वर्षा आधारित कृषि की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका

वर्षा आधारित कृषि की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका,फोटो क्रेडिट--IWP Flicker
वर्षा आधारित कृषि की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका,फोटो क्रेडिट--IWP Flicker

परिचय

वर्ष 2013-14 के दौरान भारत में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान (2004-05 मूल्यों के अनुसार) लगभग 14 प्रतिशत था। यद्यपि उद्योग जगत और सेवा क्षेत्र की अपेक्षा में यह योगदान कम है, परंतु यह विकास का आधार स्तंभ है। कुल श्रमिक शक्ति का लगभग 52 प्रतिशत भाग जीविका के लिए फार्म सेक्टर से रोजगार प्राप्त करता है एवं सामान्य भारतीय अपने कुल व्यय का लगभग आधा भाग खाद्यान्न पर खर्च करता है। कृषि संबंधी जनगणना 2010-11 के अनुसार देश में परिचालन जोत कुल 138.35 मिलियन है और परिचालन जोत की औसत आमाप संख्या 1.15 हेक्टेयर है छोटी एवं सीमांत जोत का योगदान 85.01 प्रतिशत हैं और वर्ष 2010-11 में परिचालित क्षेत्र 44.58 प्रतिशत था। भारत में कृषि क्षेत्र को अधिक महत्ता प्राप्त है चूंकि निम्न आय एवं कमजोर वर्ग के अधिकांश भाग की जीविका के साथ-साथ यह खाद्यान्न सुरक्षा का भी स्रोत है। कृषि में वृद्धि, ग्रामीण गरीबी को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। चूंकि कृषि कई कृषि आधारित उद्योगों एवं कृषि सेवाओं के लिए आधार स्रोत है, अतः इसे केवल खेती के रूप में ही नहीं बल्कि व्यापक मूल्य श्रृंखला के रूप में भी देखा जाना चाहिए जिसमें खेती, थोक व्यापार, भंडारण (लाजिस्टिक्स सहित), प्रसंस्करण एवं खुदरा विक्री शामिल है। पिछली दो पंचवर्षीय योजनाओं में देखा गया है कि अर्थव्यवस्था में 9 प्रतिशत की दर से विकास करने हेतु कृषि क्षेत्र में कम से कम 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि आवश्यक है।

खाद्य उत्पादन एवं सुरक्षा

चीन और अमेरिका के बाद भारत में अधिकतम अनाज का उत्पादन होता है। महत्वपूर्ण अनाजों के क्षेत्र में चावल और गेहूं के उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर और दलहनों के उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। भारत दुग्ध उत्पादन में प्रथम स्थान पर और मूंगफली, सब्जियों, फलों, गन्ना एवं कपास उत्पादन में द्वितीय स्थान पर है। वर्ष 2014-15 के दौरान भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन 252.02 मिलियन टन आंका गया है। सूखा वर्ष होने के बावजूद भी देश ने 250 मिलियन टन का आंकड़ा पार कर लिया है। दलहनों एवं तिलहनों का उत्पादन क्रमशः 17.15 एवं 27.51 मिलियन टन आंका गया है। इन्हीं वर्षों में देश में चावल का उत्पादन 105.48 मिलियन टन था, जो सूखा वर्ष होने के बावजूद पिछले वर्ष की तुलना में केवल 1.17 मिलियन टन कम था। गेहूं का उत्पादन 86.53 मिलियन टन था। मोटे अनाज का उत्पादन 42.86 मिलियन टन था जो कि पिछले वर्ष के उत्पादन के करीब है। इसी प्रकार 2013-14 के उत्पादन की तुलना में वर्ष 2014-15 के दौरान दूध, अंडे और ऊन के उत्पादन में क्रमश: 6.25. 4.95 और 0.42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 

भारत में लगभग 100 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र से खाद्यान्न उत्पादन वर्ष 1950 में 60 मिलियन टन था तथा उत्पादकता बहुत ही कम (500-600 किलोग्राम / हेक्टेयर) थी। देश की आबादी के भरण पोषण हेतु हमें आवश्यक खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। हरित क्रांति से तत्कालीन उत्पादन 80 मिलियन टन होने से लगभग 25 प्रतिशत का उछाल आया और 1970 के दशक के प्रारंभ में अन्न उत्पादकता 800-900 किलोग्राम / हेक्टेयर हुआ। दूसरी ओर भारत की आबादी वर्ष 1951 में 36 करोड़ थी जो कि 1971 में बढ़कर 55 करोड़ हो गई। वर्ष 1970 के बाद खाद्यान्न फसलों के क्षेत्रफल में स्थिरता (120-125 मिलियन हेक्टेयर) आई। परंतु उत्पादन, 1970 के दशक के 100 मिलियन टन से बढ़कर वर्तमान दशक में 250 मिलियन टन हो गया है। प्रौद्योगिकी विकास, सिंचाई क्षमताओं के सृजन, प्रोत्साहन देने वाली सार्वजनिक नीतियों को इस चमत्कारिक वृद्धि का श्रेय दिया जा सकता है देश का स्तर भीख का कटोरा' से हटकर अनेक प्रमुख फसलों के मामलों में उत्पादन और क्षेत्रफल के संदर्भ में विश्व के प्रथम एवं द्वितीय स्थान तक पहुंच गया है और देश ने खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भरता प्राप्त कर ली है एवं जनसंख्या की आवश्यकताओं के अनुसार अब देश भरपूर अनाज के स्टॉक का रख-रखाव करता है। 

देश की आबादी वर्ष 1951 में 36 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2011 में 121 करोड़ हो गई है। खाद्यान्न उत्पादन के साथ-साथ देश की आबादी में आई वृद्धि की तुलना के लिए प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन पर विचार किया जाता है। भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन वर्ष 1950-51 के 141 किलोग्राम प्रति वर्ष से बढकर वर्ष 2010-11 में 202 किलोग्राम प्रति वर्ष हो गया है। भारत में खाद्यान्न उत्पादन अधिकांशतः मानसून पर निर्भर है। हाल के रुझानों से दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के वर्षपात की अस्थिरता में लचीलेपन के संकेत मिलते हैं। 

भविष्य में खाद्यान्न की मांग

 घरेलू स्तर पर उपभोक्ता पद्धतियों की दीर्घकालिक प्रवृत्तियां यह दर्शाती हैं कि प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग घट रहा है और पशुधन उत्पाद, फल और सब्जियों की खपत लंबे समय से बढ़ रही है। इस बदलाव के बावजूद खाद्यान्न, परिवारों की खाद्य एवं पौषणिक सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अनाज एवं दलहन यहां का प्रमुख खाद्यान्न हैं और निम्न आय वर्ग की मानव आबादी हेतु ऊर्जा और प्रोटीन का सस्ता स्रोत भी है। इसके साथ ही साथ पशु उत्पाद की बढ़ती मांग के कारण पशुधन खाद्यान्न की आवश्यकता भी बढ़ रही है। इनके उत्पादन के प्रति किसी प्रकार की उदासीनता से कीमतों में वृद्धि और आम जनता की पौषणिकता स्तर में गिरावट हो सकती है।  

 खाद्यान्नों के उपभोग का स्वरूप, जो पौषणिक अंतर्ग्रहण क्षमता में योगदान देता है, घट रहा है, आधार वर्ष 2000 में 64 प्रतिशत था, जो घटकर वर्ष 2025 एवं 2050 के दौरान क्रमशः 57 और 48 प्रतिशत हो जाएगा। गैर-खाद्यान्न फसलों का योगदान वर्ष 2000 में 28 प्रतिशत था जो 2025 और 2050 में बढ़कर क्रमश: 33 और 36 प्रतिशत होने का अनुमान है। अन्य पशु उत्पादों का योगदान वर्ष 2000 के दौरान 8 प्रतिशत था, जिसके 2025 एवं 2050 के दौरान बढ़कर क्रमशः 12 प्रतिशत एवं 16 प्रतिशत होने की संभावना है। इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2025 में खाद्यान्नों की मांग 291 मिलियन टन और वर्ष 2050 में 377 मिलियन टन आंकी गई है जबकि वर्ष 2025 तक कुल उत्पादन 292 मिलियन टन और वर्ष 2050 तक 385 मिलियन टन आंका गया है जो कि मांग से 2 प्रतिशत अधिक है। अन्य अनाजों और दलहनों में कमी क्रमशः वर्ष 2025 में 33 और 3 प्रतिशत तथा वर्ष 2050 में 43 एवं 7 प्रतिशत आंकी गई है।

