वर्षा जल के उपयोग से बढ़ी हरियाली (Greenery increased by Rain Water Harvesting)


पर्यावरण का बदलता परिवेश देश और दुनिया के लिये बड़ा घातक है। मोटी-मोटी सी एक बात हमारी समझ में आ जानी चाहिए, कि तमाम आर्थिक-सामाजिक पारिस्थितिकी गतिविधियाँ कहीं न कहीं प्रकृति से जुड़ी हैं। कई मामलों में खास तौर से पर्यावरण को बेहतर रखने के लिये प्राकृतिक रास्ता ही ढूँढना पड़ेगा।

ऐसा ही एक प्रयोग वन विभाग और हिमालयी पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (हैस्को) ने मिलकर 2010 में आशारोड़ी रेंज में किया। इस प्रयोग के पीछे दो बड़े कारण थे। पहला हैस्को ने अपने यहाँ केंद्र स्थापित किया था और दूसरा एक छोटी नदी जो हैस्को से लगाके नजदीक के गाँवों के लिये पानी का स्रोत थी, वो सूखने के कगार पर पहुँचने लगी थी।

हैस्को ने 2010 में तत्कालीन वन विभाग प्रमुख के आगे प्रस्ताव रखा, कि नदी से जुड़ी लघु पहाड़ी में अगर सही और वैज्ञानिक तरीके से वाटरशेड प्रबंधन का काम किया जाए तो इसके कई बड़े परिणाम होंगे। पहला लघु पहाड़ी की वर्षा जल-संग्रहण करने की क्षमताएँ बढ़ेंगी। जिसका सीधा लाभ नदी को पहुँचेगा। क्योंकि इस लघु पहाड़ी में देश के खर-पतवारों की बढ़ती संख्या अन्य प्रजातियों के विस्तार में बड़ी बाधक है। इसके लिये नमी परिवर्तन पारिस्थितिकी अनुकूल प्रजातियों को भी पनपाएगी। मिट्टी की बढ़ती नमी और उससे उत्पन्न वनस्पति जंगल की फैलती आग में एक प्रतिरोधक के रूप में कार्य करेगी। इन सबके अलावा क्योंकि यह लघु पहाड़ी जंगली जानवरों को भी बसेरा दे रही है। उनकी बेहतर भोजन शृंखला मनुष्य और जानवरों के टकराव को भी हतोत्साहित करेगी।

जल संरक्षण हेतु उपचार से पूर्व एवं बाद इन सब मुद्दों पर लगातार चर्चा के बाद वन विभाग ने इस योजना को संस्तुति दी। योजना के स्वरूप में वन विभाग का आर्थिक योगदान व हैस्को की तकनीकी भागीदारी थी। योजना का कार्य लगभग चार महीने में पूरा हुआ।

योजना के अंतर्गत लघु पहाड़ी को उन सभी गलियों (गाड-गधेरों) को चैक डैम बनाकर पानी मिट्टी को रोकने का काम किया गया। लगभग 181 चैक-डैम का निर्माण किया गया। इसके साथ ही लघु पहाड़ी से जुड़े क्षेत्र में 1000 जल गड्ढ़ों (चाल-खाल) को तैयार किया गया जिनका आकार (1.0 मी. X 1.0 मी. X 1.0 मी.) रखा गया।

रेन वाटर हार्वेस्टिंगसाथ ही 8 छोटे स्तर के तालाबों का भी निर्माण किया गया जिनके दो योगदान सुनिश्चित करने थे। पहला यह कि तालाब जंगली जानवरों के लिये पानी का भंडारण करेगा। साथ ही वर्षा के जल को संग्रहित करेगा व भूमिगत जल का स्तर भी बढ़ाएगा। बेहतर पारिस्थितिकी के लिये इस तरह के वृक्षों को भी लगाया गया जो जंगली जानवरों के लिये पर्याप्त भोजन प्रदान कर सकते हैं।

इस प्रयोग के परिणाम अति उत्साही रहे। वर्षा जल संग्रहण के माध्यम से छोटी आसन गंगा नदी जो लघु पहाड़ी से जुड़ी थी, उसमें पानी की मात्रा 200 लीटर प्रति सेकेण्ड बढ़ गई जिसका लाभ नदी से जुड़े किसानों ने तो उठाया ही पर साथ में नदी से जुड़े 10-घराटियों का भी जीवन बेहतर हुआ, क्योंकि मरती नदी के कारण घराट संकट में पड़ चुके थे। पानी की अद्भुत वापसी ने घराटों का एक नया जीवन-संचार किया।

अध्ययन से यह पता चला कि पानी के संग्रहण के कारण पर्याप्त नमी मिट्टी तो प्राप्त हुई जिससे पौधों की बाढ़ आनी शुरू हुई, जो पारिस्थितिकी के अनुकूल तो थे ही, पर साथ में वनों में लगती आग में भी बाधक थे और ये बड़ा कारण था कि ऐसे क्षेत्र में इस प्रयोग के बाद कभी आग लगने की घटना सामने नहीं आई। ज्ञातव्य है कि इस वर्ष वन विभाग द्वारा तमाम चीड़ के वनों में इस प्रयोग की पुनरावृत्ति हुई है ताकि पारिस्थितिकी परिवर्तन से वन आग से मुक्त हो सकें।

सोकपिट संक्षेप में प्रकृति को बेहतर करने का रास्ता भी प्राकृतिक तरीकों से ही होना चाहिए। आशारोड़ी का यह प्रयोग देश और दुनिया के लिये एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करता है।

इस प्रयोग में जहाँ एक तरफ पारिस्थितिकीय परिवर्तन संसाधनों की भी बढ़ोत्तरी हुई। वहीं अन्य जंगली जानवरों के लिये खास तौर से शाकाहारी वन्य जीवों के भोजन की व्यवस्था का भी प्रावधान तय हुआ। जंगल की आग जो एक बहुत बड़ा विषय बन चुका है। उसका एक मात्र रास्ता वनों के भीतर जल तकनीकों के माध्यम से नमी और वनस्पति को बढ़ाना है। यह प्रयोग सामयिक भी है और सार्थक भी। हमें समझ लेना चाहिए कि अगर बेहतर कल चाहिए तो इसके लिये भरपूर जल भी चाहिए।

लेखक, देहरादून के शुक्लापुर, अम्बीवाला स्थित ‘हिमालयी पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन, हैस्को’ के प्रमुख हैं।

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