वृक्षों की रक्षा हेतु जनचेतना की बेहद जरूरत

world environment day
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विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष


देश में वृक्ष बचाने की दिशा में चिपको व अप्पिको आन्दोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इतिहास गवाह है कि ये आन्दोलन जहाँ देश में वृक्षों के व्यापारिक कटान पर रोक के उदाहरण बने, वहीं विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए वृक्षों के कटान में कमी लाने के प्रमुख कारण भी बने। लेकिन उसके बावजूद आज देश में वनों की जो दयनीय स्थिति है, को लेकर हमारे पर्यावरणविद वन, वन्य जीव और पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर खासे चिन्तित हैं।

कारण यह है कि देश में वन, वृक्ष, वन्यजीव लगातार घटते चले जा रहे हैं और पर्यावरण का संकट दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। विडम्बना देखिए कि सरकारें वृक्षा-रोपण करने का दावा करते नहीं थकतीं। जबकि हालत यह है कि इस हेतु आवंटित राशि अधिकांशतः सरकारी मशीनरी की उदर पूर्ति में ही खप जाती है।

असलियत यह है कि यदि कहीं वृक्ष लगते भी हैं तो वह ऐसे जो आस-पास की जमीन की उर्वरा शक्ति को ही सोख लेते हैं। और तो और सच्चाई यह कि वृक्षा-रोपण के बाद उनके लिए पानी का इन्तजाम सरकार भी कर पाने में नाकाम रहती हैं।

कुछ दिन-माह के बाद देखने में यह आता है कि उनका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर उसकी तुलना प्राकृतिक वनों से नहीं की जा सकती। हमारे नेता और अर्थशास्त्री यह कहते नहीं थकते कि तेज विकास आज की सबसे बड़ी जरूरत है। वह यह नहीं सोचते कि विकास के साथ खेती योग्य भूमि दिनों-दिन किस तेजी से घटती जा रही है।

पिछले तीस-पैंतीस सालों का यदि जायजा लें तो इसका खुलासा होता है कि छोटे कस्बों-शहरों से महानगरों के बीच की दूरी आये दिन बढ़ते कंक्रीट के जंगलों के चलते लगातार कम होती जा रही है क्योंकि जहाँ राजमार्ग-सड़कों के दोनों ओर लहलहाती खेती नजर आती थी, जंगल दिखाई देते थे, वहाँ अब गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और औद्योगिक संस्थानों की जहरीला धुँआ छोड़ती चिमनियाँ नजर आती हैं, हरे-भरे जंगल सूखे मैदान और पहाड़ियाँ सूखी-नंगी दिखाई देती हैं।

काटे गए हरे पेड़ों के लट्ठो से लदे ट्रक राजमार्गों पर बेखौफ गुजरते दिखाई देते हैं। ऐसी हालत में वृक्षों, वनों, वन्य जीवों के जीवन और पर्यावरण की रक्षा की आशा कैसे की जा सकती है।

जबकि प्राकृतिक वन और वन्यजीव पर्यावरण की दृष्टि से कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। सरकार ने प्राकृतिक वनों के तेजी से हो रहे उजाड़ को रोकने के लिए कानून बनाए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले पर न केवल हस्तक्षेप किया बल्कि रोक के आदेश भी दिए। लेकिन दुख है उसके बाद भी वनों का कटान और खनन जारी है।

आजादी के बाद के बीते इन 67 सालों में औद्योगिक विकास, शहरीकरण और विद्युत आदि विभिन्न परियोजनाओं की खातिर बिना वनों और पर्यावरण की क्षति का सही आकलन किए जिस तेजी से वनों के कटान की अनुमति दी गई और यह क्रम आज भी जारी है, उसने वनों का सबसे ज्यादा विनाश किया है।

सूत्रों के अनुसार हर साल विकास के यज्ञ में करीब 28 हजार वर्ग किमी से भी ज्यादा की तादाद में वन समिधा बन रहे हैं। इसकी आड़ में वन विभाग, प्रशासन और ठेकेदारों की मिलीभगत से जारी बेतहाशा अवैद्य कटान ने स्थिति को और विकराल बना दिया है। इससे जहाँ वनों की सघनता नष्ट हुई, वहीं घनें वनों की जगह छितरे वनों ने ले ली।

इस बारे में समय-समय पर बुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, पर्यावरणविदों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चेताया, विरोध प्रदर्शन-आन्दोलन किए लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात वाली कहावत के रूप में सामने आया और सारे कानून धरे के धरे रह गए। हालात गवाह है कि देश का वन क्षेत्र लगातार घट रहा है। बीते दिनों आई रपटें इस कथन को प्रमाणित करती हैं।

