भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 1410 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य क्षेत्र में से मोटे तौर पर 810 लाख हेक्टेअर क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसके अलावा 600 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य सिंचित इलाकों में से करीब 370-380 लाख हेक्टेअर भूजल द्वारा सिंचित है। अन्य करीब 50-90 लाख हेक्टेअर इलाका लघु सतही जल योजनाओं से सिंचित होता है, जो कि अनिवार्य तौर पर जल संरक्षण योजनाएं हैं। सिंचित इलाकों की ये श्रेणियां मूलतः किसी तरीके से वर्षा पर ही निर्भर हैं। भूजल रिचार्ज का प्राथमिक स्रोत वर्षाजल है और लघु सतही जल योजनाएं भी तभी भरती हैं जब बारिश होती है। इसका मतलब यह हुआ कि 1410 लाख शुद्ध कृषि योग्य इलाकों में से 1240-1260 लाख हेक्टेअर को अनिवार्य रूप से वर्षा आधारित क्षेत्र कहा जा सकता है, जो कि कुल शुद्ध कृषि योग्य इलाकों का 89 फीसदी होता है।
अब यदि हम केन्द्र एवं राज्य सरकार की जल संसाधनों या कृषि क्षेत्रों में नीतियों, कार्यक्रमों एवं व्यवहारों को देखें तो, हम पाते हैं कि, 89 फीसदी वर्षा आधारित इलाकों की उपेक्षा करते हुए वे शुद्ध कृषि योग्य क्षेत्र के 11 फीसदी इलाके को सिंचित करनेवाली बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च करने को तैयार हैं। कृषि नीतियां भी मूलभूत रूप से इन इलाकों से उत्पादन बढ़ाने की बात करती हैं। सब्सिडी व प्रोत्साहित किये जाने वाले फसलों, कृषि लागत की नीतियों एवं उसके लिए दी जाने वाली सब्सिडी, ये सभी उसी दिशा में बात करते हैं। जिन इलाकों के लिए तमाम सब्सिडी दी जा रही है, इनकी शुरूआत बड़ी सिंचाई परियोजनाओं को दिये जाने वाली सब्सिडी से होती है, उसके बाद बीजों, खादों, कीटनाशाकों के लिए सरकारी सहायता, बुनियादी ढांचों के रखरखाव के लिए सहायता आदि दी जाती है। ऐसे इलाकों के आसपास मार्केट की उपलब्धता और बुनियादी ढांचा सम्बंधी सहायता भी उपलब्ध होती है। यहां तक कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के सहायता का अधिकांश हिस्सा पश्चिमोत्तर भारत के ऐसे इलाकों में ही दिया जाता है। यही बुनियादी मॉडल है, जिसे हमने शुरूआती नियोजन अवधि (1950 और 1960 के दशक में) में अपनाया और लगभग वैसा ही आज तक जारी है।
इसके विपरीत, वर्षा आधारित इलाकों को अपने ही भरोसे छोड़ दिया गया है। यहां यह ध्यान दिया जा सकता है कि देश का हरेक किसान बेहतर जल प्रबंधन की सुविधाओं से लाभान्वित होगा। और सरकारी संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए हर किसान का बराबर हक है। लेकिन सरकारों के पास सभी किसानों के लिए वर्षाजल के सालाना उपहार को इस्तेमाल करने की कोई नीति या रणनीति नहीं है। यहां पर असमानता एवं अन्याय के स्पष्ट मुद्दे भी हैं।
लेकिन यहां पर स्थायी विकास का भी गंभीर मुद्दा है। पहली बात, हमें यह स्वीकार करने की जरूरत है कि हमारी कृषि की जीवनरेखा भूजल है और हर अगले दिन भूजल पर निर्भरता बढ़ रही है। आने वाले काफी दिनों तक, हम चाहें या न चाहें, यह निर्भरता बढ़ने ही वाली है। इस भूजल जीवनरेखा को स्थानीय जल व्यवस्था के माध्यम से ही सबसे टिकाऊ बनाया जा सकता है, बल्कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से नहीं। दूसरी बात, वर्षा आधारित क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिए किये जाने वाले हरेक निवेश से मिलने वाला प्रतिफल बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के सर्वोत्तम संभावित तरीके के उपयोग द्वारा मिल सकने वाले लाभ के मुकाबले कहीं ज्यादा होने की संभावना है। यह बात भारत भर में सैकड़ो उदाहरणों से साबित हो चुकी है। और तीसरी बात, जलवायु परिवर्तन की जरूरतें भी संकेत देती हैं कि मिट्टियों के नमी सोखने की क्षमता बढ़ाना, स्थानीय जल व्यवस्था बढ़ाना और सिस्टम आफ राइस इंटेंसीफिकेशन (धान की पैदावर बढ़ाने की पद्धति) जैसी जल बचत वाली फसल पद्धतियां वास्तव में श्रेष्ठ जलवायु अनुकूल विकल्प हैं।
इस बात को साबित करने के तमाम प्रमाण हैं कि सम्पन्नता के टापू बनाने वाले मौजूदा विकास ढांचे से भी इन टापूओं के लिए स्थायी विकास संभव नहीं है। पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खेती एवं किसानों की स्थिति इसके अच्छे उदाहरण हैं। इस क्षेत्र ने जल संसाधनों एवं कृषि में सरकारी सहायता का सबसे बड़ा हिस्सा हथिया लिया है। मौजूदा विकास ढांचे के सबसे प्रबल समर्थक भी दावा नहीं कर सकते कि पंजाब में खेती और किसान खुशहाल स्थिति में हैं या फिर कुछ वर्षों में भी स्थायी होने जा रहे हैं।
यही सही समय है कि हम अपने जल एवं कृषि नीतियों का फोकस वर्षा आधारित कृषि पर करने के लिए मूलभूत सुधार करें। इससे बेहतर आर्थिक, जलीय, स्थायी, समानतापूर्ण एवं जलवायु अनुकूल परिणाम मिलने और हमारे भावी मांग के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन होने की संभावना है। इससे हमारी भूजल की जीवनरेखा को स्थायी बनाने में मदद मिल सकती है। यक्ष प्रश्न यह है कि हमें कौन रोक रहा है?
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