उत्तर प्रदेश के कई जिलों में पानी में आर्सेनिक (संखिया) 50 पीपीबी से अधिक है। आर्सेनिक पर हुए अध्ययन से यह पता चलता है कि 50 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) से अधिक मात्रा में पानी में आर्सेनिक मौजूद होना एक खतरनाक स्तर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 10 पीपीबी तक आर्सेनिक मात्रा सुरक्षित माना जा सकता है। कई जगह तो यह मात्रा 200 तक पहुँच गई है।
इस तरह के पानी का इस्तेमाल करने वाले त्वचा रोग से लेकर कैंसर जैसे गम्भीर रोग के शिकार हो सकते हैं। सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि लखीमपुर खीरी, बहराईच और बलिया जैसे जिलों में चापाकल के पानी की जाँच पर आर्सेनिक प्रभावित जिलों में सरकार के प्रतिनिधियों और जनप्रतिनिधियों में आर्सेनिक को लेकर चिन्ता ना के बराबर नजर आती है।
सरकार से कहीं अधिक काम इन क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाएँ कर रहीं हैं। इस खतरे से घर-घर जाकर लोगों को जागरूक कर रही हैं।
उत्तर प्रदेश में पानी की जाँच के बाद एक तकनीकी रिपोर्ट बताती है कि यह खतरा अब उतर प्रदेश के 31 जिलों को प्रभावित कर रहा है। इनमें अधिक जिले बिहार के आसपास के हैं। वैसे फैजाबाद, कानपुर नगर और सीतापुर की स्थिति खराब हुई है। गाजीपुर, गोरखपुर, बरेली, सिद्धार्थनगर, बस्ती, चंदौली, उन्नाव, मुरादाबाद, संत कबीर नगर, संत रविदास नगर, गोंडा, बिजनौर, शाहजहांपुर, बलरामपुर, मेरठ, मिर्जापुर में भी आर्सेनिक का खतरा बढ़ता जा रहा है। दिल्ली के पास बागपत भी आर्सेनिक की चपेट में है।
देखा गया है कि आर्सेनिक के प्रभाव से हाथों पर पड़े दाग को महिलाएँ अक्सर कपड़े धोने के लिये इस्तेमाल होने वाला डिटर्जेंन्ट पाउडर से पड़ा दाग समझ लेती हैं। आर्सेनिकयुक्त पानी का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के त्वचा की जाँच हो तो यह लक्षण साफ नजर आएगा।
आर्सेनिक का पानी में बढ़ने की एक बड़ी वजह भूजल का लगातार दोहन है। हम पानी लगातार जमीन के अन्दर से निकालते जा रहे हैं और यह बात हमारी चिन्ता में शामिल नहीं है कि लिया हुआ पानी वापस ज़मीन के अन्दर कैसे पहुँचाया जाये? जमीन के अन्दर जो पानी है, उसका रिचार्ज जरूरी है। यह बात हमें बताने वाला कोई नहीं है। इसी का परिणाम है कि बलिया में रेवती, बलहारी, दुभंड प्रखंड और लखिमपुर खीरी में निघासन, इसानगर, पलिया और रमिया बहर प्रखंड में भूजल के लगातार दोहन की वजह से आर्सेनिक खतरनाक स्थिति तक पहुँच गया है।
आर्सेनिक के मामले में देखा गया है कि आमतौर पर 30 से 40 फीट पर जिन जगहों पर पानी निकल आता है, वहाँ के पानी में आर्सेनिक नहीं मिलता है। आर्सेनिक उन चापाकलों के पानी में अधिक घूल कर बाहर आता है जहाँ बोर 200 फुट या इससे अधिक हो। ऐसे हैण्डपम्पों में आर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक पाई जाती है, जो सेहत के लिये खतरनाक है। अनुमान से यह कहा जा रहा है कि आर्सेनिक भूगर्भ में मौजूद चट्टानों में पैदा हुए घर्षण की वजह बाहर आ रहा है।
जो संस्थाएँ आर्सेनिक पर काम कर रहीं हैं। गाँव-गाँव में जाकर लोगों को इसके खतरे से वाक़िफ़ करा रही हैं। उन्हें बता रही है कि आर्सेनिक युक्त पानी के इस्तेमाल से क्या खतरा हो सकता है? ऐसे ही संस्थाओं के कार्यकर्ताओं से बातचीत से पता चला कि आर्सेनिक से बचाव के लिये कुएँ एक अच्छा विकल्प हो सकते हैं। लेकिन पिछले बीस-पच्चीस सालों में हमने कुएँ का इस्तेमाल लगभग खत्म कर दिया है।
जो कुएँ गाँव में थे उनमें भी अधिकांश अब भर दिये गए हैं। इस बात को जब कुछ संस्थाओं ने बिहार-उत्तर प्रदेश में समझा तो उन्होंने बचे हुए कुओं को बचाने और नए कुएँ खुदवाने के लिये कुँआ बचाओ अभियान प्रारम्भ कर दिया। सरकार द्वारा पाइप बिछाकर समाज को पानी पहुँचाने का जो अभियान चला है, उसकी जगह समाज की मदद से कुँआ खुदवाने पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। वैसे सरकार की रुचि कुँआ खुदवाने से अधिक पाइप बिछाने में होगी, इस बात को गाँव के लोग भी समझते हैं।
पाईप बिछाने से अधिकारी से लेकर ठेकेेदार तक की बचत होगी। लेकिन अब इसका विरोध गाँव के लोगों को ही करना होगा। गाँव-गाँव में पीने के पानी के लिये कुएँ खुदवाए जाएँ, इस तरह की माँग गाँव की तरफ से आना चाहिए। कुँओं की मदद से ज़मीन के अन्दर का पानी भी समय-समय रिचार्ज होता रहेगा।
अब आर्सेनिक के खिलाफ जंग में सरकार के भरोसे बैठने से काम नहीं चलेगा। जनता को कदम उठाना पड़ेगा और सड़क पर उतर कर आना होगा।
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