जंगल बचाने का नायाब उदाहरण उत्तराखण्ड का है जहाँ बीज बचाओ आन्दोलन के विजय जड़धारी और उनके गाँव वालों ने टिहरी-गढ़वाल के जड़धार गाँव में बांज-बुरांश के मिश्रित वनों को बचाया है। वे कहते हैं कि पहले उनके पीने के पानी जलस्रोत सूख गए थे लेकिन जंगल बचाने के बाद फिर से फूट पड़े। आज ठंडा, स्वादिष्ट, शुद्ध और निर्मल पानी प्यासे लोगों की प्यास बुझाता है। पानी कैसे बचेगा, कैसे बढ़ेगा, इस प्रश्न से हमसे सामना होते रहता है। जनसाधारण के लिये पानी एक समस्या है, लेकिन वह इस समस्या का जाने-अनजाने एक कारक बन गया है। हमने पानी बचाने के जो पुराने तरीके थे, जो पानी बरतने की किफायती परम्पराएँ थीं, उसे भुला दिया है। पानी उलीचो संस्कृति को अपना लिया है, जंगल साफ कर दिया गया है, फिर कैसे बचेगा पानी?
मैं मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जिस कस्बे में रहता हूँ, वहाँ इस बार गर्मी में ज्यादातर लोगों के घरेलू मोटर पम्प सूख चुके थे। उन्हें बोरवेल की मशीन से फिर से गहरा करवाया गया। लेकिन जैसे ही बारिश शुरू हुई, लोगों के जेहन से पानी की समस्या गायब हो गई। समझ रहे हैं पानी की समस्या खत्म। नहाने के लिये, बर्तन धोने के लिये और घरेलू काम करने के लिये पानी सीधे मोटर चलाकर लिया जाता है। यह स्थिति एक कस्बे हो ऐसा नहीं है, यह आदत बन गई है।
पानी की समस्या उतनी बड़ी नहीं है, जितनी दिखाई दे रही है। वह इसलिये है क्योंकि इसके बारे में सोच नहीं है। इस साल मध्य प्रदेश में बारिश अच्छी हो रही है। लेकिन वर्षाजल को एकत्र करने की कोई योजना नहीं है, सोच नहीं है। न तो सरकारी स्तर और न ही लोगों के स्तर पर।
सवाल उठता है कि क्या हम वर्षाजल को एकत्र नहीं कर सकते। क्या इस वर्षाजल से हमारी प्यासी धरती का पेट नहीं भर सकता। क्या हम लगातार खाली होते जा रहे जल भण्डारों को नहीं भर सकते।
पानी के स्रोत दो तरह के होते हैं- एक सतही और दूसरा भूजल। वर्षाजल से दोनों स्रोत भरे जा सकते हैं। तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ, झील इससे भरे जा सकते हैं। खेतों में किसान भी छोटी-छोटी तलैया (तालाब) बना सकते हैं और खेतों के आसपास पेड़ लगा सकते हैं। पेड़ भी पानी ही है।
देसी बीजों के जानकार बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि गंजे सिर पर पानी नहीं रुकता। यानी पेड़ नहीं होंगे तो पानी बहकर चला जाएगा, धरती में नहीं जाएगा। भूजल भण्डार खाली रह जाएँगे। दूसरी बात वे यह भी कहते हैं जहाँ हवाई अड्डा होगा, वहीं हवाई जहाज उतरेगा, यानी जहाँ पेड़ होंगे, बादल वही बरसेंगे। अन्यथा उड़कर चले जाएँगे। इसलिये भी पेड़ लगाना जरूरी है।
हरित क्रान्ति में हम प्यासे शंकर बीज ले आये, जिन्होंने नदी-नालों का सतही जल और भूजल दोनों पी लिया। रासायनिक और कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल ने प्रदूषित कर दिया। आज स्थिति यह है कि ज्यादा रासायनिक और कीटनाशक इस्तेमाल करने वाले पंजाब में पानी पीने योग्य नहीं बचा है। ज्यादातर बीमारियों का कारक बन रहा है।
जंगल बचाने का नायाब उदाहरण उत्तराखण्ड का है जहाँ बीज बचाओ आन्दोलन के विजय जड़धारी और उनके गाँव वालों ने टिहरी-गढ़वाल के जड़धार गाँव में बांज-बुरांश के मिश्रित वनों को बचाया है। वे कहते हैं कि पहले उनके पीने के पानी जलस्रोत सूख गए थे लेकिन जंगल बचाने के बाद फिर से फूट पड़े। आज ठंडा, स्वादिष्ट, शुद्ध और निर्मल पानी प्यासे लोगों की प्यास बुझाता है।
खेतों में पानी बचाने के लिये मेड़ बन्धान कर सकते हैं, पार-पाल बना सकते हैं और कम पानी वाले देसी बीजों का चुनाव अपनी फसलों के लिये कर सकते हैं। इन सबसे हमारा भूजल भी रिचार्ज होगा।
पानी कैसे बचाएँ, इस तरह के लेख, विचार आज-कल बहुत लिखे जा रहे हैं। कुछ लोग इस दिशा में काम भी कर रहे हैं, लेकिन अब भी जनमानस में यह बात गहरे नहीं गई है कि अगर हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो पानी कहाँ से आएगा। यह फैक्टरी या उद्योग में नहीं बनता है। कुदरती है। जो पानी हम बोतल से खरीदते हैं, वह भी कुदरती है, उसे सिर्फ बोतल में पैक करके दिया जाता है, फैक्टरी में बनाकर नहीं। यह प्लास्टिक हमारा पर्यावरण का प्रदूषण और पानी की विकृत संस्कृति का परिचायक है।
अगर हम वर्षाजल को बचाएँ तो हमारी पानी की समस्या हल हो सकती है लेकिन हम पानी बरतने की किफायत भी बरतनी होगी। अन्यथा हम साल-दर-साल पानी की भीषण समस्या से जूझते रहेंगे।
Path Alias
/articles/varasaajala-aura-jangala-bacaanaa-haogaa
Post By: RuralWater