नदियों के लिए जंगल होना जरूरी है। जंगल और पेड़ ही पानी को थामकर रखते थे। यहां की नदियां और झरने सदाबहार थे। साल भर उनमें पानी रहता था। लेकिन अब न पेड़ हैं और न ही नदी में पानी। नदियों में पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखने वाली रेत भी उठाई जा रही है। भूजल स्तर पहले ऊपर था, अब बहुत नीचे चला गया है। आधुनिक खेती, बांध, स्टॉपडेम, नलकूप खनन, बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण ने नदियों को खत्म कर दिया है। सतपुड़ा की बारहमासी सदानीरा नदियां अब धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं। इनमें से कई छोटी-बड़ी नदियां या तो सूख रही हैं या उनमें बहुत कम पानी बचा है। जो नदियां पहले साल भर अविरल बहती थीं, वे बरसाती नाला बनकर रह गई हैं। जिन में कभी पूरा आदमी डूब जाता था, उनमें डबरे भरे हुए हैं। जहां मछुआरे मछली पकड़ते थे, पशु-पक्षी पानी पीते थे, जनजीवन की चहल-पहल रहती थी, वहां आज रेत व सन्नाटा पसरा पड़ा है। नदी संस्कृति खत्म हो रही है। 70 बरस पार कर चुके सेवानिवृत्त शिक्षक फूलसिंह सिमोनिया सतपुड़ा अंचल को बहुत याद करते हैं। वे अपने शिक्षकीय कार्यकाल में अंचल के कई स्थानों में रहे और घूमे हैं। खंडवा, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा, सिवनी और बैतूल जिलों में रहे हैं। इस दौरान उन्हें सतपुड़ा को नजदीक से देखने का मौका मिला। वे कहते हैं कि यहां बहुत घना जंगल, नर्मदा और सदाबहार नदियां थीं। गोंड, कोरकू और भील आदिवासी यहां के बाशिंदे थे। शेर, तेंदुआ, हिरण और जंगली जानवर थे। लेकिन जंगल को जल्द ही नजर लग गई और इसके साथ ही नदियां भी छीजती चली गईं।
यहां के जंगलों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि यहां शेर हुआ करते थे। अंग्रेजों के जमाने में एक पुलिस कप्तान थे मिस्टर बोर्न। उन्होंने 99 शेर मारे थे। 100 वां शेर मारने का रिकार्ड बनाने की कोशिश कर ही रहे थे कि उन्हें शेर ने घायल कर दिया और उन्हें इंग्लैंड भागना पड़ा। सागौन, सतकठा, महुआ, कोसम, झिरिया, तेंदू, अचार, आम, बांस का जंगल था। इनके कटने का सिलसिला शुरू हुआ मालगुजारी खत्म होने के बाद। जंगल ठेके पर ले लिया और कोयला बना-बनाकर बेचने लगे। इसके के लिए यहां आराकश व आरा मशीनें लगीं और जंगल कटते चले गए। इसका कारण बड़े पैमाने पर सरकारी और गैर सरकारी निर्माण कार्यों का होना है।
लेकिन नदियों के लिए जंगल होना जरूरी है। जंगल और पेड़ ही पानी को थामकर रखते थे। यहां की नदियां और झरने सदाबहार थे। साल भर उनमें पानी रहता था। नरसिंहपुर, गोटेगांव, करेली में बहुत कुएं हुआ करते थे। नरसिंहपुर में झरने सदानीरा थे। पास ही कठौतिया गांव का उल्टा नरबा (नाला) में खूब पानी हुआ करता था। लेकिन अब वह सूख गया है और वहां खेती होने लगी है। भूजल स्तर पहले ऊपर था, अब बहुत नीचे चला गया है। इसी प्रकार करेली के पास खुलरी गांव में सुखचैन नदी है। उसमें साल भर डुबान पानी रहता था। अब पूरी सूख चुकी है। इन नदियों के किनारे घास-फूस व पेड़ पौधे होते थे। गोंदरा, बबूल, छींद व कुहा (अर्जुन) के वृक्ष हुआ करते थे। जिनसे नदी में पानी बना रहता था। लेकिन अब न पेड़ हैं और न ही नदी में पानी। नदियों के किनारे मवेशियों के लिए चरोखर की जमीन हुआ करती थी। वह भी नहीं बची है। खेती के लिए इस्तेमाल की जाने लगी है।
