बारेला आदिवासी अपनी पंरपरागत दिनचर्या से दूर होकर वर्तमान समय के साथ तालमेल भी नहीं बैठा पाए हैं। पहले जंगलों पर आश्रित रहने वाला यह समुदाय कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसलों को उत्पादन करता था। जिसमें प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व होते थे। इसके अलावा कई प्रकार के कंद भी इनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे। पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद समुदाय स्वास्थ्य का अच्छा जानकार था। इसके अलावा वे पर्यावरण को लेकर भी जागरूक थे। लेकिन वनों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद आदिवासियों को जंगलों से दूर होना पड़ा। मध्य प्रदेश सरकार आदिवासी अंचलों में बारेला समुदाय के लोगों की पोषण की सुरक्षा और कुपोषण को दूर करने के लाख दावे करे, मगर जमीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है। यहां आदिवासी समुदाय के लोगों को आज भी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
बरसों पहले परंपरागत आदिवासी जीवन जीने वाला यह समुदाय आज पेट भरने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय स्तर पर रोजगार के अवसर सीमित होना, कम खेती और उपजाऊ जमीन का न होना, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान फसलों को क्षति पहुंचना, आजीविका का अन्य जरिया न होना और मोटे अनाज वाली फसलों का उत्पादन कम होना जैसी समस्याएं समुदाय के लोगों के लिए संतुलित पोषण में बाधा बन रही है।
इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जन्म लेने वाले अनेक बच्चे कम वजन के पैदा हो रहे हैं। ऐसी स्थितियां यहां पहले नहीं थीं। इसकी वजह इनकी जीवनशैली थी। वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा ऐसे आदिवासी परिवारों को जागरूक करने और कुपोषण दूर करने के लिए कई योजनाएं भी आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से संचालित है, लेकिन जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदाय को इसका सीधा लाभ नहीं मिल रहा है।
हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया, जामन्या खुर्द, कालाकहूं, आर्या, गेनाढ़ाना आदि इलाकों में सुपोषण के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनवाड़ी केंद्र तो संचालित है, लेकिन इनका लाभ यहां के आदिवासी परिवारों को नहीं मिल रहा है। अगर हम ग्राम डाबिया और आर्या की बात करें तो यहां करीब डेढ़ साल से आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से बच्चों को न तो नाश्ता मिल रहा है और न ही भोजन। वहीं, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार के रूप में मिलने वाला दलिया भी महीने में एक पैकेट ही मिल पा रहा है, जबकि नियमानुसार प्रत्येक सप्ताह एक पैकेट दिया जाने का प्रावधान है।
अंचल में बारेला आदिवासी समुदाय के लोग खेतों के आसपास मकान बनाकर रहते हैं। कुछ इसी तरह के हालात गेनाढ़ाना के हैं। यहां नबंवर से अब तक आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चों को न तो नाश्ता मिला और न ही भोजन।
बारेला आदिवासी अपनी पंरपरागत दिनचर्या से दूर होकर वर्तमान समय के साथ तालमेल भी नहीं बैठा पाए हैं। पहले जंगलों पर आश्रित रहने वाला यह समुदाय कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसलों को उत्पादन करता था। जिसमें प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व होते थे। इसके अलावा कई प्रकार के कंद भी इनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे।
पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद समुदाय स्वास्थ्य का अच्छा जानकार था। इसके अलावा वे पर्यावरण को लेकर भी जागरूक थे। लेकिन वनों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद आदिवासियों को जंगलों से दूर होना पड़ा। परंपरागत औषधियों और पोषण देने वाली चीजें भी उनसे दूर होती चली गई है। सीमांत खेती और आजीविका का जरिया नहीं होने के कारण अब उन्हें पेट भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में गर्भवती महिलाओं को पोषण देने वाली परंपरागत चीजों के उपलब्ध नहीं होने पर इसका सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है और कम वजन, खून की कमी जैसी परेशानियां सामने आ रही हैं।
