यादों में बरसे बादल

जैसे ही पहली बौछार धरती पर पड़ती है मिट्टी की कोख से सोंधे एहसास की खुशबू उभरती है। बूंदों का लहरा हर उपादान पर पड़ी धूल धो देता है। बीते बचपन के वर्षों में जहां एक ओर नदियां, नदियों के तट पर उगाए गए फलों के ही साथ वर्षा की रातों में गाए जाने वाले आल्हा की पक्तियां भी अभी तक मन में बसी हैं। वर्षा की अंधेरी भींगी रातों में गांव-गांव ढोलक की थाप पर सारी-सारी रात आल्हा गाया जाता था। जिसकी एक-एक पंक्ति में गुंथी अतिशयोक्ति भी सिहरन पैदा करती थी।

क्षितिज की धूलभरी देहरी पर दबे पांव आकर पुरवैया द्वार थपथपाती है। प्रकृति का नीलम गवाक्ष खुलता है। सांवले रंगवाली साड़ी पहने हुए वर्षा सुंदरी आकाश के निस्तब्ध वक्ष पर काले घने केश डाल बेसुध हो जाती है। सब तरफ कौंध फिर घुप्प अंधकार, वर्षा के आने का नाद घोष दूर-दूर तक फैल जाता है। जैसे ही पहली बौछार धरती पर पड़ती है मिट्टी की कोख से सोंधे एहसास की खुशबू उभरती है। बूंदों का लहरा हर उपादान पर पड़ी धूल धो देता है। चार-छह दिन में सब तरफ हरा कालीन बिछ जाता है। मोर के पांवों में थिरकन आ जाती है, कोयल कूकने लगती है। वर्षा आती है तो नदियों की तरुणाई बेसंभाल हो उठती है। तोरी की बेल गांव की खपरैलों को ढंक देती है। सूखे सरोवर भरने लगते हैं। गांव के छोकरे बरगद की जड़ों का झूला बनाकर झूलने लग जाते हैं। आम और जामुन के पेड़ों पर चिड़ियों का मेला लगने लग जाता है। काश, आज भी यह सब इसी तरह हो पाता।

मैं अपने ननिहाल, जहां मैं जन्मा, बेतवा और यमुना दो नदियों के बीच काफी ऊंचाई पर बसा नगर हमीरपुर था। शुरू के चौदह वर्ष मैं वहीं रहा। हमारा घर बेतवा नदी के निकट इतनी ऊंचाई पर था कि आंख खुलते ही बेतवा को देखना एक तृप्ति-सा, निर्मल अनुभव था। वर्षा ऋतु में बेतवा और यमुना दोनों में बाढ़ आती, दोनों नदियां चार किलोमीटर आगे जाकर मिल जातीं। दोनों नदियों को मिलाने का काम वर्षा ऋतु में एक नाला भी करता, बाढ़ के दिनों में नगर चारों तरफ से पानी से घिर जाता था। हफ्तों न कोई शहर से बाहर जा पाता, न कोई आ पाता। कहीं कोई निकास नहीं, मेरे स्वभाव का यह स्थायी भाव बचपन की इसी छटपटाहट से जुड़ा है। बेतवा की बाढ़ का पानी हमारे घर के पीछे के मैदान में छपाका मारता। बेतवा की उद्दाम तरंगे, लगता था, घर को निगल लेने को व्याकुल हैं। शहर में बिजली नहीं थी। शाम होते ही बाढ़ के पानी का हहराता स्वर सुनते हुए हम गुमसुम हो जाते। बेतवा के तट पर, पहली पहाड़ी पर बनी मल्लाहों की बस्ती से कहीं किसी दीवार के गिरने की आवाज आती तो दिल दहल जाता। कभी रातभर बादल झड़ी-सी लगा देते, सारी-सारी रात झिमिर-झिमिर का स्वर कानों में बजता, वर्षा ऋतु के अनेक चित्र यादों में बसे हैं। जैसे दूर से आती पपीहे की दुख-डूबी बोली, ‘प्यासो हौं’ या अपनी मांद में पानी भर जाने बाद हुआते हुए सियार या बादलों की गड़गड़ाहाट के बीच कौंधती हुई बिजली।

