ये पंचतत्व गंगा बेसिन के

गंगा जल की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है। अवैज्ञानिक तरीके से एसटीपी की जगह निर्धारित की गई है, अवजल गिराने की नदी में जगह, नदी शक्ति से संतुलन स्थापित नहीं कर पा रही। नदी के किनारे विशाल बालू क्षेत्र पर ध्यान दिया गया तो मिट्टी कटाव के आपसी संबंध को भी नहीं समझा गया। इन सब के ऊपर भूगर्भीय जल के प्रवाह के संतुलित संबंध को उपेक्षित रखा गया। ग्रेट प्लेन के नाम से जानी जाने वाली समतल गंगा बेसिन हो रहे अधिकतम मृदा-क्षरण की गति पर ध्यान नहीं दिया गया कह सकते हैं कि गंगा एक शरीर है, जिसके विभिन्न अंग हैं। इन अंगों के पदार्थ अलग-अलग हैं। इनके आकार-प्रकार एवं व्यवस्थाएं अलग-अलग हैं। इनका स्थान, समय एवं पारिस्थितिकी बदलती रहती है। ये पदार्थ शक्ति के भीतरी एवं बाह्य प्रवाह से प्रभावित होते रहते हैं। ये पदार्थ शक्ति के अविनाशी सिद्धांत पर आधारित है। ऐसी स्थिति में नदी शरीर के संपोषणीय व्यवहार प्रकृति से निर्धारित किए जाने की आवश्यकता है। इस आपसी संबंध को नहीं समझने के कारण गंगा की समस्या को पहाड़ पर घाटी एवं समतल भूमि मे नहीं समझा गया है। इसी कारण से नदी के आकार-प्रकार नदी के भौगोलिक चरित्र को निरंतर बदलते जा रहे हैं। इसी बदलाव के तहत उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में पहाड़ पर भयवह बाढ़ आ गई।

यही कारण है कि विभिन्न बांधों द्वारा जो जल विद्युत उत्पादन लक्ष्य रखा गया था, पूरा नहीं हो रहा। टिहरी बांध का जल विद्युत उत्पादन अपने लक्ष्य से बहुत कम है। इन सब के कारण नदी के आकार प्रकार के बदलाव उत्पन्न हुए हैं। विभिन्न आयामों के विपरीत शक्तियों की अनदेखी हुई हैं। पहाड़ी के निचले क्षेत्र में भीमगौड़ा, नरौरा एवं अन्य बैराजों के माध्यम से जल निकाला जा रहा है तथा विभिन्न जगहों से अवैज्ञानिक तरीके से हमने प्रदूषकों का प्रवाह गंगा में किया है। इसके कारण गंगा जल की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है। अवैज्ञानिक तरीके से एसटीपी की जगह निर्धारित की है, अवजल गिराने की नदी में जगह, नदी शक्ति से संतुलन स्थापित नहीं कर पा रही। नदी के किनारे विशाल बालू क्षेत्र पर ध्यान नहीं दिया गया तो मिट्टी कटाव के आपसी संबंध को भी नहीं समझा गया। इस सब के ऊपर भूगर्भीय जल के प्रवाह के संतुलित संबंध को उपेक्षित रखा या। ग्रेट प्लेन के नाम से जानी जाने वाली समतल गंगा बेसिन से हो रहे अधिकतम मृदा-क्षरण की गति पर ध्यान नहीं दिया गया। यह नहीं समझा गया कि गंगा क्यों मिट्टी ढोने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। यह गंगा की मूलभूत समस्याओं में से एक आधारभूत समस्या है।

गंगा व्यवस्था की नीतियां


1. छोटे बांधों, जिनकी ऊंचाई पांच मीटर के आसपास ही हो, द्वारा ही जल विद्युत उत्पादन हिमालयी क्षेत्रों में किया जाना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि हिमालयी चट्टान मुख्यतः सेडीमेंट्री एवं मेटामार्फिक प्रकृति की है एवं इनकी ढाल बहुत अधिक है। इसलिए जो चट्टानें जल प्लावित होती हैं; जलाशय भरने के क्रम में वे भीतरी दबाव के कारण, जो जलस्तर के कारण उत्पन्न होता है, तहत गिरती है। चूंकि जलाशय की लंबाई छोटी होती है, इसलिए बहुत ऊंचे पहाड़ के क्षेत्र मृदा-क्षरण से प्रभावित हो जाते हैं। इस कारण जलाशय की जीवन अवधि कम होती है, जिससे जलाशय का जल-गुण नष्ट हो जाता है। इससे वातावरणीय ताप एवं दबाव के विशाल क्षेत्रों में असंतुलन हो जाता है। गंगा के निचले भागों में मिट्टी जमाव, कटाव तथा बाढ़ की समस्या से मुक्ति के लिए पौधरोपण जरूरी है।