आंगनवाड़ी केंद्र डाबिया में आदिवासी समुदाय के 126 बच्चे दर्ज हैं। इनमें बारेला समुदाय के शून्य से दो माह 11 दिन तक के 39 बालक और 35 बालिका शामिल है। वहीं, तीन माह से पांच माह ग्यारह दिन तक के 26 बालक और 26 बालिका हैं। इनमें पूरे गांव में आदिवासी समुदाय के कम वजन और कुपोषित बच्चों की संख्या आठ है। इसमें ग्रेड-4 में शामिल बच्चों की स्थिति कम वजन के रूप में दर्शाई गई है। वहीं सी में कुषोषित श्रेणी के बच्चों को दर्शाया गया है। इनमें से कुछ बच्चों का इलाज एनआरसी केंद्र में चल रहा है।
आदिवासी अंचल डाबिया में कुपोषण की ऐसी स्थिति होने के बाद भी यहां अब तक न तो सुपोषण केंद्र और न ही स्नेह शिविर खोलने की योजना बन पाई है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पोषण की अधिक जरूरत होती है। इसलिए आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से पोषण आहार बांटने की योजना भी शासन स्तर पर है, लेकिन जिला मुख्यालय के अफसरों की अनदेखी और तहसील स्तर पर जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही से महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित योजनाएं ठप हैं।
आदिवासियों का कहना है कि इस मामले की शिकायत यहां के अफसरों से भी कर चुके हैं बावजूद इसके अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। ग्राम आर्या की फुलवती बाई का कहना है कि आंगनवाड़ी केंद्र की निगरानी और संचालन के लिए पंचायत स्तर पर सुपरवाइजर को नियुक्त किया गया है, लेकिन यहां करीब छह महीने से किसी ने भी निरीक्षण नहीं किया।
हितग्राही महिलाओं ने कहा कि नियमानुसार आंगनवाड़ी केंद्र पर प्रत्येक मंगलवार को मंगल दिवस मनाने का शासन का आदेश है। इसके लिए 50 रुपए का भुगतान भी महिलाओं को किया जाता है। पहले मंगलवार गोद भराई, दूसरे मंगलवार अन्नप्राशन, तीसरे मंगलवार जन्मदिवस और चौथे मंगलवार को किशोरी दिवस मानने के निर्देश हैं। यहां के अधिकांश आदिवासी बारेला समुदाय के अधिकांश लोगों को इन दिवसों की न तो जानकारी है और न ही आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से इन्हें जागरूक किया जाता है। आर्या के ही गंगाराम ने कहा कि केंद्र के लिए यहां शासन ने नवीन भवन का निर्माण तो करा दिया, लेकिन यहां एक दिन भी कक्षाएं नहीं लगीं। रखरखाव नहीं होने से भवन के दरवाजे और खिड़किया भी टूट गए हैं।
कुल मिलाकर आदिवासी अंचल के गांवों की उपेक्षा से यहां के पारंपरिक जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मंगलवार को मंगल दिवस बना देने भर से स्थितियां सुधर नहीं सकतीं। आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों की परंपरागत भोजन शैली को उन्हें पुनः उपलब्ध करवाया जाए, बजाए इसके कि वे पांच सितारा होटल की सर्वाधिक आकर्षक प्रस्तुति बनकर रह जाएं।
बरसों पहले परंपरागत आदिवासी जीवन जीने वाला यह समुदाय आज पेट भरने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय स्तर पर रोजगार के अवसर सीमित होना, कम खेती और उपजाऊ जमीन का न होना, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान फसलों को क्षति पहुंचना, आजीविका का अन्य जरिया न होना और मोटे अनाज वाली फसलों का उत्पादन कम होना जैसी समस्याएं समुदाय के लोगों के लिए संतुलित पोषण में बाधा बन रही है।
इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जन्म लेने वाले अनेक बच्चे कम वजन के पैदा हो रहे हैं। ऐसी स्थितियां यहां पहले नहीं थीं। इसकी वजह इनकी जीवनशैली थी। वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा ऐसे आदिवासी परिवारों को जागरूक करने और कुपोषण दूर करने के लिए कई योजनाएं भी आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से संचालित है, लेकिन जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदाय को इसका सीधा लाभ नहीं मिल रहा है।
हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया, जामन्या खुर्द, कालाकहूं, आर्या, गेनाढ़ाना आदि इलाकों में सुपोषण के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनवाड़ी केंद्र तो संचालित है, लेकिन इनका लाभ यहां के आदिवासी परिवारों को नहीं मिल रहा है। अगर हम ग्राम डाबिया और आर्या की बात करें तो यहां करीब डेढ़ साल से आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से बच्चों को न तो नाश्ता मिल रहा है और न ही भोजन। वहीं, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार के रूप में मिलने वाला दलिया भी महीने में एक पैकेट ही मिल पा रहा है, जबकि नियमानुसार प्रत्येक सप्ताह एक पैकेट दिया जाने का प्रावधान है।
