वर्मीकल्चर से पर्यावरण-मित्र खाद

वर्मीकल्चर विधि से खाद बनाने के लिए केंचुओं का प्रयोग किया जाता है जो एक क्रांतिकारी कदम है। रासायनिक उर्वरकों में सिर्फ एक या दो ही पोषक तत्व पाए जाते हैं जबकि केंचुओं द्वारा निर्मित वर्मी खाद में गोबर खाद की तुलना में 5 गुना नाइट्रोजन, 8 गुना फास्फोरस, 11 गुना पोटाश एवं 3 गुना मैग्नेशियम पाया जाता है।भारत में प्रतिवर्ष 200 करोड़ टन फसल-अपशिष्ट सहित 2000 करोड़ टन ठोस एवं द्रवयुक्त अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इस अपशिष्ट के अनियमित निपटान से भू-प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। ठोस अपशिष्ट के उचित निस्तारण के अंतर्गत इससे कार्बनिक खाद प्राप्त की जाती है। ठोस अपशिष्ट से खाद प्राप्त करने में ‘वर्मीकल्चर’ विधि भी बहुत उपयोगी रहती है।

वर्मीकल्चर विधि से खाद बनाने के लिए केंचुओं का प्रयोग किया जाता है। खाद बनाने में केंचुओं का प्रयोग एक क्रांतिकारी कदम है। इस विधि को सर्वप्रथम 1970 में कनाडा में अपनाया गया था। विश्व में केंचुओं की लगभग 7000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें से भारत में केवल 40 प्रजातियाँ देखी गई हैं। इनमें से कुछ प्रजातियाँ वर्मीकल्चर हेतु पाली जाने वाली भी हैं। भारतीय केंचुए की लंबाई 10-20 से.मी. तथा मोटाई 4-5 मि.मी. होती है। ऑस्ट्रेलियाई केंचुआ 125-335 से.मी. लम्बा होता है। केंचुए के गति हेतु पैर नहीं होते। इनके शरीर के अभार (शुष्क या सीटी) गति का कार्य करते हैं। केचुओं का भोजन मिट्टी है। एक सिरे (मुख) से निगलकर आहार-नाल में पचित वही मिट्टी वापस दूसरे सिरे (गुदा द्वार) से बाहर निकलती है। इस प्रकार प्राप्त मिट्टी में अनेक पोषक तत्व विद्यमान होते हैं।

प्रकृति ने केंचुओं को कचरा पाचन की अद्भूत क्षमता प्रदान की है। केंचुओं की विष्ठा बहुपयोगी एवं संपूर्ण खाद है। इसी को ‘वर्मी खाद’ कहा जाता है।

रासायनिक उर्वरकों में सिर्फ एक या दो ही पोषक तत्व पाए जाते हैं जबकि केंचुओं द्वारा निर्मित वर्मी खाद में गोबर खाद की तुलना में 5 गुना नाइट्रोजन, 8 गुना फास्फोरस, 11 गुना पोटाश एवं 3 गुना मैग्नेशियम पाया जाता है। पौधों को नाइट्रोजन उपलब्ध कराने में केंचुओं का विशेष महत्त्व है। केंचुए भोजन के रूप में नाइट्रोजन ग्रहण करते हैं फलतः इनके मल के रूप में वर्मी खाद स्वयं तैयार कर आप बगीचे हेतु पोषक तत्व प्राप्त कर सकते हैं। फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार—केंचुए न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं बल्कि वे डीडीटी एवं अन्य कीटनाशकों के प्रभाव को भी कम करते हैं। प्रयोगों में पाया गया है कि केंचुए के मल में सामान्य मिट्टी की अपेक्षा 3 गुना चूना, 3 गुना मैग्नेशियम, 5 गुना नाइट्रोजन, 11 गुना पोटेशियम और साढ़े सात गुना फास्फोरस पाया जाता है। केंचुए के कारण मृदा में बैक्टिरिया-वृद्धि भी कई गुना बढ़ जाती है। वर्मी खाद पेड़-पौधों, फसलों, वृक्षों एवं सब्जियों के लिए एक संपूर्ण प्राकृतिक खाद का कार्य करती है। इस खाद में एक्टिनोमाइसिटिज द्वारा एंटीबायोटिक पदार्थ का सृजन होता है जिसके कारण इस खाद के उपयोग से पौधों में कीट एवं बीमारी से बचाव की क्षमता बढ़ती है। फलतः यह खाद उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवारनाशकों की आवश्यकता समाप्त कर देती है। सामान्य वर्मी खाद में नाइट्रोजन की 2-3 प्रतिशत, फास्फोरस की 1.5-2.4 प्रतिशत एवं पोटेशियम की 1.4-2.0 प्रतिशत मात्रा के साथ-साथ अन्य आवश्यक पोषक तत्वों में भी पर्याप्त मात्रा होती है।