एक अन्य अध्ययन में यह देखा गया कि भारत में खाद्य उपभोग का स्तर वर्तमान दर 2400 किलो कैलरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से बढ़कर वर्ष 2050 में 3000 किलो कैलरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन हो जाएगा। वर्षा आधारित फसलों की उपज बढ़कर वर्ष 2030 में 1.8 टन प्रति हेक्टेयर तथा वर्ष 2050 में 2.0 टन प्रति हेक्टेयर हो जाएगी। इसी अवधि के दौरान सिंचित क्षेत्रों से अनाज की उपज में 3.5 से 4.6 टन प्रति हेक्टेयर की बढ़ोतरी आंकी गई है। भारत में अनाज उत्पादन का आकलन इस प्रकार है कि वर्ष 1999-2000 से वर्ष 2050 के दौरान प्रतिवर्ष 0.9 प्रतिशत की वृद्धि होगी और आशा की जाती है कि आकलित वृद्धि 0.9 प्रतिशत होने के बावजूद वर्ष 2050 तक उत्पादन मांग से अधिक हो जाएगी। विभिन्न अध्ययनों पर आधारित खाद्यान्न मांग के आकलन संबंधी आंकड़े सारणी-1 में दर्शाए गए हैं।

सारणी-1: देश में खाद्य मांग का आकलन (विभिन्न अध्ययनों के आधार पर)

सारणी-1 देश में खाद्य मांग का आकलन (विभिन्न अध्ययनों के आधार पर)
स्रोत: श्रीनिवास राव एवं अन्य (2016)

वर्षा आधारित कृषि की भूमिका

विश्व की कृषि भूमि के 80 प्रतिशत भाग पर वर्षा आधारित कृषि की जाती है और इस क्षेत्र से विश्व के मुख्य खाद्य पदार्थों का लगभग 70 प्रतिशत उत्पादन होता है जिनमें विकासशील एवं कम इष्ट क्षेत्रों के समुदाय के खाद्यान्न सम्मिलित है। भारतीय कृषि में वर्षा आधारित कृषि की बहुलता है। 50 प्रतिशत से अधिक कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है। वर्षा आधारित कृषि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन क्षेत्रों में भारत की 40 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लगभग 72 प्रतिशत ग्रामीण आबादी में से इस क्षेत्र में 81 प्रतिशत ग्रामीण गरीब जनता बसती है। यह क्षेत्र वर्तमान समय में 40 प्रतिशत खाद्यान्न का उत्पादन करता है और दो तिहाई पशुधन को सहायता देता है। संपूर्ण सुविधाएं प्राप्त कर लेने के पश्चात भी भारत का 40 प्रतिशत बुवाई क्षेत्र वर्षा आधारित क्षेत्र के रूप में रह जाएगा। अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान के लिए वर्षा आधारित कृषि का निष्पादन महत्वपूर्ण है। वास्तव में वर्षा आधारित कृषि का महत्व वृद्धि, समान हिस्सेदारी और निरंतरता के कारण है। भारत क्षेत्रफल ( 73 मिलियन हेक्टेयर) और उत्पादन के मूल्य के संदर्भ में उन देशों में शीर्ष स्थान पर है जहां वर्षा आधारित कृषि की जाती है। भूमि और श्रमिकों की कम उत्पादकता के कारण वर्षा आधारित क्षेत्र में गरीबी अधिक होती है।

वर्षा आधारित क्षेत्रों का वर्गीकरण एवं विशेषताएं

वह कृषि भूमि जहां बुवाई सिंचाई के बिना या भूजल सहित बहुत ही कम सिंचाई से की जाती है वह क्षेत्र वर्षा आधारित क्षेत्र कहलाता है। उच्च वर्षपात वाले वर्षा आधारित क्षेत्र (जैसे असम, मेघालय, केरल में सिंचाई की आवश्यकता बहुत ही कम होती है। दूसरी ओर जहां वर्षपात कम होती है वहां नमी की कमी और उच्च क्षमता वाली वाष्पन उत्सर्जन की मांग (पीईटी) अधिक होती है। इनके कारण वर्षा आधारित क्षेत्रों को उस क्षेत्र में मौजूद नमी के दबाव के आधार पर दो वर्गों अर्थात् वर्षा आधारित क्षेत्र और वर्षा आधारित आर्द्र क्षेत्र में बांटा गया है। उन क्षेत्रों को जहां अवक्षेपण पीईटी मांग से कम होता हो उन्हें नमी के दबाव वाले क्षेत्र या समानार्थक रूप में वर्षा आधारित क्षेत्र कहा जाता है और इसके विपरित को अतिरिक्त नमी वाला क्षेत्र माना जाता है।

थोंथ्रवेयट और माथेर (1955) द्वारा परिभाषित तथा कृष्णन (1992) द्वारा वार्षिक औसत के उपयोग से सरलीकृत आर्द्रता सूचकांक (एमआई) के उपयोग से नमी के दबाव का आंकलन किया जा सकता है। नमी सूचकांक, जो वार्षिक अवक्षेपण तथा संभावित वाष्पन उत्सर्जन के बीच के अंतर को मापते हैं, को सामान्यतः किसी भी प्रदेश की जलवायु के निर्धारण के लिए उपयोग में लाया जाता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय (1994) ने नमी सूचकांक और सिंचाई स्तर के आधार पर सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम या मरुभूमि विकास कार्यक्रम के लिए पात्रता हेतु वैज्ञानिक मानदंड सुझाया है। यह मानदंड सारणी 2 में उद्धृत किया गया है।  

सारणी-2: सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम एवं मस्भूमि विकास कार्यक्रम में किसी भी जिले को पात्र बनाने हेतु उपयोग किए जाने वाले मानदंड 

सारणी-2 सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम एवं मस्भूमि विकास कार्यक्रम में किसी भी जिले को पात्र बनाने हेतु उपयोग किए जाने वाले मानदंड 
स्रोत: श्रीनिवास राव एवं अन्य (2016)

जलवायुवीय वर्गीकरण (जलवायुवीय वर्गीकरण पर आधारित जलवायु संबंधी आंकड़े सेट) जिसमें एक जिले को एक युनिट माना गया है, औसत सिंचाई संबंधी आंकड़ों के उपयोग से सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम एवं मरुभूमि विकास कार्यक्रम में पात्रता हेतु जिलों का मूल्यांकन किया गया। उपरोक्त मानदंडों को अपनाया गया और सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम या मरुभूमि विकास कार्यक्रम के लिए पात्रता वाले जिलों को वर्षा आधारित जिलों के रूप में रेखांकित किया गया है

चित्र 1: जिला स्तर पर जलवायु वर्गीकरण, चित्र 2: शुद्ध सिंचित क्षेत्र से शुद्ध बुवाई क्षेत्र का प्रतिशत, चित्र 3: वर्षा आधारित कृषि जिले

 (चित्र 1, 2 एवं 3)
चित्र 1, चित्र 2, चित्र 3,फोटो क्रेडिट:-ICAR

वर्षा आधारित फसलें 

भारत में मुख्य रूप से उगाए जाने वाली वर्षा आधारित फसलों में मोटे अनाज, दलहन, तिलहन एवं कपास सम्मिलित हैं। बोए गए कुल क्षेत्र तथा कुछ प्रमुख वर्षा आधारित फसलों के अंतर्गत वर्षा आधारित क्षेत्र का विवरण सारणी 3' में दर्शाया गया है। यद्यपि वर्षा आधारित क्षेत्र में चावल की हिस्सेदारी (42 प्रतिशत), सापेक्ष रूप से मोटे अनाज (84 प्रतिशत), दलहन (81 प्रतिशत) तथा तिलहन (72 प्रतिशत) से कम है परंतु अन्य फसल समूहों से समग्र रूप से (18 मिलियन हेक्टेयर) तुलना के योग्य है। सभी फसलों में से सोयाबीन की फसल के अंतर्गत वर्षा आधारित क्षेत्र का अधिकतम भाग है और समग्र रूप से देखा जाए तो चावल के बाद 10.85 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र के साथ दूसरे स्थान पर है। इसके बाद तीसरे स्थान पर 66% हिस्सेदारी के साथ कपास आता है जिसके अंतर्गत 8.49 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र आता है। 

सारणी-3: 2012-13 के दौरान महत्वपूर्ण वर्षा आधारित फसलों के अंतर्गत बोया गया क्षेत्र और वर्षा आधारित क्षेत्र का प्रतिशत

स्त्रोत ; कृषि सहकारिता एवं परिवार कल्याण विभाग , 2016
स्त्रोत ; कृषि सहकारिता एवं परिवार कल्याण विभाग , 2016

खाद्य सुरक्षा में वर्षा आधारित फसलों का योगदान

वर्ष 2014-15 के दौरान महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसलों के अंतर्गत बोए गए क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता को सारणी 4 में दर्शाया गया है। मोटे अनाज और दलहन जिन्हें वर्षा आधारित फसलों के रूप में प्रमुखता से उगाया गया, उनसे 60 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ है। अतः वर्षा आधारित कम उपजाऊ क्षेत्र का पौषणिकता वाले खाद्यान्नों को उपलब्ध कराने में विशेष योगदान है। किसानों के स्तर पर उच्च भू-भाग पर बोये जाने वाले चावल की उपज स्तर 1.2 ( लाल मृदाएं) से 1.8 टन (जलोढ़) के बीच है। यदि हम वर्षा आधारित क्षेत्र की चावल उत्पादकता 1.5 टन प्रति हेक्टेयर माने, तो 18 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र से 28 मिलियन टन चावल उत्पादन आंका जा सकता है।

