राजस्थान जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र में तालाब पुराने समय में प्रमुख जलस्रोत रहे हैं। इस राज्य के चुरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के एक गाँव ने तालाब संस्कृति अपनाकर न केवल जल समस्या से निजात पाई हैं बल्कि वर्षा की आवक भी बढ़ाई है।पानी को सर्वसुलभ मानकर इसकी कितनी अवहेलना की जा रही है, इसका अहसास इस बात से हो रहा है कि विश्व जल आयोग के अध्यक्ष को इस सदी में जल हेतु युद्ध की आशंका तक दिखाई देने लगी है। भारतीय संस्कृति ‘जल प्रिय’ संस्कृति रही है। हमारे पूर्वजों ने धरती के प्रत्येक संसाधन के प्रति एक आध्यात्मिक रिश्ता कायम कर उसकी महत्ता को हम तक पहुँचाने का एक सनातन मार्ग प्रशस्त किया है। आज हम इन परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं फलतः हर संसाधन की किल्लत का रोना रोते हैं। धरती पर जल आज भी उतनी ही मात्रा में उपस्थित है जितना प्रारम्भ में था। आज हमारी अविवेकपूर्ण व्यवस्था से युद्ध की शंकाएँ पैदा हो रही है।
पूर्वजों की सनातन परम्परा में जल की कमी न रहने देने की एक परम्परा है- तालाब परम्परा। तालाब वर्षा जल को सहेजने की पुरातन परम्परा है जिसे हम नल संस्कृति के कारण भूल गए। राजस्थान जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र में तालाब पुराने समय में प्रमुख जलस्रोत रहे हैं। इस राज्य के चुरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के एक गाँव ने तालाब संस्कृति अपनाकर न केवल जल समस्या से निजात पाई हैं बल्कि वर्षा की आवक भी बढ़ाई है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर चुरू के सुजानगढ़ तहसील का यह गाँव है- धांगाँव। गाँव के दक्षिण, पूर्व व पश्चिम क्षेत्र में समतल क्षेत्र में ताल है। ताल वास्तव में वह आगर ‘कैचमेण्ट एरिया’ है जिससे जल बहकर तालाब में पहुँचता है। गाँव का यह ताल और तालाब सैंकड़ों वर्ष पुराना है और वर्षा से जल प्राप्ति का साधन है। समस्या तब हुई जब पिछले वर्षों में लगातार वर्षा कम से कम होती गई और 28 मीटर व्यास के तालाब में जल का संग्रहण कम से कमतर होता चला गया। जून 1999 में तो तालाब लगभग सूख ही गया।
50 हेक्टेयर आगर वाले तालाब से पानी का सूखना गाँव के लिए संकट की सूचना थी। ऐसे ही समय ताल के पश्चिमी भाग में वृक्षारोपण का काम वन विभाग ने शुरू किया। गाँव के लोगों ने भी थोड़ी रुचि ली। 1999 का मानसून राजस्थान के इस रेगिस्तानी क्षेत्र में अच्छा नहीं रहा परन्तु रेगिस्तानी वृ़क्ष खेजड़ी ताल के पश्चिमी भाग में कुछ मात्रा में जीवित रही। तालाब में पानी की आवक कम रही। सन् 2000 का मानसून फिर कमजोर रहा परन्तु गाँव वालों ने खेजड़ी वृक्ष का रोपण जारी रखा। अबकी बार भी जल की आवक कम रही परन्तु खेजड़ी वृक्ष की वृक्षावली काफी दूर तक स्थिर हो गई। लगातार तीसरे वर्ष 2001 में भी मानसून कमजोर रहा, गाँव का तालाब जल के बिना प्यासा रहा, परन्तु कम नमी में भी पनपने वाला खेजड़ी वृक्ष ताल के पश्चिमी भाग में काफी दूर तक फैल गया।
प्रथम दो वर्षों के वृक्ष काफी बड़े हो चले थे। इस वृक्षावली से ताल की भूमि में नमी को रोके रखने की क्षमता तो बढ़ी साथ ही साथ रेगिस्तानी रेत को स्थायित्व भी मिला। सन् 2002 का मानसून धांगाँव के लिए चमत्कार लेकर आया। पूरे देश व राजस्थान में भयंकर सूखा था परन्तु इस वर्ष के मानसून में धांगाँव में पिछले तीन साल बाद सबसे शानदार वर्षा हुई। गाँव का विशाल तालाब जल से लबालब हो गया। गाँव के उत्तर में स्थित दूसरा तालाब भी जल से पूरा भर गया। तालाब तो इस क्षेत्र में और गाँवों में भी हैं परन्तु वे लगभग सूखे रहे। धांगाँव के लोगों ने किफायत से तालाबों के जल को काम में लिया कि जिससे राष्ट्रीय राजमार्ग 65 स्थित तालाब मई, 2003 मानसून पूर्व तक जल से भरा हुआ था।