वर्मी खाद की निर्माण प्रक्रिया में रबर, प्लास्टिक, काँच आदि पदार्थों को छोड़कर तमाम प्रकार का कूड़ा-कचरा, घास-फूस, सड़े-गले अपशिष्ट पदार्थ काम में लिए जा सकते हैं। इससे इस खाद में उर्वरा शक्ति के साथ-साथ जल सोखने की एवं वायु-संचार की क्षमता का विकास भी होता है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि वर्मी खाद पर एक विशेष प्रकार की ‘पेराट्रोपिक झिल्ली’ होती है जिससे जल के वाष्पीकरण में कमी होती है। फलतः सिंचाई के रूप में जल की कम आवश्यकता होती है।

केंचुओं की यह विशेषता है कि इनके शरीर के लाभदायक जीवाणुओं की मृत्यु नहीं होती, बल्कि वे वापस बाहर आ जाते हैं। केंचुए मिट्टी को ऊपर-नीचे भी करते रहते हैं जिससे मृदा में कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता रहता है। केचुओं की आंतों में पी.एच. मान, तापक्रम एवं ऑक्सीजन समुचित रूप में होने से सूक्ष्मजीवी प्रक्रियाएँ आसपास की भूमि की अपेक्षा 1000 गुना अधिक होती हैं। फलतः अपघटन तेजी से होकर खाद बनने की प्रक्रिया शीघ्र संपन्न होती है। इस प्रकार केंचुए न केवल वर्मी खाद बनाने हैं बल्कि कृषिकरण में भी उपयोगी होते हैं।

कृषिकरण में केंचुओं का पहला प्रभाव यह है कि ये मिट्टी में छेदन, भेदन एवं मृदा-घटन को ढीला करने का कार्य करते हैं और पौधों के अवशेषों को मृदा के भीतर ले जाकर अपघटित करते हुए निगली हुई मिट्टी को कृमि मल के रूप में बाहर निकालकर खाद का रूप देते हैं। इनका कृषिकरण में दूसरा प्रभाव यह है कि ये मृदा के कार्बनिक पदार्थों के विघटन को गति प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, इनसे प्राप्त खाद खरपतवार-बीज रहित होती है। वस्तुतः वर्मी खाद अत्यंत उपयोगी है इसीलिए संभवतः जीव विज्ञानी चार्ल्स डार्विन (1881) ने केंचुए को सभ्यता का प्रवर्तक कहा था। वैज्ञानिकों के अनुसार, खाद तैयार करने के लिए मुख्यतः तीन तरह के केंचुए काम में आते हैं जिन्हें—एपीजेइक, इडोंजेइक और डयाजेइक कहा जाता है। ऐपीजेइक केंचुए खाद हेतु ज्यादा उपयोगी हैं। ये सतह के 5-10 से.मी. नीचे तक रहते हैं तथा वृद्धि भी ज्यादा संख्या में करते हैं। इंडोजेइक केंचुए मिट्टी में सुराख करते हैं एवं उसे नरम करते हैं।

आगे तालिका में विभिन्न प्राकृतिक खादों में पाए जाने वाले प्रमुख पोषक तत्वों की मात्राएँ दिखाई गई हैं।