सारणी-4 : वर्ष 2014-15 के दौरान महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसलों के लिए बोया गया क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता 

सारणी-4 वर्ष 2014-15 के दौरान महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसलों के लिए बोया गया क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता 
स्त्रोत ; कृषि सहकारिता एवं परिवार कल्याण विभाग , 2016

वर्षा आधारित बागवानी 

भारत में कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में 30 प्रतिशत कृषि भूमि में से बागवानी का 13 प्रतिशत का योगदान है। इससे कृषि उत्पादों के कुल निर्यात में लगभग 37 प्रतिशत का योगदान है। हालांकि, बागवानी में मुख्यतः गहन सिंचाई होती है परंतु कुछ फलों के मजबूत पेड़ जैसे आम, सपोटा (चीकू), आमला, शरीफा अधिकांशतः वर्षा आधारित स्थितियों में ही उगाए जाते हैं। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जब वार्षिक फसल नष्ट हो जाती हैं तो बागवानी व अन्य वृक्षों की उपज से किसानों को कुछ आय प्राप्त होती है ग्रीष्म काल के दौरान खेतों की सीमाओं और खेतों के बांधो पर खेत वानिकी से हरा चारा उगाया जाता है। सूखे के दौरान वर्षा आधारित बागवानी, खेतों से होने वाली कृषकों की आय को स्थिरता प्रदान करती है। सीमांत भूमि पर विभिन्न वैकल्पिक भूमि उपयोग पद्धतियां जैसे कृषि वानिकी घास वर्षा आधारित बागवानी तथा वृक्षारोपण प्रणालियां विकसित की गई हैं।

वर्षा आधारित क्षेत्रों में पशुधन

 वर्षा आधारित क्षेत्रों में ग्रामीण आजीविका के लिए पशुधन उत्पादन एक मुख्य घटक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में लगभग 78 प्रतिशत मवेशियों, 64 प्रतिशत भेड़ तथा 75 प्रतिशत बकरियों का शरण स्थल है एवं देश के मांस बाजार के अधिकांश भाग की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। विभिन्न आकलनों से यह पता चलता है कि कृषि सकल घरेलू उत्पादन में पशुधन पालन से प्राप्त होने वाली आय 70 प्रतिशत शुष्क क्षेत्रों से तथा 30 प्रतिशत अर्ध शुष्क क्षेत्रों से होती है। यह कुल पशुधन समष्टि का 55 प्रतिशत तक है तथा वर्ष 2003 के दौरान इसका आकलन 350 मिलियन के रूप में किया गया है। ग्रामीण परिवारों को अपनी 20 प्रतिशत वार्षिक आय पशुधन से ही प्राप्त होती है। इसके साथ ही साथ जिन किसान परिवारों के पास स्वयं की एक हेक्टेयर तक भूमि उपलब्ध है, उनकी आय 30 प्रतिशत तक हो जाती है।

चुनौतियां एवं अवसर

 

चुनौतियां

वर्षा आधारित कृषि सहज रूप से मानसून पर निर्भर है अर्थात् जहां वर्षा आधारित कृषि मुख्य रूप से अपनाई जाती है वहां निर्धनता तथा विकास कम पाया गया है जिससे वहां के लोग किसी भी बाहरी या पर्यावरणीय झटकों से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। कमजोर मृदाएं और निम्न वर्षपात, फसल उगाए जाने की अवधि तथा फसलों के विकल्पों को सीमित कर देती है। निरंतर सूखा एवं बाढ़, संभावित उपज प्राप्ति और पूंजी लागत हासिल करने पर खतरा बन जाता है। तीव्र जलवायुवीय घटनाएं जैसे शीत एवं ताप लहरें, विशेषकर हाल के दशकों में और रोग एवं कीटों का प्रकोप आदि उत्पादकता को सीमित करने वाले अन्य कारक हैं। भविष्य में प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ती कमी, विशेषकर गैर कृषि कार्यों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण जल की कमी, बदलता मौसम सीमित करने वाले कारक प्रमाणित होंगे। वर्षा आधारित कृषि में खेतों के छोटे आमाप के परिणामस्वरूप बेचने योग्य उत्पादों की कमी, वर्षा आधारित फसलों जैसे मोटे अनाज की घटती मांग, अपर्याप्त सार्वजनिक पूंजी निवेश तथा अपर्याप्त नीति एवं संस्थागत सहायता गंभीर समस्याएं हैं। वर्षा आधारित कृषि के निष्पादन में सुधार के लिए इनका समाधान आवश्यक है। इनपुट मूल्य निर्धारण, ऋण एवं खाद्यान्न की सरकारी खरीद एवं वितरण संबंधी नीतियों से भी वर्षो आधारित फसलों की लाभप्रदता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, विशेषकर मोटे अनाजों पर इन सभी कारकों से एक ऐसी स्थिति बन गई है जहां प्रौद्योगिकी अपनाने में निवेश अनुकूल नहीं रहा है।

जलवायु

वर्षा आधारित कृषि प्रणालियां प्रबल जलवायु विरोधाभास वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिणी तमिलनाडु में उष्ण कटिबंधीय तापमान होता है और यहां वर्षपात का मुख्य स्रोत उत्तर-पूर्वी मानसून है, जबकि उत्तर-पश्चिमी भारत के पंजाब और हरियाणा राज्यों मैं महाद्वीपीय जलवायु ग्रीष्मकाल के दौरान अत्यधिक तापमान 45 से 50 डिग्री सेंटीग्रेड तक तथा शीतकाल में जमा देने वाली ठंड पड़ती है। उत्तर पश्चिमी भारत में वर्षा आधारित कृषि दक्षिण पश्चिमी मानसून के वर्षपात के अंतर्गत की जाती है। इस प्रकार वर्षा आधारित खेती की जलवायु की श्रेणी शुष्क, अर्धशुष्क से उपार्द्र होती है और औसत वार्षिक वर्षपात 412 से 1378 मिलीमीटर के बीच होती है उगाए जाने की अवधि शुष्क क्षेत्र में 60 से 90 दिन तथा उपआर्द्र प्रदेश में 180-210 दिन तक होती है। वर्षपात के वितरण के संदर्भ में 15 मिलियन हेक्टेयर में वार्षिक वर्षपात 500 मिलीमीटर से कम, 15 मिलियन हेक्टेयर में 500-750 मिलीमीटर, 42 मिलियन हेक्टेयर में 750-1150 मिलीमीटर तथा 25 मिलियन हेक्टेयर में 1150 मिलीमीटर होती है। भारत के जलवायु परिवर्तन इतिहास में देखा जा सकता है कि 1970 की अवधि के पश्चात औसत तापमान में बढ़ोतरी हो रही है आगे निकट भविष्य ( 2021-2050) तथा शताब्दी के अंत तक (2071-2098) अधिकतम और न्यूनतम तापमान में वृद्धि होगी।

भारत में वर्षा आधारित क्षेत्रों में प्रायः सूखा पड़ना आम घटना है। भारत के दीर्घकालिक आंकड़ों से ज्ञात होता है कि वर्षा आधारित क्षेत्र में प्रत्येक दशक में 3-4 सूखे वर्ष होते हैं। इनमें से, दो से तीन सामान्य होते हैं जबकि एक या दो बार तीव्र सूखे की स्थिति होती है सूखे की घटनाएं उपप्रखंडों जैसे पश्चिमी राजस्थान, तमिलनाडु, जम्मू एवं कश्मीर, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना क्षेत्र में निरंतर होती हैं। सूखे की तीव्रता या सूखे की अवधि बढ़ने से खाद्य उत्पादन में भारी कमी आती है। सूखे के कारण फसलों की क्षति का पैमाना इसके भौगोलिक प्रकोप, तीव्रता और अवधि पर निर्भर होता है। सूखा न केवल खेत स्तर पर खाद्य उत्पादन को प्रभावित करता है बल्कि यह समग्र खाद्य सुरक्षा एवं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। खरीफ ऋतु के दौरान देश का उत्पादन वर्षपात से अत्यधिक प्रभावित एवं जून-सितंबर में (दक्षिणी पश्चिमी मानसून ) प्राप्त वर्षपात से सहसंबंधित है। 

