यात्रा से निकलेगा निष्कर्ष, कैसे बचेगी यमुना

नदी का एक पूरा विज्ञान है। जब वह अविरल बहती है तो संस्कृति को सिंचती है। पीढ़ियों का पोषण करती है। उन्हें आर्थिक संबल प्रदान करती है। परंपरा से ऊंचे स्थानों पर बस्तियां होती हैं और निचले स्थानों पर नदियां बहती हैं। जब से हमने अपने स्वार्थों के लिए यमुना के रास्ते को मोड़ने की कोशिश की है तब से नदी अपना धर्म नहीं निभा पा रही है। जल संस्कृति के नियमों को तोड़ने का ही प्रतिफल है कि अत्यंत समृद्ध खेती-किसानी और भारतीय मूल के सर्वश्रेष्ठ बीजों की हमारी किसानी आनुवांशिक संवर्द्धित भोजन जीएम फूड की तरफ बढ़े हैं। फलतः हम कैंसर और विकलांगता आदि का शिकार हो रहे हैं। यमुना की मौत हो चुकी है और इसकी मौत के साथ हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा भी दम तोड़ चुकी है। यमुना को नहीं बचाया गया तो उत्तर भारत के करोड़ों किसानों का जीवन संकट में पड़ जाएगा और देश की जल सभ्यता खतरे में पड़ जाएगी। एक भ्रष्ट समाज नदी को नहीं बचा सकता और जो समाज नदी को नहीं बचा सकता, वह समाज खुद को भी नहीं बचा सकता। यह स्वर और संदेश निकला है आठवें दिन तक की यात्रा के दौरान हुई चर्चाओं और विमर्श से। शुक्रवार को समीप के झाड़सेंतली गांव में पहुंचने के बाद यमुना मुक्ति में शामिल हुए संतों, उद्योगपतियों, किसानों, कारोबारियों और पेशेवरों ने खुलकर यह बात स्वीकार की कि यमुना के लिए सबसे अधिक दोषी उद्योगों का नेहरू मॉडल और धार्मिक समाज की लापरवाही है। आचार्य पंकज ने कहा कि ‘यमुना हमारे लिए देव हैं। नदियों को पाट, रास्ते, सहस्त्राब्दियों में बने हैं।’

संत द्वारकेश लाल ने कहा कि नदी का एक पूरा विज्ञान है। जब वह अविरल बहती है तो संस्कृति को सिंचती है। पीढ़ियों का पोषण करती है। उन्हें आर्थिक संबल प्रदान करती है। परंपरा से ऊंचे स्थानों पर बस्तियां होती हैं और निचले स्थानों पर नदियां बहती हैं। जब से हमने अपने स्वार्थों के लिए यमुना के रास्ते को मोड़ने की कोशिश की है तब से नदी अपना धर्म नहीं निभा पा रही है। किसान यूनियन के भानु प्रताप सिंह ने कहा कि जिस प्रकार से रक्तदान की एक सीमा होती है उसी प्रकार से नदी से भी हम निश्चित सीमा तक जल का दोहन कर सकते हैं। सिद्धांततः नदी के 30 प्रतिशत भाग पर हमारा हक है, लेकिन रिपोर्टें बता रही हैं कि हमने यमुना जल का 70 प्रतिशत से अधिक दोहन करके यमुना को रुष्ट कर दिया है।

यात्रा में आए भारतीय किसान यूनियन से जुड़े सियाराम यादव ने कहा, जब चंबल यमुना में मिलती है तो आगरा से इलाहाबाद तक पानी चंबल का पानी है और इस प्रकार यह केवल यमुना प्रदूषण का सवाल नहीं है। यह संपूर्ण जल सभ्यता और किसानों के आर्थिक जीवन से जुड़ा प्रश्न है। एक अन्य आंदोलनकारी धर्मसिंह छाता ने कहा, किसानों ने जब से बहुफसलीय पद्धति को त्याग एकल फसल को अपनाया है तब से नदी के सारे नियम टूट गए हैं। जब से हमने नदी को नियमों के साथ छेड़छाड़ की है, पशु-पक्षी प्रभावित हुए हैं। भूजल स्तर नीचे चला गया है।

राष्ट्रवादी चिंतक गोविंदाचार्य ने यमुना मुक्ति यात्रा को भेजे अपने संदेश में कहा, ‘यह जल संस्कृति के नियमों को तोड़ने का ही प्रतिफल है कि अत्यंत समृद्ध खेती-किसानी और भारतीय मूल के सर्वश्रेष्ठ बीजों की हमारी किसानी आनुवांशिक संवर्द्धित भोजन जीएम फूड की तरफ बढ़े हैं। फलतः हम कैंसर और विकलांगता आदि का शिकार हो रहे हैं।’ गुजरात से आए बिल्डर अरविंद भाई ने कहा, ‘यमुना की मौत के साथ कई परंपरा और संस्कृतियों की मौत हो रही है। लापरवाह धार्मिक समाज और स्वार्थी औद्योगिक व्यवस्था को अब यमुना प्रदूषण तथा गिरते भूजल स्तर की चिंता करनी ही होगी। यमुना मुक्ति का काम समाज करेगा, यह कैसे होगा, यह भी समाज के भीतर से तय होगा। अब यह सुनिश्चित होना चाहिए कि यमुना बचे।

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