पोषक तत्वों की उपलब्धता (प्रतिशत में)

पोषक तत्व

गोबर खाद

नेडेप खाद

गोबर गैस खाद

वर्मी खाद

नाइट्रोजन

0.4-1.0

0.5-1.5

1.8-2.5

2.0-3.0

फास्फोरस

0.4-0.8

0.5-0.9

1.0-1.2

1.5-2.9

पोटेशियम

0.8-1.2

1.2-1.4

0.6-1.8

1.4-2.0

 

तालिका से स्पष्ट है कि वर्मी खाद पेड-पौधों, फलदार वृक्षों, सब्जियों एवं फसलों के लिए संतुलित आहार है। इससे फलों, सब्जियों एवं अनाजों के स्वाद में भी सुधार होता है। यह पेड़-पौधों और फसलों को कीड़ों तथा बीमारियों से बचाने की अद्भुत क्षमता रखती है। यह भूमि की सान्द्रता और जलरोधन क्षमता में वृद्धि करती है। सिंचाई की भी बचत करती है एवं खरपतवार रोकती है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति प्रतिवर्ष सुधरती है तथा रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता में कमी होती जाती है।

खाद-निर्माण


वर्मी खाद तैयार रहने के लिए छायादार स्थान एवं पर्याप्त मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। छायादार स्थान का आकार उपलब्ध कार्बनिक ठोस अपशिष्ट की मात्रा पर निर्भर करता है। इस छायादार स्थान में एक से अधिक क्यारियाँ बनाई जा सकती हैं। एक सामान्य क्यारी अर्थात खड्डा 2.5 मी.×1.5 मी.×1 मी. का बनाया जाता है।

स्थान तय करने एवं तैयार करने के पश्चात वर्मी खाद बनाने के लिए कार्बनिक अपशिष्ट, रसोई की छीजन, सब्जी के छिलके, घास-फूस, पेड़-पौधों की पत्तियाँ, चाय आदि लिए जाते हैं तथा उचित संख्या में केंचुए लिए जाते हैं।

फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार—केंचुए न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं बल्कि वे डीडीटी एवं अन्य कीटनाशकों के प्रभाव को भी कम करते हैं।सबसे पहले तैयार खड्ढे को 5 से.मी. ऊँचाई तक रेत से भरा जाता है। रेत के ऊपर 15 से.मी. ऊँचाई तक दोमट मिट्टी एवं गोबर की तह लगाकर उसे गीला कर देते हैं। यही सतह केंचुओं के लिए शयनकक्ष का कार्य करती है। इस सतह पर ही लगभग 1500 केंचुए (आइसीनिया फीटिडा) डाल दिए जाते हैं। केंचुए डालने के बाद इस सतह पर 5 से.मी. ऊँचाई तक कार्बनिक अपशिष्ट, भूसा एवं पत्तियाँ आदि डालकर जल का हल्का छिड़काव कर दिया जाता है और ऊपरी हिस्से को सूखी घास या फिर टाट से ढंक देते हैं। उसके भीतर केंचुए पनपते हैं और वर्मी खाद बननी शुरू होती है। एक माह बाद घास या टाट को हटाकर पुनः कार्बनिक अपशिष्ट की 5 से.मी. मोटी तह बना देते हैं और जल का छिड़काव कर देते हैं। एक-एक दिन के अंतराल से यह क्रिया क्यारी (खड्ढे) के भरने तक करते रहते हैं। खड्ढे के भरने के पश्चात भरे हुए पदार्थ को उलट-पुलट देते हैं। इस प्रकार के खड्ढे में लगभग 45 दिन में खाद तैयार हो जाती है। छः माह के समय तक तो केंचुए पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं और इसके बाद क्यारी में अपशिष्ट एवं जल की उपयुक्त मात्रा डालकर लगातार वर्मी खाद प्राप्त की जा सकती है। इस विधि में केंचुए 1000 टन कार्बनिक अपशिष्ट को लगभग 300 टन जैविक खाद में बदल सकते हैं।