मृदा 

काली मृदाओं को छोड़कर वर्षा आधारित क्षेत्रों की अधिकांश मृदाएं सामान्यतः दानेदार बनावट की होती हैं। अतः जल एवं पोषक तत्वों को रोके रखने की क्षमता इनमें कम होती है और इनमें उगाई गई फसलों में सूखे का दबाव और पोषक तत्वों की कमी होती है। मृदा जैविक पदार्थों की सांद्रणता निम्न स्तर की होने के कारण मृदा कण समुच्चय स्थिरता कम एवं अपरदन की गंभीर समस्या होती है। काली मृदाओं में चिकनी बनावट के कारण तथा लाल मृदाओं में ऊपरी परत बनने के कारण जल प्रवेश की दर कम होती है। कुछ काली मृदाओं, जो लवर्णों में समृद्ध होती हैं, को छोड़कर वर्षा आधारित क्षेत्रों की मृदाओं में निहित उर्वरता सामान्यतः कम होती है। 

मृदा अवक्रमण 

साठ के दशक की हरित क्रांति के बाद से राष्ट्रीय कृषि नीतियों का झुकाव उच्च उपज देने वाली किस्मों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के उपयोग से फसल की उपज को अधिकतम करने की ओर है। प्राकृतिक संसाधनों और वर्षा आधारित कृषि की ओर कम ध्यान दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का आधार, विशेषकर वर्षा आधारित क्षेत्रों में, बुरी तरह प्रभावित हुआ है। कुल अवक्रमित क्षेत्र का आकलन 120.7 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से 104.2 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि और 16.5 मिलियन हेक्टेयर खुली वनीय भूमि है। कुल अवक्रमित क्षेत्र का 73.3 मिलियन हेक्टेयर जल अपक्षरण, 12.4 मिलियन हेक्टेयर वातीय अपक्षरण, 5.4 मिलियन हेक्टेयर लवणीकरण तथा 5.1 मिलियन हेक्टेयर मृदा अम्लीकरण के कारण अवक्रमित हुआ है। उत्तर-पूर्वी पर्वतीय परितंत्रों तथा उत्तरी एवं मध्य भारत के कुछ भागों में तीव्र जल अपक्षरण जबकि उत्तर-पश्चिमी शुष्क प्रदेशों में वातीय अपक्षरण देखा गया है। 

मृदा जैविक कार्बन का निम्न स्तर 

उष्णकटिबंधीय क्षेत्र की मृदाओं में मृदा जैविक कार्बन की सांद्रणता कम होती है जो मृदा की निम्न उर्वरता और उत्पादकता का प्रमुख कारण है। वर्षा आधारित क्षेत्र में अत्यधिक अवक्रमण हुआ हैं और इनमें आक्सीकरण की उच्च दर तथा त्वरित अपक्षरण के कारण मृदा जैविक कार्बन की सांद्रणता कम होती है। इसके अतिरिक्त बायोमास इनपुट कम होना और उच्च वर्षपात के कारण सतही मृदा का त्वरित अपक्षरण अन्य कारण हैं जिनसे मृदा जैविक कार्बन की सांद्रणता कम हो जाती है। मृदा कार्बनिक पदार्थों की निम्न सांद्रणता के साथ कम इनपुट निम्न उत्पादन और उपज में बड़े अंतर के मुख्य कारण हैं। 

बहुपोषक तत्वों की कमी

प्रायः असंतुलित तरीके से उर्वरकों के बढ़ते उपयोग के कारण मृदा की गुणवत्ता का अवक्रमण हो गया है और गहन वर्षा आधारित उत्पादन प्रणालियों में बहुपोषक तत्वों की कमी में और अधिक बढ़ोतरी हुई है। भारत की मृदाओं में न केवल नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटेशियम की कमी होती है बल्कि गौण पोषक तत्वों (सल्फर, कैलशियम, मैग्नीशियम) एवं सूक्ष्मपोषक तत्वों (बोरान, जिंक, कॉपर, मैंगनीज आदि) की भी कमी होती है।

तीन मौलिक पोषक तत्वों (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाशियम) की कमी के अतिरिक्त अनेक राज्यों में बलुई सूक्ष्म पोषक तत्वों (जिंक और बोरॉन) तथा कुछ राज्यों में लोहा, मैग्नीज तथा मोलीवडीनम की कमी सस्य उत्पादकता को कम कर देती है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं मध्य प्रदेश के अनेक जिलों तथा गुजरात के जूनागढ़ जिले के किसानों के खेतों से प्राप्त मृदा विश्लेषण के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि सभी खेतों में मृदा जैविक कार्बन की कमी, उपलब्ध फास्फोरस निम्न से सामान्य स्तर पर परंतु निस्सारण योग्य पोटाशियम सामान्यतः पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। तथापि, सल्फर, बोरॉन और जिंक की व्यापक कमी है। वर्षा आधारित फसल प्रणालियों के अंतर्गत फसलें अपर्याप्त नमी की अपेक्षा पोषक तत्वों की कमी से अधिक प्रभावित क्योंकि इनमें उर्वरकों का उपयोग कम होता है। गहन पालन प्रणाली के अंतर्गत मुदाओं में गौण पोषक तत्वों की कमी में काफी भिन्नता होती है, क्योंकि उर्वरकीकरण अंसतुलित है जिससे न्यूट्रिएंट बजट या न्यूट्रिएंट माइनिंग नकारात्मक होती है। वर्षा आधारित कृषि में सतत फसल प्रणाली के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी, विशेषकर जिंक और बोरान उभरते अवरोध हैं।

निम्न बाहरी निवेश

सिंचित फसलों की तुलना में वर्षा आधारित खेती में उत्पादन निवेशकों (उदाहरण के लिए उर्वरक, पूरक सिंचाई, अच्छी गुणवत्ता के बीज, कीटनाशक एवं शाकनाशक) का उपयोग कम होता है जिससे वर्षा आधारित फसलों की उपज कम होती है देश के अनेक सुदूर प्रांतों के लगभग 30 प्रतिशत वर्षा आधारित किसान कोई रसायनिक उर्वरक या कीटनाशक का उपयोग नहीं करते हैं। अतः उपयोग किए गए उर्वरक पोषक तत्वों के प्रति फसल प्रतिक्रिया अनुपात तेजी से घट रहा है।

निम्न निवेश क्षमता

भारत में वर्षा आधारित कृषि में छोटे एवं सीमांत किसान अधिक हैं जिनकी गणना वर्ष 2010-11 के दौरान परिचालन योग्य भूखंडों का 85 प्रतिशत की गई है जो वर्ष 1960-61 में 62 प्रतिशत थी। इसी प्रकार छोटे एवं सीमांत किसानों द्वारा परिचालित भूमि क्षेत्र इसी अवधि के दौरान 19 से बढ़कर 45 प्रतिशत हो गया है। निवेश हेतु उप-सीमांत एवं सीमांत किसानों की निर्भरता मुख्यतः साहूकारों पर है।

निम्न स्तरीय विपणन प्रणाली

अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों का चित्रण निर्वाह अर्थव्यवस्था के रूप में है। परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात बचे हुए खेत उत्पादों को ही बेचा जाता है। अलग-अलग उत्पादन एकक (परिवार) स्वतंत्र रूप से परिचालन करते हैं जिससे उत्पाद को एक साथ मिलाकर कुशल विपणन करने में कठिनाई होती है। अधिकांश गांवों की वर्तमान विपणन प्रणाली में अनेक अवरोध हैं। परंपरागत बाजार असंगठित, अविनियमित तथा अलाभकारी हैं। परंपरागत बाजारों में मध्यस्थों की भरमार हैं और अविश्वसनीय विपणन चैनलों से भरे हुए हैं। 

अवसर 

उपज में अंतर 

हरित क्रांति के पश्चात पिछले कुछ दशकों से सिंचित प्रदेशों में उत्पादकता घट रही है और कुल उपज के स्तर पर एक ठहराव सा आ गया है। यदि पर्याप्त अनुसंधान एवं नीतिगत सहायता उपलब्ध कराई जाए तो वर्षा आधारित क्षेत्रों में भी उपज वृद्धि की भारी संभावनाएं हैं तथा इन क्षेत्रों में दूसरी हरित क्रांति के अवसर हैं। भारत में कृषि के अंतर्गत कुल भूमि के 50 प्रतिशत से भी अधिक वर्षा आधारित क्षेत्रों को देश की भावी खाद्य आवश्यकताओं में बड़ी हिस्सेदारी में योगदान देने की आवश्यकता है। चूंकि, वर्षा आधारित उत्पादन विभिन्न जलवायुवीय प्रदेशों में फैला हुआ है, अतः विविध फसलों को उगाने की संभावना मौजूद है जिससे वर्षा आधारित स्थितियों में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है। 

मृदा प्रबंधन 

भारत में वर्षा आधारित कृषि में विपरीत जलवायु के विरुद्ध उत्पादकता और लचीलेपन में सुधार के लिए मृदा महत्वपूर्ण है। अतः न केवल फार्म एवं खेत की स्थिति एवं स्थलाकृति से जुड़े अवरोधों पर विचार करने के अलावा उन्नत मृदा प्रबंधन प्रणालियों के साथ उत्पादन उद्देश्य, फसलों का चयन, खेती की पद्धति आदि का संग्रहण स्तर पर भी विचार किया जाना चाहिए।