धांगाँव के लोगों का मानना है कि गाँव में औसत से ज्यादा वर्षा का कारण गाँव के पश्चिम में कई एकड़ में की गई वृक्षारोपण है। वैसे इस गाँव का यह तालाब भी अपने-आप में एक विलक्षण विरासत है। 28 मीटर व्यास का वृत्ताकार तालाब लगभग 5 मीटर गहराई लिए हुए हैं। सैकड़ों वर्ष पहले चुने से निर्मित तालाब के प्रत्येक 20 मीटर त्रिज्यांश पर जल भरने के घाट है तथा एक त्रिज्यांश पर पशुओं के पानी पीने हेतु घाट है।
धांगाँव के इस तालाब के ताल व आगर “कैचमेण्ट एरिया” की एक विशेषता और है। धांगाँव क्षेत्र के गहराई में खुदे कुओं का पानी खारा है परन्तु ताल में विशिष्ट प्रकार से खुदी कुंइयों का जल एकदम मीठा है। कुंई वास्तव में धरती में स्थित नमी को जल बून्दों में संचित करने की एक देसी तकनीक है। इस तकनीक के अन्तगर्त भूमि में एक मीटर से भी कम व्यास के घेरे में खुदाई की जाती है। एक निश्चित गहराई पर मिट्टी की मुरड़ पट्टी पर खुदाई की जाती है। इसी गहराई पर भूमि की नमी जल बून्दों के रूप में प्राप्त होने लगती है। 24 घण्टे में जल की सीमित मात्रा इकट्ठी होती है जिसे बाहर निकाल लिया जाता है अर्थात् जल का संयमित प्रयोग प्रकृति स्वतः प्रदान करती है।
धांगाँव के तालाब में लगभग आधा दर्जन कुंइया है। दो कुंई तालाब के बिल्कुल पास में है जबकि शेष थोड़ी-थोड़ी दूरी पर है। “हर कुंई का जल अमृत-सा मीठा है” यह कहना है पड़ोसी गाँव से जल लेने आए किशन बावरी एवं गणपत बावरी का।
रेगिस्तान के इस छोटे-से गाँव के पास खड़े होकर तालाब को देखने पर तालाब का ताल “कैचमेंट एरिया” दिखता है जिसमें जगह-जगह पर लगभग 2 मीटर व्यास के विशाल खेजड़ी वृक्ष दिखते हैं जबकि ताल की सीमा के बाद वृक्षावली नजर आती है जिसके कारण ही बादलों का रुख गाँव की ओर हो गया है। इसलिए कहा गया है रेगिस्तानी परम्परा के जलस्रोत सूखते जरूर है पर मरते नहीं।
(लेखक जौहरी रा.उ.मा.वि. लाडनूं, नागौर, राजस्थान में व्याख्याता पद पर कार्यरत हैं)
पूर्वजों की सनातन परम्परा में जल की कमी न रहने देने की एक परम्परा है- तालाब परम्परा। तालाब वर्षा जल को सहेजने की पुरातन परम्परा है जिसे हम नल संस्कृति के कारण भूल गए। राजस्थान जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र में तालाब पुराने समय में प्रमुख जलस्रोत रहे हैं। इस राज्य के चुरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के एक गाँव ने तालाब संस्कृति अपनाकर न केवल जल समस्या से निजात पाई हैं बल्कि वर्षा की आवक भी बढ़ाई है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर चुरू के सुजानगढ़ तहसील का यह गाँव है- धांगाँव। गाँव के दक्षिण, पूर्व व पश्चिम क्षेत्र में समतल क्षेत्र में ताल है। ताल वास्तव में वह आगर ‘कैचमेण्ट एरिया’ है जिससे जल बहकर तालाब में पहुँचता है। गाँव का यह ताल और तालाब सैंकड़ों वर्ष पुराना है और वर्षा से जल प्राप्ति का साधन है। समस्या तब हुई जब पिछले वर्षों में लगातार वर्षा कम से कम होती गई और 28 मीटर व्यास के तालाब में जल का संग्रहण कम से कमतर होता चला गया। जून 1999 में तो तालाब लगभग सूख ही गया।