राजस्थान की जलवायु में वर्मी खाद बनाने के लिए छायादार स्थान में 3 मी.×1.5 मी. की क्यारी बनाई जाती है। इसकी सतह को पहले नम कर दिया जाता है। नम सतह पर 15 से.मी. ऊँचाई तक भूसा, घास-फूस बिछाकर उसके ऊपर गोबर की 7.5 से.मी. मोटी तह बना देते हैं। घास-फूस एवं गोबर की इस सम्मिलित तह को नम कर देते हैं। इसी सम्मिलित तह पर 2000-3000 केंचुए पूरी क्यारी (3 मी.×1.5 मी.) में बराबर डाल देते हैं। इसके बाद इस परत पर ठोस अपशिष्ट की 30-45 से.मी. मोटी परत बना देते हैं। इस परत को नम करने के पश्चात सूखी घास या टाट से ढक देते हैं। प्रति दो दिन पर टाट हटाकर जल का छिड़काव जारी रखते हैं। उचित वातावरण में केंचुए वर्मी खाद का निर्माण करते हैं तथा स्वयं की संख्या में भी वृद्धि करते हैं। चूँकि केंचुए अपशिष्ट को खाकर उसे खाद में बदलते हैं फलतः ये ऊपर की ओर बढ़ते रहते हैं। सारे अपशिष्ट के वर्मी खाद में बदलने पर ये केंचुए भी टाट की निचली सतह पर आकर चिपक जाते हैं जो सारे अपशिष्ट के खाद में परिवर्तित होने का सूचक है। इस स्थिति में जल छिड़काव बंद कर ऊपर के ढेर को सूखने देना चाहिए। ऐसा होने पर केंचुए नीचे की नम सतह की तरफ मुड़ जाएँगे। तैयार खाद की ढेरी बनाकर उठा लेते हैं। भूरे रंग का दानेदार हल्का-हल्का यह वर्मी खाद खेत के लिए तैयार हो जाता है। चूँकि ऊपर से सूखने के कारण केंचुए आधार सतह की तरफ जाकर सुरक्षित हैं। अतः पुनः नए अपशिष्ट को उसी प्रकार डालकर वर्मी खाद का चक्र प्रारंभ किया जाता है जो एक पर्यावरण-मित्र खाद है

।भारत में वर्मी खाद के लिए सबसे पहले पुणे के डॉ. एम.आर. भिंड ने ‘वर्मी कंपोस्टींग’ प्रणाली विकसित की। बड़े पैमाने पर वर्मी खाद बनाने की बजाय घरेलू स्तर पर छोटे पैमाने पर भी वर्मी खाद तैयार की जा सकती है।

घरेलू बागवानी


एक स्वनिर्भर परिवार के लिए घरेलू बगीचे में 4-5 फलदार पौधे (नींबू, केला, अनार, अमरूद, आम, पपीता आवश्यकता एवं जलवायु के अनुरूप), 3-4 फूल एवं सुगंधित पौधों के गमले एवं 10 वर्गमीटर क्यारी में सब्जियाँ उगाना लाभप्रद रहता है। अगर क्यारियों के लिए जगह की कमी है तो गमलों में ही सब्जियाँ, पोदीना, हरा धनिया, हरी मिर्च आदि उगाकर पारिवारिक आवश्यकता बहुत सीमा तक पूरी की जा सकती है। घरेलू बागवानी में रसायनरहित सब्जियाँ उगाकर हम स्वास्थ्य खतरों से भी बचे रहेंगे। घरों की छतों पर भी सब्जियाँ उगाना महानगरों में बढ़ता जा रहा है। घरेलू बागवानी की यह अभिरुचि आत्मसंतोष के साथ ही पर्यावरण संवर्धन में भी लाभदायी है।

