व्यर्थ हो रहा है प्रकृति का उपहार

वर्षा-जल प्रबंधन में ताल-तलैयों की अनदेखी ने इस स्थिति को और बदतर बनाया है
- प्रताप सोमवंशी

प्रकृति जब नाराज होती है, तो उसके कोप से जूझने की हमारी तैयारी अकसर कम पड़ जाती है। बाढ़, सूखा और अकाल इसी की परिणति हैं। दूसरी तरफ, प्रकृति जब कुछ देना चाहती है, तो हमारे पात्र छोटे पड़ जाते हैं और हम उस उपहार को समेट नहीं पाते। इस साल अपेक्षा से कई गुना बेहतर बारिश प्रकृति का पृथ्वी के लिए एक उपहार बनकर आई है। लेकिन इसकी नियति भाप बनकर उड़ जाने या समुद्र में मिल जाने की है। इस पानी से खेती के नुकसान की तुलना में फायदे का प्रतिशत कम बैठ रहा है। हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और संरक्षण कैसे करें, इस पर हमारी उलझाऊ नीतियों की मुश्किलें एक बार फिर हमारे सामने हैं।

अगस्त के तीसरे सप्ताह तक अधिकतम 1,330 मिलीमीटर तक बारिश हो चुकी है। शेष मौसम में और 300 मिलीमीटर से अधिक बारिश की संभावना है। विशेषज्ञों का अनुमान था कि पूरे सीजन में 800 मिलीमीटर बारिश होगी। वर्ष 2006 और 2007 में 600 मिलीमीटर की औसत बारिश को देखते हुए इस साल बारिश की संभावना बेहतर बताई जा रही थी। दशकों बाद खुलकर बरसे पानी का सुख बांटने के लिए मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में तो विधिवत दीपावली मनाई गई। यह इलाका बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश का हिस्सा है, जहां सूखे के कारण किसानों की आत्महत्या की लगातार खबरें आ रही थीं।

देश के सबसे तबाह इलाके बुंदेलखंड में पिछले साल के 372 मिलीमीटर की जगह इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हुई है। यह पिछले दो दशकों का कीर्तिमान है। लेकिन बारिश संबंधी इन सूचनाओं को हम खुशखबरी की तरह नहीं ले सकते, क्योंकि जल प्रबंधन के दक्ष जनों के अनुसार हम सिर्फ 10 फीसदी जल का उपयोग ही कर पाएंगे। विकास के नाम पर सड़कें और इमारतें बनाते समय हम पानी के आने-जाने के रास्ते बंद करते जा रहे हैं। अव्वल तो तालाब बचे नहीं, और जो हैं, उनमें पानी के पहुंचने के मार्ग में तरह-तरह की बाधाएं खड़ी हो चुकी हैं। गुजरे दशकों में पानी को बचाने के जो सरकारी इंतजाम किए गए, उनमें पैसा तो पानी की तरह बहाया गया, नतीजा कुछ बूंदों को बटोरने भर रहा।

बुंदेलखंड जिले के जालौन क्षेत्र में 400 बंधिया बनाई गई थीं। इनमें से आधी से ज्यादा तबाह स्थिति में हैं या फिर बनी ही नहीं। ललितपुर जिले में तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। तीन बरस पहले भी इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर तीन-तीन करोड़ रुपये भुगतान किए जाने के मामले ने जब तूल पकड़ा, तो जांच बिठाई गई। तकनीकी जांच समिति द्वारा सत्यापित होने के बाद संबंधित दोषियों को जेल भेजा गया। इन उदाहरणों को बताने का मकसद यह है कि सूखा जहां बजट को सोखने का जरिया बनता है, वहीं बारिश भ्रष्टाचार को विशाल समुद्र बना देती है। नेशनल एग्रीकल्चर फाउंडेशन के एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2020 तक सिंचाई-व्यवस्था के नाम पर 6,000 करोड़ रुपये डीजल की भेंट चढ़ जाएंगे। कहा जा रहा है कि पेट्रोल के बाद अब पानी के सवाल पर विश्व राजनीति संचालित होगी। एक जुमला यह भी चर्चा में है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा।