 मृदा गुणवत्ता पुनरुद्धार 

सिफारिश की गई प्रबंधन पद्धतियों को अपनाकर मृदा की गुणवत्ता को पुनः स्थापित किया जा सकता है। वर्षा आधारित कृषि में सिफारिश की गई मुख्य प्रबंधन पद्धतियां निम्नलिखित हैं :- 

  •  बड़े ढेले बनने से रोकने तथा मृदा की जुताई में सुधार के लिए अनुकूलतम नमी मात्रा के दौरान जुताई; 
  • गौण जुताई को कम करना एवं शून्य जुताई या मेड जुताई प्रणाली को अपनाना तथा मृदा सतह पर फसल अवशेषों का पलवारीकरण;  
  • फसल चक्रण को अपनाना जिसमें अनाज तथा फलीदार फसलें सम्मिलित हैं;  
  • फसल चक्रण में सतह आच्छादित को सम्मिलित करना; 
  • मृदा जैविक अंश की वृद्धि के लिए जैविक खाद का उपयोग करना; 
  • तथा बीजांकुर एवं पौध संख्या को बढ़ाने के लिए सतही पपड़ी को तोड़ने हेतु हल्के कृषि यंत्रों का का प्रयोग करना

मृदा के प्रकार तथा अन्य स्थान विशेष कारकों के अनुसार सिफारिश की गई प्रबंधन पद्धतियों के चयन में भिन्नता होती है वर्षा आधारित स्थितियों के अंतर्गत मृदा गुणवत्ता में सुधार करने की मुख्य रणनीति मृदा जैविक पदार्थों की सांद्रणता को पुनःस्थापित करना है। मृदा के जैविक, रासायनिक एवं भौतिक गुणों तथा संबंधित फसल उत्पादन प्रक्रियाओं में वृद्धि के लिए सामरिक रूप से विभिन्न पद्धतियों के मिश्रण का लक्ष्य है। मृदा गुणवत्ता की पुनःस्थापना हेतु प्रबंधन पद्धतियों में अपक्षरण पर नियंत्रण, पोषक तत्वों की कमी को दूर करना, समस्यायुक्त मृदाओं का पुनरुद्धार करना, भारी उपरकणों के यातायात को कम करके मृदा संघनन घटाना तथा समेकित पोषण प्रबंधन का उपयोग करना इत्यादि शामिल है। 

जल संचयन एवं प्रबंधन 

शुष्क तथा अर्द्धशुष्क प्रदेश में वर्षा जल प्रबंधन की रणनीति में मुख्यतः अल्पावधि तथा कम जल आवश्यकता वाली फसलों का चयन करते हुए अधिक से अधिक वर्षा जल संरक्षण करना चाहिए ताकि फसलों के उगने की अवधि के दौरान नमी दबाव से बचा जा सके। स्वस्थानीय संरक्षण के अलावा अधिशेष जल को भंडारण संरचनाओं तक पहुंचाने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसे महत्वपूर्ण सिंचाई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एकल स्रोत या भौमजल के साथ उपयोग किया जा सके। विभिन्न पद्धतियों द्वारा जल की उपलब्धता को बढ़ाने के अलावा जल उपयोग से संबंधित क्षति को रोककर तथा संचित जल की प्रत्येक बूंद का प्रभावी उपयोग कर जल उपयोग क्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए। 

उपलब्ध प्रौद्योगिकियां 

वर्षा आधारित फसलों की उत्पादकता तथा लाभप्रदता में वृद्धि के संदर्भ में राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली ने वर्षों से अनेक प्रौद्योगिकियों का विकास किया है जिनके आशाजनक परिणाम निकले हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर ध्यान देने वाली इस प्रकार की प्रौद्योगिकियों की सूचनात्मक सूची सारणी-5 में दर्शाई गई है। अनेक प्रौद्योगिकियों को अपनाने की धीमी गति मुख्यतः निम्न स्तर की विस्तार सेवाएं, समय पर निवेशों की अनुपलब्धता तथा कुछ प्रौद्योगिकियों में अत्यधिक मजदूरों की आवश्यकता आदि मुख्य कारण हैं। 'मनरेगा' के कार्यान्वयन से इस अवरोध को पार कर पाने तथा इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने की बड़ी संभावनाएं हैं। 

सारणी-5: वृहत स्तर पर अपनाने योग्य प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणालियां 

वृहत स्तर पर अपनाने योग्य प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणालियां 

वृहत स्तर पर अपनाने योग्य प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणालियां 
स्त्रोत ; कृषि सहकारिता एवं परिवार कल्याण विभाग , 2016

इसके अतिरिक्त अनेक उन्नत किस्में जिनमें ज्वार (सीएसवी 17, सीएसएच-23 के 11 इत्यादि). सूर्यमुखी (केबीएसएच-42, 44, 53, डीआरएसएच-1, एलएसएफएच-35, पीएफएसएच -118), वर्षा आधारित धान (सीआर धान-40, शुष्क सम्राट, वीरेंद्र, एएयूडीआर-1 सल्मेश्वरी इत्यादि), अरंडी (डीसीएच-177, डीसीएच-519, जीसीएच-7, किरण) उपलब्ध हैं जो बेहतर गुण एवं वर्षा आधारित कृषि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं। कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां भी हैं जिन्हें हस्तांतरित किया जा सकता है। इनमें प्रमुख रूप से मृदा उर्वरता प्रबंधन, रोपण कार्य का यंत्रीकरण, अंतरफसलीकरण व अंत: पालन एवं कटाई तथा समेकित कीट प्रबंधन आती हैं जो इनसे संबंधित हैं। इन प्रौ‌द्योगिकियों की क्षमता प्राप्य योग्य उपज के अंतर में स्पष्ट परिलक्षित हुई हैं। 

सरकार के चालू विकास कार्यक्रमों से लाभ उठाना 

चालू विकास कार्यक्रमों जैसे मनरेगा, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई), राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) आदि से इन प्रौद्‌योगिकियों का बड़े पैमाने पर विस्तार करने के अवसर उपलब्ध हैं। प्रौद्‌योगिकियों को विकास करने वाले संस्थानों तथा समुदायों से निकटता रखने वाले संस्थानों के पास विकास की नई पहलों के अभिसरण से प्राप्त सफल गाथाएं भी हैं। उदाहरण के लिए, खेतों के तालाबों में निवेश से बाजार उन्मुख फसलों के पक्ष में फसल पद्धति में परिवर्तन के साथ-साथ फसल उपज में वृद्धि से अच्छी आय देखी गई है। इसी प्रकार भौमजल के औचित्यपूर्ण एवं कुशल उपयोग की व्यापक संभावनाएं हैं।

फ्रांटियर विज्ञान की क्षमता

 वर्षा आधारित कृषि में फ्रांटियर विज्ञान जैसे जैव प्रौद्योगिकी, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी, नैनो टेक्नोलॉजी, मॉडलिंग, जियो स्पेशियल टेक्नोलॉजी के अनुप्रयोग की अपार संभावनाएं हैं। उदाहरण के लिए जैव प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति से सूखा, गर्मी, कीट आदि के प्रति सहिष्णुता वाली फसल किस्मों के विकास हेतु उपलब्ध जननद्रव्य के प्रभावकारी उपयोग में सहायता मिलेगी। इसी प्रकार सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के विकास से किसानों को फसल प्रबंधन संबंधी सूचनाएं प्राप्त होगी और वे दूर-दराज के बाजारों से संपर्क में आ जाएंगे। नैनो टेक्नोलॉजी आधारित उत्पादों के विकास से मृदा में नमी के रखरखाव और बीजों का सुदृढीकरण किया जा सकता है। 

वर्षा आधारित कृषि पर सरकारी पहल का प्रभाव

 

एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम

 निरंतर सूखा झेलने वाले वर्षा आधारित क्षेत्रों की समस्याओं के समाधान के लिए वर्ष 1973-74 में सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम प्रारंभ किया गया था। कार्यक्रम का मौलिक उद्देश्य फसल एवं पशुधन उत्पादन पर सूखे के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने तथा प्राकृतिक संसाधनों, जैसे भूमि एवं जल में सुधार, से सूखा प्रभावित क्षेत्र में सुधार करना था। वर्ष 1977-78 में एक अन्य विशेष कार्यक्रम नामतः मरुभूमि विकास कार्यक्रम देश के शुष्क प्रदेशों में प्रारंभ किया गया था। कार्यक्रम की परिकल्पना के अंतर्गत भूमि, जल, पशुधन एवं मानव संसाधनों के संरक्षण, विकास एवं संपोषण द्वारा पारिस्थितिक संतुलन को पुनः स्थापित करने हेतु दीर्घकालिक उपाय हैं। वर्ष 1989 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड के संरक्षण में समेकित वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम आरंभ किया गया था जिसका उद्देश्य वाटरशेड के आधार पर बंजर भूमि का विकास करना है। इन सभी कार्यक्रमों को वर्ष 2008 में एक गहन कार्यक्रम चलाते हुए इंटीग्रेटेड वाटरशेड प्रोग्राम के तहत लाया गया और इसका कार्यान्वयन वाटरशेड डेवलेपमेंट कामन गाइडलाइंस, 2008 के अनुसार किया गया। संशोधित दिशा-निर्देशों के अनुसार इंटीग्रेटेड वाटरशेड प्रोग्राम में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन तथा वर्षा आधारित फसल उत्पादन में स्थिरता लाने की अपार संभावनाएं हैं। इस योजना के अंतर्गत 5000 हेक्टेयर तक के वाटरशेड क्षेत्र में रिज-टू-वेली एप्रोच के बेहतर समावेश तथा जल संरक्षण से आगे बढ़कर वाटरशेड क्षेत्र के लोगों को सम्मिलित कर कार्य किया जाएगा। 

वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम 

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की उपयोजना वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम को कार्यान्वित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य उपयुक्त अनुपालन प्रणाली आधारित दृष्टिकोण को अपनाकर वर्षा आधारित क्षेत्र में सतत रूप से कृषि उत्पादकता को बढ़ाना है (डीएसी, 2011)। जिन जिलों में सिंचाई के अंतर्गत 60 प्रतिशत से कम कृषि जोत भूमि है तथा शुष्क (31), अर्द्धशुष्क (133) तथा उपार्द्र (175) क्षेत्र के कृषि परितंत्रों की पहचान की गई है, उन्हें वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम में प्राथमिकता दी गई है। केरल एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों के पिछड़े जिलों (85) में जहां आई कृषि परितंत्र हैं परंतु सिंचाई के अंतर्गत 30 प्रतिशत से भी कम कृषि जोत भूमि है वहां भी इस कार्यक्रम को लागू किया गया। वर्षा आधारित किसान इस कार्यक्रम से लाभ उठा सकते हैं। 

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना 

भारत सरकार ने जल संरक्षण और इसके प्रबंधन को उच्च प्राथमिकता दी है। इसके लिए सिंचाई कार्य को विस्तार देने हेतु प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को सूत्रबद्ध किया गया। मिशन की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए हर खेत को पानी तथा प्रति बूंद अधिक फसल का नारा दिया गया। माननीय प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को 01 जुलाई, 2015 को स्वीकृति प्रदान की जल संसाधन मंत्रालय का सिंचाई का त्वरित लाभ कार्यक्रम तथा गंगा पुनर्स्थान, भूसंसाधन विभाग का समेकित वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम तथा कृषि एवं सहकारिता विभाग का खेत पर जल प्रबंधन (आन फार्म वाटर मैनेजमेंट) को मिलाकर प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना बनाई गई। इस योजना को पूरे देश में लागू करने हेतु 5 वर्षों के लिए 50 हजार करोड़ रुपए का आबंटन किया गया। इस योजना से वर्षा आधारित प्रदेशों को अत्यधिक लाभ होगा।

मनरेगा 

मनरेगा के अंतर्गत किए जाने वाले सभी भूमि एवं जल संरक्षण कार्यों से सूखापन कम करने में अप्रत्यक्ष सहायता मिलेगी। इस योजना के अंतर्गत 60 प्रतिशत से अधिक कार्य भूमि एवं जल संरक्षण से संबंधित है। इन कार्यों की योजना को भूमि एवं जल संसाधनों में सुधार करने हेतु बनाया जाना चाहिए जिससे कि वर्षा आधारित कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सके। एक महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि ग्रामीण स्तर पर प्रशिक्षित श्रम शक्ति का उपलब्ध होना बहुत जरूरी है जिससे कि संबंधित कार्यों की पहचान करके इस कार्यक्रम को वार्षिक कार्य योजना में सम्मिलित करते हुए संबंधित वैज्ञानिक इसका निष्पादन कर सकें। 

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना 

भारत सरकार ने 'एक राष्ट्र एक योजना के तहत वर्ष 2016 में एक नई फसल बीमा योजना प्रारंभ की। इस योजना में पूर्व की सभी योजनाओं की अच्छी विशेषताओं को सम्मिलित किया गया तथा पूर्व की कमियों को दूर किया गया। इसके अंतर्गत किसानों द्वारा खरीफ फसल के दौरान 2 प्रतिशत तथा रबी फसल के दौरान 1.5 प्रतिशत का समान प्रीमियम अदा करना होगा। वार्षिक वाणिज्यिक एवं बागवानी फसलों के मामलों में किसानों द्वारा केवल 5 प्रतिशत का प्रीमियम अदा करना होगा। किसानों द्वारा भुगतान किया जाने वाला प्रीमियम काफी कम हैं और शेष प्रीमियम सरकार द्वारा भुगतान किया जाएगा ताकि प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल क्षति होने पर किसान को बीमा की संपूर्ण राशि प्राप्त हो सके। सरकारी अनुदान की कोई अधिकतम सीमा नहीं है। पूर्व में प्रीमियम दर में कैपिंग का प्रावधान था जिसके कारण किसानों को कम दावे दिए जाते थे। यह योजना जोखिम प्रबंधन रणनीति के रूप में किसानों के लिए लाभदायक सिद्ध होगी, विशेषकर वर्षा आधारित किसानों को, जिनमें निवेश क्षमता कम होती है। 

राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन 

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत 8 मिशनों में से राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन एक है। राष्ट्रीय मिशन में वर्षा आधारित कृषि और जोखिम प्रबंधन प्रमुख है अतः इस योजना के अंतर्गत नवोन्मेषी एवं अर्थपूर्ण परियोजनाओं के सूत्रण के लिए उपलब्ध संसाधनों को दिशा देना एक चुनौती है। 

जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (निक्रा) 

खाद्य एवं जीविका सुरक्षा को सुनिश्चित करने में जलवायु में बढ़ती परिवर्तनशीलता एक वैश्विक चुनौती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए 11वीं योजना में जलवायु अनुकूल कृषि पर राष्ट्रीय पहल प्रारंभ की प्रथम चरण के कार्यक्रम का मुख्य ध्येय सामरिक अनुसंधान के लिए मौलिक सुविधाओं का विकास, जलवायु परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए किसानों के खेतों में उत्तम पद्धतियों का निरूपण, प्रायोजित एवं प्रतिस्पर्धात्मक अनुदान अनुसंधान तथा क्षमता निर्माण है। 12वीं योजना के अंतर्गत जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (निक्रा) के रूप में कार्यान्वित किया जा रहा है।

 जलवायु परिवर्तनशीलता एवं बदलती जलवायु को अपनाने के लिए प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, फसलों, कीट एवं रोग उत्पादन, पशुधन, मात्स्यिकी एवं ऊर्जा दक्षता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सामरिक अनुसंधान अपरिहार्य है। विभिन्न उत्पादों को अपनाने एवं समाधान के लिए निक्रा के अंतर्गत अनेक संकेंद्रित कार्यक्रमों को अपनाया गया है। जलवायु परिवर्तन के प्रति भारतीय कृषि की संवेदनशीलता का विस्तृत मूल्यांकन देश के समस्त ग्रामीण जिलों को सम्मिलित कर जिला स्तर पर किया गया। सापेक्ष रूप से अधिक या अत्यधिक संवेदनशील जिलों की पहचान की गई। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के 40 संस्थानों में सामरिक अनुसंधान कार्य किया जा रहा है। सिंचित फसलों, वर्षा आधारित फसलों, बागवानी, पशुधन, मात्स्यिकी एवं ऊर्जा दक्षता पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित अनुसंधान, उन्नत मौलिक सुविधाएं एवं अत्याधुनिक उपकरणों की स्थापना की जा रही है। उत्तर-पूर्वी पर्वतीय क्षेत्र के लिए भाकृअनुप का अनुसंधान परिसर उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सभी पहलुओं के समाधान पर अनुसंधान कर रहा है।