इनमें पानी की प्रचुरता और उपलब्धता क्यों रहती थी? इसके लिए हमें जमीन में ढलान, पेड़ और बारिश को समझना होगा। यहां की नदियों व झरनों में दोनों तरफ ढलान हैं। नदियों व झरनों के आसपास पानी है। इनमें में कई छोटे-बड़े नाले मिले हैं। जहां कच्छी (कछारी) मिट्टी होती है, चट्टानी जमीन आ जाती है। बारिश का पानी चट्टानों के कारण भेद कर नीचे नहीं जा पाता। वह पानी चट्टानों की ढाल की तरफ नीचे-नीचे बहने लगता है। निचले स्थानों में वह झरनों के रूप में पहुंचने लगता है। इस प्रकार नदी, तालाब व झरनों को जीवनदान देता है। यह झरने शरद ऋतु के बाद कभी भी देखे जाते हैं। मार्च-अप्रैल और कहीं-कहीं जून-जुलाई तक भी रहते हैं।
लेकिन अब इनकी दुर्दशा हो रही है। आधुनिक खेती, बांध, स्टॉपडेम, नलकूप खनन, बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण ने नदियों को खत्म कर दिया है। झरने तो सदानीरा थे, अब प्यासे हो गए हैं। कारण कि आसपास कॉलोनियां बन गई हैं। सबमर्सिबल पंप व जेट पंप द्वारा पानी उलीचा जा रहा है। भूमिगत जल को खींचा जा रहा है। जीवन उजाड़ और जमीन सुखाड़ हो रही है। नदियों में पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखने वाली रेत भी उठाई जा रही है। अब जलवायु बदलाव के कारण वैसी बारिश भी नहीं होती। हालांकि इस वर्ष अच्छी बारिश हुई है, लेकिन हर साल ऐसी नहीं होती।
नरसिंहपुर की सिंगरी नदी के बारे में सिमोनिया जी बताते हैं कि इसमें डुबान इतनी रहती थी कि पूरा आदमी डूब जाए। इसमें लोग पीने का पानी भरने आते थे। मवेशियों को पानी पिलाते थे। धोबी कपड़ा धोते थे। मछुआरे मछली मारते थे। महिलाएं दाल पकाने के लिए पानी ले जाती हैं। इसके पानी में जल्दी गल और पक जाती थी। नर्मदा में भी अब पानी कम है। अमरकंटक में विन्ध्याचल और सतपुड़ा के मिलन बिन्दु पर मैकल पर्वत है, वही नर्मदा का उद्गम स्थल है। सतपुड़ा की श्रृंखला यहां से शुरू होकर भारतीय प्रायद्वीप में पश्चिमी घाट तक विस्तृत है। सतपुड़ा का शाब्दिक अर्थ सात पहाड़ियां हैं। ये पहड़ियां हैं- महादेव, छातेर, डोरिया, टेक, बोरधा, राजाबोरारी और कालीभीत। पचमढ़ी को सतपुड़ा की रानी कहा जाता है। यहां महादेव की पहड़ियां हैं- महादेव,चौरागढ़, धूपगढ़। इसमें धूपगढ़ को सतपुड़ा की सबसे ऊंची चोटी होने का गौरव प्राप्त है।
एक कथा के अनुसार नर्मदा और सोन के विवाह की कहानी है, लेकिन नर्मदा ने इससे इंकार कर दिया। इसी प्रकार एक अन्य लोककथा में तवा और नर्मदा के विवाह की कथा भी आती है। लेकिन नर्मदा को यह मंजूर नहीं था। इस पर एक लोकगीत भी है। नर्मदा में दक्षिण से उत्तर की ओर बहने वाली नदियां सनेढ़, शेढ़, शक्कर, दुधी, तवा, गंजाल और अजनाल हैं, जो नर्मदा में सीधी मिलती हैं। इस क्षेत्र के अन्य प्रांतों में दूसरी नदियां हैं। इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर कटनी, बेरमा और बेबस नदियां हैं, सीधे नर्मदा में मिलती हैं। उसकी सहायक नदियां हैं।