अंचल में बारेला आदिवासी समुदाय के लोग खेतों के आसपास मकान बनाकर रहते हैं। कुछ इसी तरह के हालात गेनाढ़ाना के हैं। यहां नबंवर से अब तक आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चों को न तो नाश्ता मिला और न ही भोजन।
बारेला आदिवासी अपनी पंरपरागत दिनचर्या से दूर होकर वर्तमान समय के साथ तालमेल भी नहीं बैठा पाए हैं। पहले जंगलों पर आश्रित रहने वाला यह समुदाय कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसलों को उत्पादन करता था। जिसमें प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व होते थे। इसके अलावा कई प्रकार के कंद भी इनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे।
पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद समुदाय स्वास्थ्य का अच्छा जानकार था। इसके अलावा वे पर्यावरण को लेकर भी जागरूक थे। लेकिन वनों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद आदिवासियों को जंगलों से दूर होना पड़ा। परंपरागत औषधियों और पोषण देने वाली चीजें भी उनसे दूर होती चली गई है। सीमांत खेती और आजीविका का जरिया नहीं होने के कारण अब उन्हें पेट भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में गर्भवती महिलाओं को पोषण देने वाली परंपरागत चीजों के उपलब्ध नहीं होने पर इसका सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है और कम वजन, खून की कमी जैसी परेशानियां सामने आ रही हैं।
आंगनवाड़ी केंद्र डाबिया में आदिवासी समुदाय के 126 बच्चे दर्ज हैं। इनमें बारेला समुदाय के शून्य से दो माह 11 दिन तक के 39 बालक और 35 बालिका शामिल है। वहीं, तीन माह से पांच माह ग्यारह दिन तक के 26 बालक और 26 बालिका हैं। इनमें पूरे गांव में आदिवासी समुदाय के कम वजन और कुपोषित बच्चों की संख्या आठ है। इसमें ग्रेड-4 में शामिल बच्चों की स्थिति कम वजन के रूप में दर्शाई गई है। वहीं सी में कुषोषित श्रेणी के बच्चों को दर्शाया गया है। इनमें से कुछ बच्चों का इलाज एनआरसी केंद्र में चल रहा है।
आदिवासी अंचल डाबिया में कुपोषण की ऐसी स्थिति होने के बाद भी यहां अब तक न तो सुपोषण केंद्र और न ही स्नेह शिविर खोलने की योजना बन पाई है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पोषण की अधिक जरूरत होती है। इसलिए आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से पोषण आहार बांटने की योजना भी शासन स्तर पर है, लेकिन जिला मुख्यालय के अफसरों की अनदेखी और तहसील स्तर पर जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही से महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित योजनाएं ठप हैं।
आदिवासियों का कहना है कि इस मामले की शिकायत यहां के अफसरों से भी कर चुके हैं बावजूद इसके अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। ग्राम आर्या की फुलवती बाई का कहना है कि आंगनवाड़ी केंद्र की निगरानी और संचालन के लिए पंचायत स्तर पर सुपरवाइजर को नियुक्त किया गया है, लेकिन यहां करीब छह महीने से किसी ने भी निरीक्षण नहीं किया।
हितग्राही महिलाओं ने कहा कि नियमानुसार आंगनवाड़ी केंद्र पर प्रत्येक मंगलवार को मंगल दिवस मनाने का शासन का आदेश है। इसके लिए 50 रुपए का भुगतान भी महिलाओं को किया जाता है। पहले मंगलवार गोद भराई, दूसरे मंगलवार अन्नप्राशन, तीसरे मंगलवार जन्मदिवस और चौथे मंगलवार को किशोरी दिवस मानने के निर्देश हैं। यहां के अधिकांश आदिवासी बारेला समुदाय के अधिकांश लोगों को इन दिवसों की न तो जानकारी है और न ही आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से इन्हें जागरूक किया जाता है। आर्या के ही गंगाराम ने कहा कि केंद्र के लिए यहां शासन ने नवीन भवन का निर्माण तो करा दिया, लेकिन यहां एक दिन भी कक्षाएं नहीं लगीं। रखरखाव नहीं होने से भवन के दरवाजे और खिड़किया भी टूट गए हैं।
कुल मिलाकर आदिवासी अंचल के गांवों की उपेक्षा से यहां के पारंपरिक जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मंगलवार को मंगल दिवस बना देने भर से स्थितियां सुधर नहीं सकतीं। आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों की परंपरागत भोजन शैली को उन्हें पुनः उपलब्ध करवाया जाए, बजाए इसके कि वे पांच सितारा होटल की सर्वाधिक आकर्षक प्रस्तुति बनकर रह जाएं।
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