याद आ रही है भाद्रपद की रातें, जब कृष्ण जन्माष्टमी के ही साथ, नगर के अलग-अलग पूजाघरों में सजाई गई झांकियां, जिन्हें देखने के लिए सभी छोटे-बड़े रात गए दो-तीन बजे तक सड़कों पर चलते दिखाई देते थे। बेतवा और यमुना की बाढ़ से जब पूरा शहर घिर जाता था तब ऐसा भी लगता था कि प्रलय का जो भी वर्णन पढ़ने-सुनने को मिला, उसमें ऐसा ही कुछ होता होगा। बरसात के इन्हीं दिनों में, जब घर के पीछे वाले मैदान तक बढ़ती चली आई बेतवा की मटियाली लहरें छपाका मार रही थीं, देखा कि दूर से उखड़कर बहे आ रहे एक पेड़ की अनडुबी शाख पर एक सांप और एक नेवला बहाव से भयभीत अलग-अलग दुबके हुए बैठे हैं। यह दृश्य हैरत में डाल देने वाला था, आगे कभी एक कविता, जो ‘तीसरा अंधेरा’ में सम्मिलित है, में यह बिंब इस तरह उतरा है-
‘मैंने शरीर से कहा
बाढ़ जब भरती है जंगल में
नकुल और सांप चिपक जाते हैं
एक ही शाख से
तू बदला लेगा भी किससे
कोई चिड़िया नहीं जन्म लेतीअपनी राख से।’


वर्षात पर हमारे शहर में सेठ दुर्गाप्रसाद रास करने वालों की एक टोली बुलवाते थे। रात भर चलने वाली इस कृष्ण लीला को, तब ‘रहस’ कहा जाता था। इस लीला में कृष्ण-बलराम सहित अन्य गोप-गोपियां एक गीत गाते थे जिसके बोल अभी तक याद हैं। मनसुखा सहित कृष्ण-बलराम आदि जिन खेलों का नाम लेते थे जरा उनकी बानगी लें-
‘चकरी, भौंरा, बिंगी, रिंगा, गेंद पटा, बेजल्ला
गुलहर, पांडर रंग गंजीफा तुरही तीसन झंडा
थप्पो थइय्यां बहिआं
बइआं कर लरकइय्यां
आओ आओ खेलें भाई
हिलमिल रहस रचावैं भाई।’


बुंदेलखंड में बीते बचपन के वर्षों में जहां एक ओर नदियां, नदियों के तट पर उगाए गए तरबूज, ककड़ी और खरबूजों के ही साथ हरे चने के झाड़ और सरसों के पीले फूलों की याद है वहीं वर्षा की रातों में गाए जाने वाले आल्हा की पक्तियां भी अभी तक मन में बसी हैं, आल्हा-ऊदल, जिला हमीरपुर की महोबा तहसील में पैदा हुए थे। इन दोनों वीरों के चरित का वर्णन, कवि जगनिक ने किया है। जगनिक सही अर्थों में जनकवि थे। अब तो खैर कविता का गेय पक्ष उसकी दुर्बलता माना जाने लगा है मगर उन दिनों वर्षा की अंधेरी भींगी रातों में गांव-गांव ढोलक की थाप पर सारी-सारी रात आल्हा गाया जाता था। जिसकी एक-एक पंक्ति में गुंथी अतिशयोक्ति भी सिहरन पैदा करती थी-
‘बड़े लड़य्या महुबे वाले जिनकी मार सही न जाए।
एक के मारे दुई मरि जावैं तीसर खौफ खाय मरि जाए।’