50 हेक्टेयर आगर वाले तालाब से पानी का सूखना गाँव के लिए संकट की सूचना थी। ऐसे ही समय ताल के पश्चिमी भाग में वृक्षारोपण का काम वन विभाग ने शुरू किया। गाँव के लोगों ने भी थोड़ी रुचि ली। 1999 का मानसून राजस्थान के इस रेगिस्तानी क्षेत्र में अच्छा नहीं रहा परन्तु रेगिस्तानी वृ़क्ष खेजड़ी ताल के पश्चिमी भाग में कुछ मात्रा में जीवित रही। तालाब में पानी की आवक कम रही। सन् 2000 का मानसून फिर कमजोर रहा परन्तु गाँव वालों ने खेजड़ी वृक्ष का रोपण जारी रखा। अबकी बार भी जल की आवक कम रही परन्तु खेजड़ी वृक्ष की वृक्षावली काफी दूर तक स्थिर हो गई। लगातार तीसरे वर्ष 2001 में भी मानसून कमजोर रहा, गाँव का तालाब जल के बिना प्यासा रहा, परन्तु कम नमी में भी पनपने वाला खेजड़ी वृक्ष ताल के पश्चिमी भाग में काफी दूर तक फैल गया।
प्रथम दो वर्षों के वृक्ष काफी बड़े हो चले थे। इस वृक्षावली से ताल की भूमि में नमी को रोके रखने की क्षमता तो बढ़ी साथ ही साथ रेगिस्तानी रेत को स्थायित्व भी मिला। सन् 2002 का मानसून धांगाँव के लिए चमत्कार लेकर आया। पूरे देश व राजस्थान में भयंकर सूखा था परन्तु इस वर्ष के मानसून में धांगाँव में पिछले तीन साल बाद सबसे शानदार वर्षा हुई। गाँव का विशाल तालाब जल से लबालब हो गया। गाँव के उत्तर में स्थित दूसरा तालाब भी जल से पूरा भर गया। तालाब तो इस क्षेत्र में और गाँवों में भी हैं परन्तु वे लगभग सूखे रहे। धांगाँव के लोगों ने किफायत से तालाबों के जल को काम में लिया कि जिससे राष्ट्रीय राजमार्ग 65 स्थित तालाब मई, 2003 मानसून पूर्व तक जल से भरा हुआ था।
धांगाँव के लोगों का मानना है कि गाँव में औसत से ज्यादा वर्षा का कारण गाँव के पश्चिम में कई एकड़ में की गई वृक्षारोपण है। वैसे इस गाँव का यह तालाब भी अपने-आप में एक विलक्षण विरासत है। 28 मीटर व्यास का वृत्ताकार तालाब लगभग 5 मीटर गहराई लिए हुए हैं। सैकड़ों वर्ष पहले चुने से निर्मित तालाब के प्रत्येक 20 मीटर त्रिज्यांश पर जल भरने के घाट है तथा एक त्रिज्यांश पर पशुओं के पानी पीने हेतु घाट है।
धांगाँव के इस तालाब के ताल व आगर “कैचमेण्ट एरिया” की एक विशेषता और है। धांगाँव क्षेत्र के गहराई में खुदे कुओं का पानी खारा है परन्तु ताल में विशिष्ट प्रकार से खुदी कुंइयों का जल एकदम मीठा है। कुंई वास्तव में धरती में स्थित नमी को जल बून्दों में संचित करने की एक देसी तकनीक है। इस तकनीक के अन्तगर्त भूमि में एक मीटर से भी कम व्यास के घेरे में खुदाई की जाती है। एक निश्चित गहराई पर मिट्टी की मुरड़ पट्टी पर खुदाई की जाती है। इसी गहराई पर भूमि की नमी जल बून्दों के रूप में प्राप्त होने लगती है। 24 घण्टे में जल की सीमित मात्रा इकट्ठी होती है जिसे बाहर निकाल लिया जाता है अर्थात् जल का संयमित प्रयोग प्रकृति स्वतः प्रदान करती है।
धांगाँव के तालाब में लगभग आधा दर्जन कुंइया है। दो कुंई तालाब के बिल्कुल पास में है जबकि शेष थोड़ी-थोड़ी दूरी पर है। “हर कुंई का जल अमृत-सा मीठा है” यह कहना है पड़ोसी गाँव से जल लेने आए किशन बावरी एवं गणपत बावरी का।
रेगिस्तान के इस छोटे-से गाँव के पास खड़े होकर तालाब को देखने पर तालाब का ताल “कैचमेंट एरिया” दिखता है जिसमें जगह-जगह पर लगभग 2 मीटर व्यास के विशाल खेजड़ी वृक्ष दिखते हैं जबकि ताल की सीमा के बाद वृक्षावली नजर आती है जिसके कारण ही बादलों का रुख गाँव की ओर हो गया है। इसलिए कहा गया है रेगिस्तानी परम्परा के जलस्रोत सूखते जरूर है पर मरते नहीं।
(लेखक जौहरी रा.उ.मा.वि. लाडनूं, नागौर, राजस्थान में व्याख्याता पद पर कार्यरत हैं)
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Post By: birendrakrgupta