हालांकि नदियां जुड़ जाती हैं तो किसी हद तक बाढ़ की विनाश लीला से तो निजात मिलेगी ही, 2050 तक 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि भी सिंचित होने लगेगी। वर्तमान में सिंचाई के सभी संसाधनों व तकनीकों का उपयोग करने के बावजूद 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही सिंचाई हो पा रही है।प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने सबसे पहले नदियों को आपस में जोड़ने की बात कही थी। इसके बहुत दिन बाद जब एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान 2002 में देश को भयंकर सूखा झेलना पड़ा, तब नदियों को जोड़ने की परियोजना सामने आई। लेकिन अमल से पहले मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। अब जाकर एक दशक बाद इसको अदालत ने हरी झंडी दी है। अदालत ने परियोजना पर अमल के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति का गठन भी कर दिया है।
ताकि समय सीमा में काम पूरे हों और पर्यावरण व विस्थापन जैसी समस्याओं से कानूनी स्तर पर जल्दी निपटा जा सके। 2008 में राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) द्वारा आहूत बैठक में तमिलनाडु ने प्रस्ताव रखा था कि नदियों को परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा मिलना चाहिए। इसी क्रम में केंद्र सरकार ने सिंचाई और पन-बिजली के बढ़ते संकट पर काबू पाने की दृष्टि से 14 नदियों को राष्ट्रीय परियोजना में शामिल कर इस दिशा में एक पहल की थी।
न्यायालय के निर्देश के बाद ये सुझाव एक-दूसरे के पूरक होने के साथ राष्ट्र को जल संकट से किसी हद तक निजात दिलाने के ठोस कारक बन सकते हैं। वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रूप में सर्वाधिक हो रही है। जिसका मुख्य स्रोत नदियां और भू-जल हैं। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते जहां नदियां सिकुड़ रही हैं, वहीं केंद्रीय भू-जल बोर्ड ने राष्ट्र के लगभग 800 ऐसे भूखंडों को चिह्नित किया है, जिनमें भूजल का स्तर निरंतर घट रहा है।
यदि भूजल के स्तर में गिरावट यूं ही जारी रही तो भयावह जल संकट तो पैदा होगा ही, हमारा पारिस्थितिकी तंत्र भी गड़बड़ा जाएगा। गौरतलब है कि यदि नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया शुरू होती है तो जहां-जहां नदियां जुड़ेंगी वहां जल भरण की अंतःप्रक्रियाओं के चलते गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र की तरह भू-जल के भंडार हो जाएंगे। जो लंबे समय तक पेयजल और सिंचाई सुविधा के बड़े स्रोत बने रहेंगे।
प्रस्तावित 120 अरब डॉलर अनुमानित खर्च की नदी जोड़ो परियोजना को दो हिस्सों में बांटकर अमल में लाया जाएगा। एक प्रायद्वीप स्थित नदियों को जोड़ना और दूसरे, हिमालय से निकली नदियों को जोड़ना।
प्रायद्वीप भाग में 16 नदियां हैं, जिन्हें दक्षिण जल क्षेत्र बनाकर जोड़ा जाना है। इसमें महानदी और गोदावरी को पेन्नार, कृष्णा, वैगई और कावेरी से जोड़ा जाएगा। पश्चिम के तटीय हिस्से में बहने वाली नदियों को पूर्व की ओर मोड़ा जाएगा। इस तट से जुड़ी तापी नदी के दक्षिण भाग को मुबंई के उत्तरी भाग की नदियों से जोड़ा जाना प्रस्तावित है।
केरल और कर्नाटक की पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों की जलधारा पूर्व दिशा में मोड़ी जाएगी। यमुना और दक्षिण की सहायक नदियों को भी आपस में जोड़ा जाना इस परियोजना का हिस्सा है। हिमालय क्षेत्र की नदियों के अतिरिक्त जल को संग्रह करने की दृष्टि से भारत और नेपाल में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र तथा इनकी सहायक नदियों पर विशाल जलाशय बनाने की योजना है ताकि वर्षा जल एकत्र हो और उत्तर प्रदेश, बिहार एवं असम को बाढ़ से निजात मिल सके।
इन जलाशयों से बिजली भी उत्पादित की जाएगी। इसी क्षेत्र में कोसी, घाघरा, गंडक, साबरमती, शारदा, फरक्का और दामोदर नदियों को गंगा, यमुना और महानदी से जोड़ा जाएगा। करीब 13500 किमी लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का वरदान बनी हुई हैं। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत सिंचित होती है। यदि नदियां जुड़ जाती हैं तो सिंचित रकबा भी बढ़ेगा।
वैसे ‘पानी’ हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। परंतु जो नदियां एक से अधिक राज्यों में बहती हैं, उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किए जाने के सवाल बीच-बीच में उठते रहे हैं। मसलन, कावेरी जल विवाद पिछले 20 सालों से उलझा है। चंबल से सिंचाई हेतु जल को लेकर भी राजस्थान और मध्यप्रदेश में हर साल विवाद छिड़ता है। वहीं महानदी और ब्रह्मपुत्र अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण बनती है।
यद्यपि नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उन्हें परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया को अमल में लाना कोई आसान काम नहीं है। एक तो यह बड़े बजट और लंबी अवधि का काम है। दूसरे, विस्थापन जैसी राष्ट्रीय आपदा भी अड़ंगा लगाएंगे। जलचर भी बड़ी संख्या में प्रभावित होंगे। ऐसे ही अवरोधों के चलते मध्यप्रदेश में काली सिंध, पार्वती, नेवज और चंबल नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव एक दशक से ठंडे बस्ते में है। इन विवादों का हल नदियों को राष्ट्रीय परियोजना में शामिल कर दिए जाने से शायद हल हो जाए।
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