कुल मिला कर आज देश के 21 फीसदी भू-भाग पर ही वन बचे हैं। इसमें 2 फीसदी उच्च स्तरीय घने वन, 10 फीसदी मध्यम स्तर के घने वन व 9 फीसदी छितरे वन शामिल हैं। असलियत में आज यही हमारी वन सम्पदा बची है।

कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहाँ वन सम्पदा में बढ़ोतरी हुई हो। कारण वन और आदिवासी दोनों का व्यापारिक शक्तियों से हो रहे दोहन को हम नहीं रोक पाये हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। यदि आदिवासी नहीं रहेंगे तो जंगल भी नहीं बचेंगे। क्योंकि संरक्षण आधारित आर्थिक जीवन-यापन की वजह से ही आदिवासी और जंगल बचे हैं।

आज जलवायु परिवर्तन के दौर में जरूरत है कि सरकार तेजी से वृक्षों, सघन वनों और मध्यम सघन वनों की संख्या बढ़ायें और क्षरित भूमि में वृक्ष लगायें, वृक्षों की रक्षा के प्रति आम जन में चेतना जगाएं और खुद आम जन सचेत रहें, वे अपनी जीवन शैली बदलें और इस हेतु रचनात्मक प्रयास करें। हमें विविध प्रजातियों के साथ जंगल और जंगल में रहने वाले लोगों के जीवन-यापन के तौर तरीकों के संरक्षण पर ध्यान देना ही होगा।

गौरतलब है कि 1988 में घोषित राष्ट्रीय वन नीति में वर्ष 2012 तक देश के 33 फीसदी हिस्से को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया था। 2003 में देश का वन क्षेत्र मात्र 20.64 फीसदी ही था। उस समय 10वीं योजना तक इसे बढ़ाकर 25 फीसदी करने का लक्ष्य रखा था जो विफल रहा।

सरकार का दावा है कि वह देश के एक तिहाई भू-भाग को वनों से आच्छादित करने का लक्ष्य पेड़ों का कवर बढ़ाकर और छितरे वनों को घने वनों में तब्दील कर पूरा कर लेगी। इसमें सन्देह है। जबकि सरकार कहती है कि देश में वनीकरण के लिए भूमि ही नहीं बची है। फिर यह कैसे सम्भव है।

आज देश में जारी अनेकों परियोजनाओं का पर्यावरणविद पुरजोर विरोध कर रहे हैं कि इससे पर्यावरण व पारिस्थितिकीय तन्त्र को बड़ा खतरा है, पर सरकार विकास के नशे में मदहोश है।

उसे विरोध की तो कतई चिन्ता ही नहीं है। वह तो विकास की खातिर बहुमंजिली आवासीय इकाइयों के लिए खेती योग्य भूमि अधिगृहीत किए जाने की योजना बना रही है। आज शहरों-महानगरों में वृक्ष कंक्रीट के बढ़ते निर्माण के चलते किस हाल में हैं, वे क्यों मर रहे है, इसकी चिन्ता न वहाँ के लोगों को हैं, न नगर परिषदों और न निगमों को।

वहाँ कुछेक लोग ही वृक्षों के प्रति संवेदनशील हैं। वहाँ नगरीय विकास की खातिर पेड़ काटने की अनुमति देना, आये दिन की बात है। इसपर अंकुश कौन लगाये।

बीते दिनों अदालत ने इस दिशा में पहल की है जो स्वागत योग्य है। दुख इस बात का है कि लोग यह नहीं सोचते कि जब वृक्ष नहीं रहेंगे तो हम जिन्दा कैसे रहेंगे। पर्यावरण को तो मानवीय स्वार्थ ने बिगाड़ कर रख ही दिया है।

आज जलवायु परिवर्तन के दौर में जरूरत है कि सरकार तेजी से वृक्षों, सघन वनों और मध्यम सघन वनों की संख्या बढ़ायें और क्षरित भूमि में वृक्ष लगायें, वृक्षों की रक्षा के प्रति आम जन में चेतना जगाएं और खुद आम जन सचेत रहें, वे अपनी जीवन शैली बदलें और इस हेतु रचनात्मक प्रयास करें। हमें विविध प्रजातियों के साथ जंगल और जंगल में रहने वाले लोगों के जीवन-यापन के तौर तरीकों के संरक्षण पर ध्यान देना ही होगा।

सरकार पर हर बात के लिए निर्भरता ठीक नहीं। अब बहुत हो गया। यदि हम अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जायेगी। क्योंकि इसके सिवाय अब कोई चारा नहीं बचा है।

लेखक का पता :- आर.एस.ज्ञान कुँज,1/9653-बी, गली नं-6,प्रताप पुरा, वेस्ट रोहताश नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032, मो: 9891573982

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