उत्तर प्रदेश में हर साल पानी 70 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। राजधानी दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्रों में भूजल का स्तर 50 से 150 सेंटीमीटर तक नीचे चला गया है। हालत यह है कि 1960 में दिल्ली में 10 से 20 मीटर नीचे तक पानी मिल जाता था, अब 45 से 55 मीटर नीचे की गहराई में पानी तलाशना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के 36 जिले गिरते भूजल-स्तर के मामले में चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुके हैं।

विकास के नए तौर-तरीकों में पानी के इस्तेमाल के बीच हम यह भूलते जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में पानी आएगा कहां से। लगातार हैंडपंप पर हैंडपंप लगाते जाने से तात्कालिक समस्या तो दूर हो जाएगी, लेकिन इसी रास्ते भूजल स्तर के और नीचे चले जाने की एक बड़ी तबाही भी हमारे सामने आती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में धरती फटने की लगातार घट रही घटनाएं हमारे इसी प्रकृति दोहन का कुफल हैं। आजादी के बाद भूमि व्यवस्था नियोजन के लिए चकबंदी की शुरुआत जब से हुई, उसी समय से यह संकट और बड़ा होता गया। देश के जिन इलाकों में चकबंदी हुई है, वहां के तमाम क्षेत्रों में एक साझा विसंगति पाई गई है कि कई सौ बरस पुराने छोटे बांध तोड़ दिए गए। बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले में छह किलोमीटर लंबी बंधियों की एक समृद्ध श्रृंृखला इसी कारण टूट गई। इन बंधियों के कारण लगभग 900 बीघा जमीन की सिंचाई हो जाती थी। इस समय वह सारा पानी उतरकर नालों में चला जाता है। यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसे आप देश में कहीं भी, किसी भी गांव के किसान से पूछेंगे, तो वह इससे मिलते-जुलते दर्जन भर प्रसंग गिना देगा।

इसी तरह, भूमि सुधार के सवाल पर भूमिहीनों को पट्टे पर जो जमीनें दी गईं, उनमें भी एक लोचा हो गया। यह देखा ही नहीं गया कि किस गांव में किस खाली जमीन का क्या इस्तेमाल था। परिणामस्वरूप, गांव में तालाबों तक पानी पहुंचने के लिए जो उतार के क्षेत्र थे, उन्हें बिना सोचे-समझे पट्टे पर दे दिया गया। लोगों ने बाउंड्री या बंधी बनाकर जमीन घेर ली। जाहिर है, इस वजह से तालाब अपनी मौत मर गए। ऐसे में, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से जिन पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार हो रहा है, उनमें खुदाई के बाद पानी पहुंच भी सकेगा, इसकी गारंटी नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि तालाबों को पुनर्जीवित करने से पहले यह देख लिया जाए कि पट्टे और अतिक्रमण की स्थिति क्या है।

पुराने समय में देश के जिस हिस्से में पानी की जितनी दिक्कत थी, वर्षा जल संचयन का वहां उतना ही पुख्ता इंतजाम होता था। इसीलिए देश के हर इलाके में पानी के संचयन और सदुपयोग की एक से एक बेहतरीन स्थानीय व्यवस्थाएं रही हैं। पहले जितने धार्मिक, सामाजिक स्थान विकसित किए गए, सब जगह तालाब या बड़े कुंड का निर्माण कराया गया। लेकिन यांत्रिक गति से बढ़ी विकास की रफ्तार ने प्रकृति से लेने के लिए तो हजार तर्क बना लिए, लेकिन उसे लौटाने की व्यवस्था न तो सामाजिक स्तर पर, और न ही सरकारी तौर पर प्रभावी हो पाई। इस साल की बेहतर बारिश पर हम खुशी मना सकते हैं, लेकिन इस बात पर कोई गौर नहीं कर रहा कि अगले कुछ साल अगर अपर्याप्त बारिश हुई, तो फिर क्या होगा?

(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

साभार – अमर उजाला

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