दिन थे जब नदियों में जल हुआ करता था, मल नहीं, निर्मल जल, लगभग सभी सदानीरा होती थीं। वर्षा ऋतु में सारी की सारी अपने मटियाले परिधान में, अल्हड़, खिलखिलाती तरुणी सी हजार-हजार बांहें फैलाकर आवाज देती थीं –
आओ हमारे वक्ष पर संतरण करो।

बैसवारा क्षेत्र


मेरे पुरखों कां गांव पृथ्वी खेड़ा। इस क्षेत्र में एक के बाद एक गांवों में हिंदी के कई पुरोधा जन्मे। गढ़ाकोला में निराला, बारा में शिव मंगल सिंह सुमन, सजापुर में महावीर प्रसाद द्विवेदी, पास ही में डॉ. राम विलास शर्मा, खास उन्नाव में बाल गंगाधर त्रिपाठी आदि। हमारे गांव में अपने बाबा भगवान वाजपेयी का एक बड़ा-सा पक्का मकान है। बगल में उनके चचेरे भाई मनमोहन लाल वाजपेयी का हमारे घर के सामने एक पतली गली है। दूसरी तरफ ठाकुर शिव सागर काका, साथ ही लखपति सिंह का घर था। आसपास छितरे घरों में कहीं रतिराम दर्जी, कहीं मुल्लू धोबी। हम मुल्लू की जगह धुल्लू बुलाते। जो नाई हमारे घर तायाजी अमरनाथ वाजपेयी के केशकर्तरण के लिए आता उसका नाम शायद सरफोंका था। पीछे और आसपास फैले खेत थे। साथ ही आम का बाग, पृथ्वी खेड़ा के पास से होकर एक नहर बहती है। तायाजी के लड़के व हम दो मिलकर नहर में कई घंटों तक नहाते ही रहते। वहां हमारा एक खेल और चलता, कौन पानी के नीचे डूबकर कितनी देर में बाहर आएगा।

निर्णायक बनती रतिराम की बेटी, एक दिन जब हम नहर में डूबकर सांस साधे, देर तक डूबे रहने की कोशिश में थे तभी एकाएक बारिश होने लगी। किनारे रखे हमारे कपड़े भी भीग गए। हम सभी भीगे-भीगे घर आए और जमकर डांटे गए। तो भी वर्षा में खुले बदन नहाने की लत आज तक नहीं गई। बचपन की टेव जाती कहां है? बढ़ी हुई नदी में तैरने का अपना अभ्यास पुराना है। बेतवा, यमुना, गंगा, गोमती के ही साथ कावेरी में भी तैरा हूं। लखनऊ विश्वविद्यालय में जब दूसरा वर्ष शुरू ही हुआ था तब लखनऊ रेडियो ने जुलाई के अंत में एक कार्यक्रम वर्षा मंगल में काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया। वहां मैंने पावस गीत के नाम पर जो पंक्तियां पढ़ी थी, उनमें से कुछ पंक्तियां शायद यों थीं-
‘गगन महल के नरम कंगूरे पहल-पहल हैं टूटते
कि फूटते हैं कलश घनन घन रतन फुहारे छूटते।
भरा हुआ है संदेस सोंधा सनन-सनन के शोर में
कि बंध गए हैं धरा गगन फिर तरल लचीली डोर में।
सनेह के जल-तरंग पर धुन मल्हार फिर दोहरा लो तुम
झिमिर-झिमिर झिम बरस बदरिया रही कि कजली गालो तुम।’


हमारे पूरे देश में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं उन सभी के चुने हर कवियों की रचनाएं ‘इडेंस लिरिक इडाग’ नामक एक डेनिश संकलन में संग्रहीत है। डेनिश भाषावाली इस ऐंथॉलजी में हिंदी के अज्ञेय, रघुवीर सहाय, केदारनाथ, अजित कुमार, शमशेर, कैलाश वाजपेयी और प्रयाग त्रिपाठी आदि छह कवि हैं। वर्षों पूर्व जब मैं कोपनहेगन में नॉनइज्मिक पोएट्री विषय पर बोलने और काव्यपाठ के लिए आमंत्रित था तब कार्यक्रम के बाद मैंने अपनी दुभाषिनी (ऐनी) से आग्रह किया कि ‘मैं सॉदेन कीर्कगार्द की समाधि छूने जाना चाहता हूं।’ स्कैंडिनेविएन देशों में सफेद रातों की ऋतु आ चुकी थी। ऐनी मुझे लेकर चली। गेट पर गाड़ी छोड़कर हम जैसे ही कीर्कगार्द की कब्र की और चले वर्षा होने लगी मगर यह जल की वर्षा नहीं थी। रुई जैसे सफेद फाए गिर रहे थे। यह अनुभव विरल अनुभव था।