 प्रौद्योगिकी निरुपण घटक के अंतर्गत उपलब्ध प्रौद्योगिकियों के आधार पर जलवायु परिवर्तन को फसल एवं पशुधन उत्पादन प्रणालियों में अपनाने एवं इसकी प्रबलता को कम करने के लिए प्रत्येक चयनित जिले की एक ग्राम पंचायत में प्रमाणित प्रौद्योगिकियों के समेकित पैकेज का निरूपण किया जाएगा। इसे 8 केंद्रों के अंतर्गत 121 कृषि विज्ञान केंद्र, वर्षा आधारित कृषि के 23 एआईसीआरपी-सह-प्रचालन केंद्रों तथा 7 प्रमुख संस्थानों के 7 प्रौद्योगिकी हस्तांतरण प्रभागों में किसान प्रतिभागिता दृष्टिकोण के माध्यम से कार्यान्वित किया जा रहा है ये गांव जलवायु अनुकूल गांव सिद्ध हुए हैं और इन्होंने खेत उत्पादकता में स्थिरता तथा तीव्र जलवायुवीय घटनाओं, जैसे सूखा, तूफान, बाढ़, ओलावृष्टि, लू, पाला तथा समुद्री जलमग्नता आदि के कारण जीविका अर्जन में विविधता से घरेलू आय में स्थिरता प्राप्त की है। गांवों को जलवायु अनुकूल बनाने हेतु इसके जोखिमों से उभरने तथा प्रबंधन प्रक्रिया में निर्णय लेने हेतु व्यवस्था एवं समुदायों को सशक्त करने की आवश्यकता है।

जिलों में आकस्मिक कृषि योजनाएं

भारतीय कृषि में जलवायु की महत्वपूर्ण भूमिका है। किसानों को विशेषकर खरीफ ऋतु में सभी घटकों, जैसे निवेश, मजदूर एवं प्रौद्योगिकी के उपयोग से अनुकूलतम फसल उपज प्राप्त होने के लिए समय पर वर्षा होना एवं वर्षा का सही वितरण महत्वपूर्ण है। रबी मौसम में, विशेषकर गेहूं उत्पादन में तापमान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मानसून ऋतु के दौरान वर्षपात न केवल वर्षा आधारित फसलों की सफलता का निर्धारण करता है, बल्कि सिंचित कृषि के लिए जल उपलब्धता को प्रभावित करता है, चूंकि भारत की अधिकांश नदियां वर्षा जल से भरती हैं। सामान्य मानसून में किसी भी प्रकार के विचलन से फसलोत्पादन और पशुओं के लिए चारे की उपलब्धता इत्यादि प्रभावित होते हैं जिससे किसानों को भारी क्षति होती है। जब कभी दक्षिण- पश्चिमी मानसून में विपरीत स्थिति उत्पन्न होती है जैसे कि वर्ष 2002, 2009, 2012, 2014 में हुई थी, तो खरीफ कृषि उत्पादन में भारी कमी आती है। कृषि पर संसदीय सलाहकार समिति द्वारा की गई सिफारिशों के अनुपालन में भाकृअनुप-केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान तथा कृषि एवं सहकारिता विभाग ने मौसम की विपरीत स्थितियों, जैसे सूखा, असामयिक वर्षा, बाढ़, लू तथा ओलावृष्टि से जूझने तथा उत्पादकता क्षति को कम करने के लिए 623 जिलों के लिए कृषि की आकस्मिक योजनाएं बनाई। जिला स्तर की कृषि आकस्मिक योजनाओं की तैयारी के पश्चात सावधिक रूप से वर्तमान प्रौद्योगिकियों तथा जलवायुवीय स्थितियों के आधार पर इनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। ग्रामीण स्तर पर खेत, फसलों, बागवानी, पशुधन, कुक्कुटपालन तथा मात्स्यिकी क्षेत्र में जलवायु की विपरीत स्थिति में इन आकस्मिक योजनाओं का कार्यान्वयन एक बड़ी चुनौती है। सभी पणधारियों, जैसे केंद्रीय एवं राज्य सरकार की मशीनरी के साथ अच्छी तकनीकी सहायता, बीज एवं निवेश आपूर्ति एजेंसियां, ग्रामीण संस्थाओं आदि को वास्तविक स्थितियों के अंतर्गत आकस्मिक योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु एकजुट होकर कार्य करना चाहिए ताकि किसानों के खेतों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की कृषि उत्पादकता को भी सततता प्राप्त हो सके। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों में सूखा, बाढ़, लू, शीतलहर आदि से निपटने के लिए जिलावार आकस्मिक योजनाएं तैयार की हैं।

रणनीतियां

किसानों द्वारा यदि प्रौद्योगिकियों को नहीं अपनाया जाता है, तो कृषि अनुसंधान में निवेश व्यर्थ हो जाता है, परंतु यदि इन निवेशों को बेहतर आर्थिक संपन्नता एवं कल्याणकारी बनाना है। तो प्रौद्योगिकी विकास एवं नीतिगत पर्यावरण को अधिक प्रभावी एवं दायित्वपूर्ण बनाया जाना जरूरी है। निम्नलिखित कुछ ऐसे पहलू हैं जिन पर अनुसंधान प्रबंधन एवं नीति निर्माताओं को ध्यान देना आवश्यक हैं:-

  • फसल की उन्नत किस्मों का प्रजनन (जिनमें उच्च उपज, जल की कमी तथा बाढ़, कीट एवं रोग प्रतिरोधिता हो) परंपरागत एवं आधुनिक प्रजनन तकनीकों की सहायता से पूरा सकता है। अब समय आ गया है कि जैव प्रौद्योगिकीय उपायों की क्षमता से लाभ उठाया जाए। इसके अलावा हमें फसलों की ऐसी किस्मों की आवश्यकता है जो उगने की लंबी अवधि के दौरान जलवायु के संभावित परिवर्तनों को सह सके।
  • वर्षा जल के संचयन एवं उपयोग के क्षेत्र में और अधिक अनुसंधान किया जाए। जलवायु परिवर्तन न होने पर भी वर्षा जल का संचयन एवं उपयोग आवश्यक है। यदि जलवायु परिवर्तन से संभावित प्रभाव पर विचार किया जाए तो मामला और भी जटिल हो जाता है। किसी भी एक ऋतु में सूखे की लंबी अवधि और भारी वर्षगात के लिए तैयार रहना आवश्यक हैं। इसका अर्थ हैं हमें जल भंडारण हेतु बड़ी संरचनाओं के साथ-साथ छोटी संरचनाओं की योजना तैयार करनी चाहिए ताकि वर्षा जल को एकत्रित कर बाद में उपयोग किया जा सके।
  • वर्षा आधारित कृषि में जल प्रबंधन के लिए नदी बेसिन में जल स्रोत की योजना का वर्तमान ध्येय उचित नहीं है, जो नदी बेसिन के नीचे वाले <5 हेक्टेयर से छोटे जलग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर होते हैं। अतः जल का प्रबंधन जलग्रहण पैमाने (या नदी बेसिन के छोटी उपनदी स्तर पर ) पर किया जाना चाहिए।
  • वाटरशेड विकास कार्यक्रमों को अधिक प्रभावकारी एवं कुशल बनाने के लिए अनुसंधान की आवश्यकता है, जिसमें लागत प्रभावी हस्तक्षेप, उचित प्रतिभागिता तथा सतत संसाधन प्रबंधन हो और साथ ही साथ परियोजना पूरी होने के पश्चात सततता सुनिश्चित हो ।
  •  जल उठाने एवं पारगमन के लिए सौर ऊर्जा एवं पवन ऊर्जा पर अनुसंधान जिस दर से जीवाश्म ईंधन की खपत और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है इससे सौर एवं पवन ऊर्जा को बढ़ाना आवश्यक हो जाता है।
  • मध्यम एवं लंबी श्रेणी के मौसम पूर्वानुमान पर अधिक अनुसंधान और इन सूचनाओं का समय पर प्रसार ताकि लघु एवं वृहत स्तर पर आकस्मिक योजनाओं को तैयार किया जा सके।
  • हमारे पास ऐसी फसलों के विकास के लिए, जिनकी मांग हो परंतु जिन्हें कठोर स्थितियों और अनिश्चित पर्यावरण में उगाया जाना हो, प्रौद्‌योगिकियों के विकास हेतु सक्रिय नीतियां होनी चाहिए या कठोर स्थितियों में उगने वाली फसलों के लिए बाजार तैयार करना चाहिए।
  • खाद्यान्न, चारा और बीज बैंक सुरक्षा तंत्र के विकास के साथ-साथ मौसम बीमा में निवेश करने संबंधी जोखिम प्रबंधन विकल्प भी उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
  • फसल प्रणालियों एवं उद्योगों में पशुधन को सम्मिलित कर विविधता लाई जानी चाहिए। 
  • किसानों को बाजारों से जोड़ने वाली संस्थाओं का सुदृढीकरण करना चाहिए ताकि छोटे किसान भी समूह के माध्यम से बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकें।
  • वर्षा आधारित क्षेत्रों में अत्यंत विविधता के कारण स्थान विशेष की प्रौद्योगिकियों एवं रणनीतियों के विकास के लिए और अधिक प्रयासों की आवश्यकता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसान प्रतिभागिता फ्रेमवर्क के अंतर्गत प्रौद्योगिकियों को अपनाए जाने तथा परिष्कृत करने को अधिक महत्व दिया जाए। वास्तव में वर्षा आधारित कृषि की व्यापक समस्याओं को लगभग पर्याप्त रूप से समझ लिया गया है, परंतु विभिन्न क्षेत्रों की स्थान विशेष संबंधी संवेदनशील समस्याओं की पहचान करने और इनके समाधान में ज्ञान अपर्याप्त है। अनुसंधानकर्ताओं, अनुसंधान प्रबंधकों तथा विकास एजेंसियों के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है।
  • फसलों पर विपरीत जलवायु के प्रभाव को कम करने हेतु प्रभावकारी त्वरित चेतावनी प्रणाली को स्थापित किया जाना चाहिए। असामान्य मौसमीय घटनाओं के प्रति बेहतर तैयारी के प्रथम चरण में पूर्वानुमान क्षमताओं में सुधार करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए जल विज्ञान तथा मौसम विज्ञान संबंधी आंकड़ों को समकालिक एवं समन्वित पद्धति से उत्पन्न करने हेतु निवेश की आवश्यकता है। चूंकि वर्तमान समय में आंकड़े एकत्रित करने का दायित्व विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों में बंटा हुआ है और उपलब्ध आंकड़ों की उपयोगिता भी सीमित है। मौसम / जलवायु पूर्वानुमान के लिए वैज्ञानिक क्षमता को सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए। इसी प्रकार यह भी महत्वपूर्ण है कि पूर्वानुमानों को सभी पणधारियों अर्थात् किसानों, सरकारी विभागों, वित्त एवं बीमा संस्थानों तक अधिक संबंधित समझने योग्य एवं कार्रवाई योग्य रूप में पहुंचाया जाना चाहिए।