2. पदार्थ एवं शक्ति के अविनाशी सिद्धांत के तहत नदी के सतही जल एवं भूमिगत जल की सतह के आपसी संबंधों के चलते गंगा से जल का दोहन 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए जबकि वर्तमान में भीमगौड़ा, नरौरा व अन्य बैराजों द्वारा 95 प्रतिशत से अधिक हो रहा है, जिसके तहत नदी का जल स्तर एकाएक गिराया जा रहा है। इसके वेग को घटाया जा रहा है। परिणामस्वरूप जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा घट रही है। बीओडी भार बढ़ रहा है। जितना ही हम जल निकालते जा रहे हैं, उसी के अनुरूप बेसिन के भीतरी भूजल का स्तर नीचे होता जा रहा है।

3. घरेलू, औद्योगिक एवं कृषि से उत्पन्न अवसादों के प्रवाह की दिशा नदी की ओर ही होती है। इसलिए प्रदूषक निस्तारण क्षेत्र नदी शक्ति की उपलब्धता पर ही निर्भर करते हैं, जो विभिन्न जगहों पर अलग-अलग हुआ करते है। एसटीपी वहीं अवस्थिति होना चाहिए जहां विभिन्न जगहों से प्रदूषक गुरुत्वाकर्षण के तहत जमीन की ढाल के कारण पहुंच सके। लेकिन वर्तमान में एसटीपी क्षेत्र में अवसादों को दबाव प्रणाली द्वारा भेजा जा रहा है। इसलिए शहर की जमीन का ढाल ही सीवर पाइप के क्षेत्र को निर्धारित करता है। चालू क्षेत्र में अवजल शोध सयंत्र होने चाहिए।

4. नदी की भौगोलिक स्थिति के कारण ही नतोदर किनारों पर कटाव एवं उन्नोतोदर किनारों पर जमाव का कार्य नदी करती है। वे आपस में उसी तरह जुड़े हुए रहते हैं, जिस तरह शक्ति एवं तनाव के बीच संबंध होता है। इसलिए बालू क्षेत्र का रख-रखाव बहुत आवश्यक है। घर्षण आकारीय एवं अन्य दबाव शक्तियां बालू क्षेत्र में उत्पन्न होती हैं। इसी के कारण नदी के नतोदर किनारों में कटाव होता है। बालू के ये क्षेत्र स्थाई होते हैं। इनमें किसी भी तरह का क्षरण नहीं होता। ये हमेशा बढ़ते रहते हैं। इसी के अनुरूप नदी के दूसरे किनारें में कटाव होता है। इसे रोकने का मौलिक प्रयास कभी नहीं किया गया। इस कारण लाखों लोग हर वर्ष विस्थापित होते रहते हैं। हजारों एकड़ जमीन कट जाती है, जिससे हजारों करोड़ रुपए की क्षति होती है। वाराणसी में गंगा के बालू क्षेत्र का विस्तार निरंतर हो रहा है। चूंकि इस क्षेत्र को कछुआ सेंचुरी घोषित किया गया है, इसलिए गंगा के ऐतिहासिक घाट मणिकर्णिका, पंच गंगा, रामघाट आदि भीषण कटाव की समस्या से जूझ रहे हैं। इसी प्रकार, बालू जमाव के कारण गंगा पटना से दूर होती जा रही है।

5. भारत का विशाल समतल भू-भाग गंगा का बेसिन है, जो लगभग नौ लाख वर्ग किमी में विस्तारित है, लेकिन इस विशाल समतल भू-भाग में अत्यंत उपजाऊ मृदा के क्षरण के कारण ही गंगा की गणना संसार की दूसरी सबसे बड़ी मृदा ढोने वाली नदी के रूप में होती है। गंगा के सूखने का अर्थ होता है कि मैदानी भाग की अव्यवस्था के कारण वर्षा जल को भू-जल से मिलने का अवसर नहीं मिलता। वह बह जाता है। इस बहाव के कारण ही मृदाभार से नदी का पेट भरता चला जा रहा है। नदी के प्रवाह की दिशा बदलती जा रही है। नदी के इस पेट भराव के कारण बाढ़ की समस्या, मिट्टी कटाव की समस्या बढ़ती चली जा रही है। इस प्रकार, ये पांच सिद्धांत गंगा बेसिन के प्रबंध को परिभाषित करते हैं।

निदेशक, महामना मालवीय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी फॉर द गंगा मैनेजमेंट

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Post By: pankajbagwan
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