मैक्सिको जहां मैं तीन से अधिक वर्ष हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति का विजिटिंग प्रोफेसर होकर रहा, असल में भूकंपों की देश है। यहां भूकंप के झटके लगना आम बात है, दूसरी प्रमुख बात यह कि मैक्सिकों में हर शाम कोई पंद्रह मिनट से लेकर आधा घंटे तक हल्की, बहुत हल्की फुहार झरती हैं। कुश की नोक की सी यह फुहार भिगोती कम गुदगुदाती ज्यादा हैं। मैक्सिको अपनी माया संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। वैसे अगर पूरे लैटिन अमेरिका की बात की जाए तो यहां तीन संस्कृतियां पनपी। माया, आजतेक और इंका। जो कैलेंडर इन दिनों विशेष चर्चा में है उसे माया संस्कृति के पुरोहितों ने ही बनाया था। तीनों संस्कृति के अवशेष मैक्सिकों के जिस संग्रहालय में विधिवत सजाकर रखे हैं उसे ‘म्यूजियो दे एंथ्रोपोलोजिया’ नाम से जाना जाता है। मैक्सिको में क्योंकि वर्षा कुछ मिनटों के लिए ही होती है इसलिए इस कमी की भरपाई के लिए म्यूजियो दे एंथ्रोपोलोजिया के एक भाग में व्यवस्था कुछ यों की गई है जहां, वर्ष भर दिन-रात अहरह जल बरसता रहता है। म्यूजियम में घुसते ही धारासार होती वर्षा का स्वर तत्काल ध्यान आकर्षित करता है।

सन् 1996 में लंदन के नेहरू सेंटर में काव्यपाठ कर जब मैं कुछ दिन के लिए ऑक्सफोर्ड के निकट ऑक्शायर में रह रहा था। तभी ‘गांधी’ फिल्म की एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर रानी दुबे आईं और जिद करके अपने आवास सेवेन ओक्स में उठा ले गईं। वहां दो दिन न टिक पाया इसलिए कि ग्लासगो, स्कॉटलैंड की साहित्य-संस्था के कर्ताधर्ता श्री कौशल ने ग्लासगो आने का आमंत्रण टिकट सहित भेज दिया। ग्लासगो वहां का व्यापारी शहर है जबकि एडिनबरा वहां की राजधानी। पता चला कि एडिनबरा विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग में मेरा कोई सहपाठी ही प्रोफेसर है।

दूसरी सुबह मैं एक युवा साहित्य प्रेमी की कार में एडिनबरा के लिए निकल पड़ा। एडिनबरा वहां से बहुत दूर नहीं। रास्ते में एक जगह आती है बाथगेट जिसके उत्तर में कई पहाड़ हैं। यहीं कोई तीन साढ़े तीन हजार फुट ऊंचे, इस क्षेत्र में इतनी तेज वर्षा होती है कि पानी एक पतली सी नदी की धार बनकर बाथगेट की सड़क के ऊपर होकर जाने लगता है। वही हुआ, बाथगेट के पास डूबी सड़क पार करना दुस्तर हो गया। वहां हमें पानी बह जाने की प्रतीक्षा में तीन घंटों तक रुके रहना पड़ा। तो भी हम एडिनबरा विश्वविद्यालय के परिसर में चार बजते-बजते पहुंच ही गए।

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