वरना पानी बह निकलेगा


कागभुसुंड़ि गरुड़ से बोले
आओ हो लें दो दो चोंचें
चलो किसी मंदिर में चलकर
प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे। - जीवनलाल ‘विद्रोही’


इस साल देश के आधुनिक तकनीक से बने 4000 बड़े जलाशयों में से अधिकांश में 15 प्रतिशत से भी कम पानी बचा है। महाराष्ट्र, जहाँ सबसे ज्यादा बाँधों का निर्माण हुआ है वहाँ के अधिकांश बाँधों में 2 प्रतिशत से भी कम पानी शेष है। हमारा आधुनिकतम मौसम विभाग संभवतः तमाम दबावों के चलते प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी सामान्य से बेहतर मानसून और उसके समय पर आने की घोषणा कर चुका है। मानसून के आने में एक हफ्ते से ज्यादा की देरी हो चुकी है और हम सबको यह मनाना चाहिए कि मौसम विभाग की दूसरी भविष्यवाणी गलत साबित न हो।

एक और विश्व पर्यावरण दिवस बीत गया। हम सब इस बात पर परेशान होते रहे कि मानव इतिहास में ज्ञात सर्वाधिक गर्म ग्रीष्म का हमने इस साल सामना किया। उसमें भी अप्रैल सबसे ज्यादा गर्म माह रहा है। क्या जुलाई में हम इस भुगती गई विभीषिका को याद करेंगे? एक बार पानी बरस जाने के बाद तो हमें यह भी ध्यान नहीं रहेगा कि पिछली कई शताब्दियों के सबसे भयावह अकाल का सामना भारत के 30 करोड़ लोग पिछले दो वर्षों से कर रहे हैं। हमारे सामने तो जो तात्कालिक लक्ष्य हैं उनमें शहरी घरों में चौबीसों घंटे पानी की उपलब्धता और अपने वातानुकूलन यंत्र (एसी) के लिये चौबीसों घंटों बिजली की उपलब्धता का बना रहना। यदि ऐसा हो जाता है तो मौसम के ऊपर हमारी व्यक्तिगत विजय हो जाएगी। इसके बाद देश, दुनिया और जनता जाए भाड़ में।

पिछले वर्ष तक किसान अकेले आत्महत्या कर रहे/रही थे। इस वर्ष इस स्थिति में परिवर्तन आया है अब किसान सपरिवार ट्रेन के सामने खड़े होकर आत्महत्या कर रहे हैं। परंतु हमारा देश तो 7 प्रतिशत ‘जी डी पी ग्रोथ’ की दुदुंभी बजा रहा है। प्रधानमंत्री अमेरिकी संसद को सम्बोधित करने जा रहे हैं और अरुण जेटली जापानी उद्योगपतियों को रिझाने के लिये वहाँ का दौरा कर रहे हैं। वहीं मध्यप्रदेश सरकार के पास सरदार सरोवर जलाशय एवं नर्मदा घाटी में बने अन्य बाँधों से विस्थापितों के लिये एक एकड़ जमीन भी नहीं है, लेकिन हुंडियाई कार निर्माता को देने के लिये मालवा की सर्वाधिक उपजाऊ एक हजार एकड़ जमीन उपलब्ध है। इस बीच यह भी खबर आई है कि जलसंसाधन और गंगा पुनुरुद्धार मंत्रालय की मंत्री सुश्री उमा भारती पानी के प्रबंधन के बेहतर विकल्पों की खोज में इजरायल का दौरा करने जाने वाली हैं। वैसे तो अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा सुझाई ‘नदी जोड़ परियोजना’ से आगे की सोच तो शायद अभी दुनिया में विकसित ही नहीं हुई है। वर्तमान में सारी दुनिया घबड़ाकर अपने पैर सिकोड़ रही है और बड़े बाँधों से हाथ जोड़ रही है, परंतु हमारे यहाँ तो नवाचार का बफारा आया हुआ है।

क्या भारत ने जलप्रबंधन के अपने देशज उपायों को आजमा लिया है ? यदि नहीं तो उससे पहले किसी विदेशी तकनीक या विचार को अपनाने का क्या अर्थ है? यदि जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से पार पाना है तो आवश्यक है कि स्थानीय संसाधनों और तकनीकों के माध्यम से अधिकाधिक उपाय किए जाएं। परंतु हमारे यहाँ तो घर का जोगी जोगड़ा को चरितार्थ करने की होड़ सी मच गई है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय जिसकी देखरेख प्रकाश जावड़ेकर कर रहे हैं, लगातार इस प्रयास में है कि किसी को पर्यावरणीय स्वीकृतियों की आवश्यकता ही न रहे। वन ही समाप्त हो जाएं जिसमें कि उनके देेेख-रेख और लगातार उन्हें बचाने की मुहीम भी न चलानी पड़े। वे यह कहते नहीं अघाते कि हमने पर्यावरणीय मापदंड़ों को यथाशक्ति श्रीहीन बना दिया है। अब आपसे जितना लाभ लेते बने ले लीजिए। सरकार बीच में नहीं आएगी।