सारांश 

देश की अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और वर्षा आधारित किसानों की जीविका में सुधार हेतु वर्षा आधारित कृषि के योगदान की वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकियों, नीतियों तथा संस्थाओं के बीच सामंजस्य आवश्यक है। वर्षा आधारित प्रदेश की विविधता एवं विशालता की दृष्टि से निवेशों के लक्ष्य और प्राथमिकता इस लक्ष्य की ओर पहला कदम है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम एक अवसर के रूप में मौजूद है जिससे कि उन मोटे अनाज की मांग में वृद्धि की जा सकती हैं जो अधिकांशतः वर्षा आधारित स्थितियों में उगाया जाता है। यह आवश्यक है कि पात्रता वाले लोगों की खाद्यान्न आवश्यकता पूर्ति में चावल एवं गेहूं के अतिरिक्त मोटे अनाजों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। मोटे अनाजों की लाभदायक खेती के लिए अनुकूलतम मूल्य एवं अधिप्राप्ति पर्यावरण के लिए मार्ग प्रशस्त होगा।
 सूखे की तैयारी तथा वास्तविक समय पर खेत स्तर पर आकस्मिक योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु किसानों के लिए सशक्त सरकारी नीतियों सहित सुसंगठित संस्थागत सहायता तथा विभिन्न संस्थाओं का अभिसरण आवश्यक है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार को सूखे से निपटने के लिए विभिन्न सरकारी योजनाओं, जैसे मनरेगा, आरकेवाईवी, मेगा सीड प्रोजेक्ट, एनएफएसएम, एनएचएम आईडब्ल्यूएमपी, मृदा स्वास्थ्य योजना के बीच अभिसरण प्रक्रिया को व्यवस्थित करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन के लिए प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कार्ययोजना के अंतर्गत राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन को आकस्मिक योजनाओं के कार्यान्वयन का नेतृत्व करना चाहिए। इसके लिए राज्य कार्य योजना में इस गतिविधि को नोडल संस्थानों/ अधिकारियों तथा बजट प्रावधानों के साथ सम्मिलित करना चाहिए। सरकारी नीतिगत कार्यक्रमों और योजनाओं में लचीलापन होना चाहिए तथा ये जमीनी स्तर पर निष्पादन योग्य होनी चाहिए ताकि प्रौ‌द्योगिकियों को बेहतर रूप से अपनाया जा सके एवं इनका प्रभाव तुरंत देखा जा सके।

संदर्भ 

  • अमरसिंघे यूए, शाह टी, आनंद बीके (2007). इंडिया वाटर सप्लाई एंड डिमांड फ्राम 2025-2050 बिजनिस एज यूजअल सिनेरियोज एंड इश्यूज. www.iwmi.cgiar.org/NRLP%20Proceeding-2%20 Paper%202.pdf 
  • सीए (कंप्रेहन्सिव असेस्मेंट). (2007). वाटर फार फुड, वाटर फार लाइफ ए कंप्रेहन्सिव असेस्मेंट आफ कोलंबो, श्रीलंका 
  • चांद आर. (2009). डिमांड फार फुड बेन्स ड्यूरिंग दा 11 प्लान एंड टूवाईस 2020. पालिसी ब्रिफ नं. 28. नेशनल सेंटर फार एग्रीकल्चर इकोनामिक्स एंड पालिसी रिसर्च, नई दिल्ली, पीपी. 1-4. 
  • डीएसी. (2011). गाइडलाइंस फार रेनफेड एरिया डिवलेपमेंट प्रोग्राम (आरएडीपी), डिपार्टमेंट आफ एग्रीकल्चर एंड कोआपरेशन मिनिस्ट्री आफ एग्रीकल्चर, गवर्नमेंट आफ इंडिया, नई दिल्ली. 
  • डीएसी एंड एफए. (2012)- स्टेट आफ इंडियन एग्रीकल्चर 2011-12 डायरेक्टोरेट आफ इकोनोमिक्स एंड स्टेटिक्स, डिपार्टमेंट आफ एग्रीकल्चर कोआपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर, मिनिस्ट्री आफ एग्रीकल्चर, गवर्नमेंट आफ इंडिया, नई दिल्ली. पीपी. 273.
  • डीएसी एंड एफए. (2016). एग्रीकल्चरल स्टेटिक्स एट ए ग्लांस 2015. डायरेक्टोरेट ऑफ इकोनोमिक्स एंड स्टेटिक्स, डिपार्टमेंट आफ एग्रीकल्चर कोआपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर, मिनिस्ट्री आफ एग्रीकल्चर, गवर्नमेंट आफ इंडिया, नई दिल्ली. पीपी. 479. 
  • डीएसी एंड एफए. (2016). फर्स्ट एडवांस एस्टीमेट्स आफ प्रोडक्शन आफ फुड स फार 2016-17. डायरेक्टोरेट आफ इकोनोमिक्स एंड स्टेटिक्स, डिपार्टमेंट आफ एग्रीकल्चर कोआपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर, मिनिस्ट्री आफ एग्रीकल्चर, गवर्नमेंट आफ इंडिया नई दिल्ली. पीपी.479.
  •  दीक्षित एस. गोपीनाथ के ए, उदय किरण एल. अनुराधा बी. (2013). लिंकेज मार्केट्स फार बैटर इनकम्स. एलईआईएसए इंडिया, 15 (2) 9-11. 
  • जीओआई. (2014). एग्रीकल्चरल सेंस 2010-11. आल इंडिया रिपोर्ट आन नंबर एंड एरिया फार आपरेशनल जोत, मिनिस्ट्री आफ एग्रीकल्चर, गवर्नमेंट आफ इंडिया, पीपी. 87. ( http://agcensus.nic.in/) 
  • कनवर जेएस. (2000). सोयल एंड वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर इंपैरेटिव फार इंडिया. इन "इंटरनेशनल कान्फ्रेंस आन मैनेजिंग नैचरल रिसोर्सिस फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर प्रोडक्शन इन दा 21 सेंचुरी", इनवाइटिड पेपर्स फरवरी 14-18, 2000 वाटर टेक्नोलाजी सेंटर एंड इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली, इंडिया, पीपी. 4-6
  • कृष्णा ए. (1992). "क्लाइमेट क्लासिफिकेशन एंड एग्रीकल्चरल ड्राउट्स इन एस वेंकटरमण एंड ए कृष्णा (संपादक), क्राप एंड वेदर (नई दिल्ली पब्लिकेशंस एंड इनफार्मेशन डिविजन, इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च) पीपी 458-508. 
  • कुमार पी. मृत्युंजय डी. डे एमएम. (2007). लोग टर्म चेंजिज इन फुड बास्केट एंड न्यूट्रिशन इन इंडिया. इकोनोमिक्स एंड पालिटिकल वीकली. 42 (385), 3567-3572, 
  • एमओआरडी (1994). रिपोर्ट आफ दा टेक्निकल कमिटि आन ड्राउट प्रोन एरियाज प्रोग्राम एंड डेजर्ट डिवलपमेंट प्रोग्राम मिनिस्ट्री आफ रूरल डिवलपमेंट, गवर्नमेंट आफ इंडिया, नई दिल्ली पीपी. 73..
Path Alias

/articles/varsha-adharit-krishi-ki-bharatiy-arthavyavastha-men-bhoomika

Post By: Shivendra
×