नर्मदा के तट के किनारे छोटी-मोटी झाड़ियों, घास और पेड़ों से पानी रिसते हुए दिखलाई पड़ता है। इनके किनारे मछुआरे सब्जियां, फसलें, डंगरा-कलीदें (तरबूज खरबूज) लगाते हैं। कपासीय मिट्टी बहुत उपजाऊ हुआ करती है। परंपरागत फसलों में अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब आधुनिक खेतों में ज्यादा प्यासे संकर बीजों व बेजा कीटनाशकों के इस्तेमाल ने नदियों को नुकसान पहुंचाया है। शहरीकरण व औद्योगीकरण के कारण नदियां मैली होती जा रही हैं। कचरा, मल-मूत्र व उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों से पट गई हैं। जीवनदायिनी नदियां मर रही हैं। और जल्द ही इस दिशा में सोच-विचार नहीं किया गया तो यह स्थिति और बिगड़ती जाएगी।
यहां के जंगलों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि यहां शेर हुआ करते थे। अंग्रेजों के जमाने में एक पुलिस कप्तान थे मिस्टर बोर्न। उन्होंने 99 शेर मारे थे। 100 वां शेर मारने का रिकार्ड बनाने की कोशिश कर ही रहे थे कि उन्हें शेर ने घायल कर दिया और उन्हें इंग्लैंड भागना पड़ा। सागौन, सतकठा, महुआ, कोसम, झिरिया, तेंदू, अचार, आम, बांस का जंगल था। इनके कटने का सिलसिला शुरू हुआ मालगुजारी खत्म होने के बाद। जंगल ठेके पर ले लिया और कोयला बना-बनाकर बेचने लगे। इसके के लिए यहां आराकश व आरा मशीनें लगीं और जंगल कटते चले गए। इसका कारण बड़े पैमाने पर सरकारी और गैर सरकारी निर्माण कार्यों का होना है।
लेकिन नदियों के लिए जंगल होना जरूरी है। जंगल और पेड़ ही पानी को थामकर रखते थे। यहां की नदियां और झरने सदाबहार थे। साल भर उनमें पानी रहता था। नरसिंहपुर, गोटेगांव, करेली में बहुत कुएं हुआ करते थे। नरसिंहपुर में झरने सदानीरा थे। पास ही कठौतिया गांव का उल्टा नरबा (नाला) में खूब पानी हुआ करता था। लेकिन अब वह सूख गया है और वहां खेती होने लगी है। भूजल स्तर पहले ऊपर था, अब बहुत नीचे चला गया है। इसी प्रकार करेली के पास खुलरी गांव में सुखचैन नदी है। उसमें साल भर डुबान पानी रहता था। अब पूरी सूख चुकी है। इन नदियों के किनारे घास-फूस व पेड़ पौधे होते थे। गोंदरा, बबूल, छींद व कुहा (अर्जुन) के वृक्ष हुआ करते थे। जिनसे नदी में पानी बना रहता था। लेकिन अब न पेड़ हैं और न ही नदी में पानी। नदियों के किनारे मवेशियों के लिए चरोखर की जमीन हुआ करती थी। वह भी नहीं बची है। खेती के लिए इस्तेमाल की जाने लगी है।
इनमें पानी की प्रचुरता और उपलब्धता क्यों रहती थी? इसके लिए हमें जमीन में ढलान, पेड़ और बारिश को समझना होगा। यहां की नदियों व झरनों में दोनों तरफ ढलान हैं। नदियों व झरनों के आसपास पानी है। इनमें में कई छोटे-बड़े नाले मिले हैं। जहां कच्छी (कछारी) मिट्टी होती है, चट्टानी जमीन आ जाती है। बारिश का पानी चट्टानों के कारण भेद कर नीचे नहीं जा पाता। वह पानी चट्टानों की ढाल की तरफ नीचे-नीचे बहने लगता है। निचले स्थानों में वह झरनों के रूप में पहुंचने लगता है। इस प्रकार नदी, तालाब व झरनों को जीवनदान देता है। यह झरने शरद ऋतु के बाद कभी भी देखे जाते हैं। मार्च-अप्रैल और कहीं-कहीं जून-जुलाई तक भी रहते हैं।