क्या इस मानसिकता के साथ देश का पर्यावरणीय स्वास्थ्य ठीक बना रह सकता है? मध्यप्रदेश का ग्वालियर शहर विश्व के दस सबसे प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया लेकिन किसी पर भी इसकी जिम्मेदारी नहीं डाली गई। यह कहा गया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पुराने आँकड़ों के आधार पर यह सूची जारी कर दी है। यदि ऐसा है तो सरकार बताए कि अभी वहाँ की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नकार दिए गए तीन पहिये वाला टेम्पो, अपने धुँआ उगलते डीजल संस्करण के साथ वहाँ आज भी पूरी शान से सवारियाँ ढो रहा है। दिल्ली में डीजल वाहनों पर प्रतिबंध लगाने के बाद उठा विवाद किसी से छुपा नहीं है। बहरहाल यह साफ नजर आने लगा है कि प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन एवं बढ़ते तापमान को लेकर भारत में गम्भीरता का वातावरण बन ही नहीं पा रहा है।

हमें यह समझना ही पड़ेगा कि आखिर अकालों की पुनरावृत्ति एकाएक क्यों बढ़ती जा रही है। इस साल देश के आधुनिक तकनीक से बने 4000 बड़े जलाशयों में से अधिकांश में 15 प्रतिशत से भी कम पानी बचा है। महाराष्ट्र, जहाँ सबसे ज्यादा बाँधों का निर्माण हुआ है वहाँ के अधिकांश बाँधों में 2 प्रतिशत से भी कम पानी शेष है। हमारा आधुनिकतम मौसम विभाग संभवतः तमाम दबावों के चलते प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी सामान्य से बेहतर मानसून और उसके समय पर आने की घोषणा कर चुका है। मानसून के आने में एक हफ्ते से ज्यादा की देरी हो चुकी है और हम सबको यह मनाना चाहिए कि मौसम विभाग की दूसरी भविष्यवाणी गलत साबित न हो। गौरतलब है यदि मानसून सामान्य से ज्यादा पानी दे भी गया तो हम क्या अगले साल के लिये कुछ ज्यादा पानी बचा पाने की स्थिति में हैं? निश्चित तौर पर नहीं। जिस देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अकाल के विकराल रूप ले लेने के 8 (आठ) महीने बाद इस संकट पर पहली बार बैठक करें वहाँ तो किसी ऐसी विलक्षण स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस देश की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर हो वहाँ पर मौसम को लेकर इतनी लापरवाही अक्षम्य है। परन्तु जब कोई माफी मांगने वाला ही नहीं बचे तो क्षमा भी अर्थहीन ही हो जाती है।

भवानी प्रसाद मिश्र ने गाँधी पंचशती में किसानों की चर्चा करते हुए लिखा था मेरे किसान युग बीत गए गीतों की बात नहीं करते, ऐसा दिन कभी नहीं ऊगा, जिसको ये रात नहीं करते।

अब गीत तो दूर किसान बात तक कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। पूरी सरकार व सत्ताधारी दल अपने दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियाँ बताने के लिये जबरदस्त ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं। यह समझ में नहीं आता कि यदि आपकी कुछ उपलब्धियाँ हैं तो उनका लेखा जोखा तो आम जनता ही करेगी। अपने मुँह मियाँ मिट्ठु बनने से क्या सही और गलत का फैसला हो जाएगा ? स्थितियों को जबरिया अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता। भवानी बाबू ने यह भी कहा है,

तुमने कभी ठीक से देखा भाला है,
अंधेरा काफी हद तक उजाला है,
सफेद काफी हद तक काला है।


नई सरकार के पास मौका था कि वह प्रदूषण नियंत्रण व जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों के तहत ऐसे तमाम कदम उठा सकती थी जिसके कि अनुकूल दूरगामी परिणाम मिलते। परंतु भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाला पूरा शासन तंत्र विदेशी धन व विदेशी तकनीक पर ही नहीं रुका, उसने तो अब विदेशी विचारों को भी अंगीकार करना प्रारंभ कर दिया है। इधर नीति आयोग ने अपना सवा साल पूरा कर लिया है परंतु पर्यावरण पर कोई ठोस नीति सामने नहीं आई।

एक ओर प्रधानमंत्री पानी की एक-एक बूँद बचाने हेतु मन की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हीं के दल के और अकाल से सर्वाधिक प्रभावित महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री जब अकाल पीड़ितों से मिलने जाने का एहसान करते हैं तो जिस सड़क से उन्हें जाना होता है, उस पर धूल उड़ने से उन्हें परेशानी न हो इसलिए पूरे मार्ग पर पानी का छिड़काव होता है। यह है पर्यावरण और अपने समाज के प्रति हमारी जवाबदेही। स्थितियाँ अत्यन्त विस्फोटक हैं। समय हाथ से निकलता जा रहा है। कबीर सभी ज्ञानियों से कहते हैं,

कबीर नाऊँ न जार्णो गाँव का, मारगि लागा जाऊँ,
काल्हि जु काँटा भाजिसी, पहली क्यूँ न खडाऊ।


अर्थात, जो भी करना है तुरंत करो। ज्ञानी खेत संभालो वरना बह निकलेगा पानी।

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