वर्मी खाद तैयार करने के लिए घरेलू कचरे (रसोई कचरा, लान की कटिंग, बागवानी की पत्तियाँ) का उपयोग किया जा सकता है। हमारे देश में घरेलू कचरा लगभग 500 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनुमानित है। इस कचरे में कार्बनिक पदार्थ 60 प्रतिशत आंका गया है। इस तरह प्रति परिवार 1.5 किलो घरेलू कचरा प्रतिदिन प्राप्त हो सकता है। वर्ष भर में यह मात्रा लगभग 5 क्विंटल बैठती है। लगभग 1600-1700 केंचुए इस कचरे को प्रतिदिन पचाकर वर्ष भर में 2.5-2.75 क्विंटल वर्मी खाद तैयार कर सकते हैं। अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद दो क्विंटल वर्मी खाद बेचकर 600 रुपए की आर्थिक आमदनी भी प्राप्त हो सकती है। वर्मी खाद स्वयं तैयार करना एक लाभप्रद अभिरुचि बन सकती है।

तैयार करने की विधि


वर्मी खाद स्वयं तैयार करने के लिए प्लास्टिक की ढक्कन वाली बाल्टी, कनस्तर या पुराना मटका काम में लिया जा सकता है। अगर जमीन की कमी नहीं है तो बगीचे के एक कोने में छायादार जगह पर 2 मी.×1 मी.×0.3 मी. का गड्ढ़ा बनाकर वर्मी खाद तैयार कर सकते हैं।

प्लास्टिक की बाल्टी : बाजार में उपलब्ध बड़ी प्लास्टिक की बाल्टी (ढक्कन सहित) काम में ली जा सकती है। ढक्कन में दो गोलों पर चार-चार छेद (गर्म छड़ द्वारा) 5 मिलीमीटर व्यास में करें। इन छिद्रों से हवा के आवागमन से केंचुओं को श्वास क्रिया में सहायता मिलेगी। बाल्टी के पेंदे से 75 मिलीमीटर एवं 100 मिलीमीटर ऊँचाई पर भी दो वृत्तों में चार-चार छेद अधिक पानी की निकासी हेतु करें। बाल्टी में सबसे नीचे छोटे-छोटे कंकड़ (10-12 मिलीमीटर व्यास) बिछाकर उसके ऊपर लकड़ी का बुरादा एवं रेत 100 मिलीमीटर ऊँचाई तक भर दें। इसके ऊपर लकड़ी का गोलाकार टुकड़ा रखें। लकड़ी के टुकड़े के ऊपर रसोई का कचरा (सब्जी आदि के छिलके), पौधों की पत्तियाँ बिछा दें। यह सतह 50-75 मिलीमीटर की रखें। इसके ऊपर 200 केंचुए डाल दें, ताकि दुर्गंध न आए। ध्यान रखें कि बाल्टी लगभग 50 मिलीमीटर खाली रहे। क्योंकि रसोई के कचरे में जल की मात्रा अधिक होती है अतः ऊपर से जल तभी डालें, जब यह मिश्रण सूखने लगे। लगभग 30 प्रतिशत नमी रखना आवश्यक है। बाल्टी को छायादार जगह पर रखें। केंचुओं का विकास 26 डिग्री से 35 डिग्री तापक्रम में अधिक होता है। खाद बनाने के लिए चाय की पत्ती, सब्जी के टुकड़ें, बचा हुआ खाना, सूखी पत्तियाँ, लान की घास आदि डाली जा सकती है। जल्दी खाद तैयार करने के लिए बारीक टुकड़ों का प्रयोग करें। बीच में 10-15 दिन बाद ऊपर का मिश्रण नीचे लकड़ी द्वारा हिला दें। लगभग 30-45 दिन में खाद बनकर तैयार हो जाएगी। अच्छी तरह से तैयार हुई खाद दुर्गंध रहित, भूरे रंग की एवं बिखरी हुई होगी। इसे 12 मिलीमीटर जाली वाली छलनी से छान लें।

बचा हुआ मिश्रण पुनः खाद बनाने के लिए सक्रिय पदार्थ का काम देगा। एक परिवार के लिए तीन बाल्टियाँ काफी रहेंगी ताकि खाद बनाने का क्रम अनवरत चलता रहे।