लेकिन अब इनकी दुर्दशा हो रही है। आधुनिक खेती, बांध, स्टॉपडेम, नलकूप खनन, बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण ने नदियों को खत्म कर दिया है। झरने तो सदानीरा थे, अब प्यासे हो गए हैं। कारण कि आसपास कॉलोनियां बन गई हैं। सबमर्सिबल पंप व जेट पंप द्वारा पानी उलीचा जा रहा है। भूमिगत जल को खींचा जा रहा है। जीवन उजाड़ और जमीन सुखाड़ हो रही है। नदियों में पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखने वाली रेत भी उठाई जा रही है। अब जलवायु बदलाव के कारण वैसी बारिश भी नहीं होती। हालांकि इस वर्ष अच्छी बारिश हुई है, लेकिन हर साल ऐसी नहीं होती।
नरसिंहपुर की सिंगरी नदी के बारे में सिमोनिया जी बताते हैं कि इसमें डुबान इतनी रहती थी कि पूरा आदमी डूब जाए। इसमें लोग पीने का पानी भरने आते थे। मवेशियों को पानी पिलाते थे। धोबी कपड़ा धोते थे। मछुआरे मछली मारते थे। महिलाएं दाल पकाने के लिए पानी ले जाती हैं। इसके पानी में जल्दी गल और पक जाती थी। नर्मदा में भी अब पानी कम है। अमरकंटक में विन्ध्याचल और सतपुड़ा के मिलन बिन्दु पर मैकल पर्वत है, वही नर्मदा का उद्गम स्थल है। सतपुड़ा की श्रृंखला यहां से शुरू होकर भारतीय प्रायद्वीप में पश्चिमी घाट तक विस्तृत है। सतपुड़ा का शाब्दिक अर्थ सात पहाड़ियां हैं। ये पहड़ियां हैं- महादेव, छातेर, डोरिया, टेक, बोरधा, राजाबोरारी और कालीभीत। पचमढ़ी को सतपुड़ा की रानी कहा जाता है। यहां महादेव की पहड़ियां हैं- महादेव,चौरागढ़, धूपगढ़। इसमें धूपगढ़ को सतपुड़ा की सबसे ऊंची चोटी होने का गौरव प्राप्त है।
एक कथा के अनुसार नर्मदा और सोन के विवाह की कहानी है, लेकिन नर्मदा ने इससे इंकार कर दिया। इसी प्रकार एक अन्य लोककथा में तवा और नर्मदा के विवाह की कथा भी आती है। लेकिन नर्मदा को यह मंजूर नहीं था। इस पर एक लोकगीत भी है। नर्मदा में दक्षिण से उत्तर की ओर बहने वाली नदियां सनेढ़, शेढ़, शक्कर, दुधी, तवा, गंजाल और अजनाल हैं, जो नर्मदा में सीधी मिलती हैं। इस क्षेत्र के अन्य प्रांतों में दूसरी नदियां हैं। इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर कटनी, बेरमा और बेबस नदियां हैं, सीधे नर्मदा में मिलती हैं। उसकी सहायक नदियां हैं।
नर्मदा के तट के किनारे छोटी-मोटी झाड़ियों, घास और पेड़ों से पानी रिसते हुए दिखलाई पड़ता है। इनके किनारे मछुआरे सब्जियां, फसलें, डंगरा-कलीदें (तरबूज खरबूज) लगाते हैं। कपासीय मिट्टी बहुत उपजाऊ हुआ करती है। परंपरागत फसलों में अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब आधुनिक खेतों में ज्यादा प्यासे संकर बीजों व बेजा कीटनाशकों के इस्तेमाल ने नदियों को नुकसान पहुंचाया है। शहरीकरण व औद्योगीकरण के कारण नदियां मैली होती जा रही हैं। कचरा, मल-मूत्र व उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों से पट गई हैं। जीवनदायिनी नदियां मर रही हैं। और जल्द ही इस दिशा में सोच-विचार नहीं किया गया तो यह स्थिति और बिगड़ती जाएगी।
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