टिन का कनस्तर : 15 किलो के टिन के कनस्तर भी वर्मी खाद बनाने के काम में लिए जा सकते हैं। ढक्कन के ऊपर गोलाकार छिद्र प्लास्टिक की बाल्टी की भांति ही बनाएँ। पानी के निकास के लिए भी छिद्र बनाकर रखें। पेंदें में कंकड़, बुरादा एवं रेत के ऊपर जाली रखे और उस पर रसोई का कचरा उपर्युक्त विधि से भरकर वर्मी खाद तैयार की जा सकती है। एक परिवार के लिए 4-6 कनस्तरों में अनवरत रूप से खाद तैयार की जा सकती है। एक कनस्तर में 100-150 केंचुए काफी रहेंगे। ये केंचुए तीव्र गति से बढ़ते हैं। 6 माह से 1 साल में एक केंचुआ 247 केंचुए तैयार कर सकता है। शीघ्र खाद बनाने वाले केंचुए (आईसिनिया फीटिडा प्रजाति) प्राकृतिक खाद बनाने वाले विक्रेताओं से प्राप्त किए जा सकते हैं।

पुराने मटके : यह तरीका सबसे आसान एवं सस्ता है। अगर पुराने मटकों में एक-दो छेद हो गए हों, तब भी काम में ले सकते हैं, क्योंकि मटकों में जल का निकास रन्ध्रों द्वारा होता रहता है, अतः इनमें छेद करने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ पेंदे में एक-दो छेद करके उस पर नारियल की जूट की जाली बिछाकर रख दें। पेंदे में कुछ कंकड़ 4-4 मिलीमीटर सतह तक बिछा दें। इसके ऊपर कचरा डाल दें और 100-150 केंचुए भी छोड़ दें और ऊपर से भी कचरा डालते रहें। मटके पर ढक्कन हमेशा लगाकर रखें एवं ढक्कन से 50 मिलीमीटर जगह श्वास लेने के लिए खाली छोड़कर रखे। 4-6 मटकों द्वारा अनवरत रूप से खाद बनाई जा सकती है। मटके ठंडे भी रहते हैं अतः केंचुओं के विकास के लिए समुचित वातावरण रहता है।

लकड़ी अथवा गत्ते के डिब्बे : लकड़ी के पुराने पैकिंग बॉक्स अथवा गत्ते के बॉक्स (60 से.मी.×50 से.मी.) में उपर्युक्त विधि द्वारा वर्मी खाद तैयार की जा सकती है। इस बॉक्स के पेंदे में पॉलिथिन बिछाकर खाद बनाएँ ताकि बॉक्स जल्दी सड़ कर खराब न हो। जल के निकास के लिए पेंदे में 4-6 छेद रखें। बॉक्स को कचरे से भरकर टाट (जूट) से ढककर रखें। जल टाट के ऊपर ही देते रहें। एक बॉक्स में 200 केंचुए पर्याप्त रहेंगे। डिब्बे को छायादार जगह में रखें।

उपर्युक्त सभी विधियों में यदि राख उपलब्ध हो तो जरूर डालें। राख आरंभ में अम्लीय मिश्रण को समायोजित रखेगी साथ ही खाद में पोटाश की मात्रा भी बढ़ेगी। अगर नीम की पत्तियाँ उपलब्ध हों तो वे भी अवश्य डालें, ताकि दीमक नहीं पनप सके। इस तरह वर्मी खाद स्वयं तैयार कर बगीचे हेतु पोषक तत्वों की पूर्ति प्राकृतिक रूप से कर सकते हैं। वर्मी खाद बनाते समय हाथ के दस्तानों का उपयोग करें। सभी प्राकृतिक खादों में टिटनेस के कीटाणु होते हैं, और यदि हाथ कहीं से कटा हुआ हो तो वे कीटाणु नुकसान पहुँचा सकते हैं।

(लेखक रा.उ.मा. विद्यालय, लाडनू (नागौर) में व्याख्याता पद पर कार्यरत हैं।)

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