वनों पर प्राकृतिक आपदा एवं जलवायु परिवर्तन का प्रकोप

वनों पर प्राकृतिक आपदा एवं जलवायु परिवर्तन का प्रकोप
वनों पर प्राकृतिक आपदा एवं जलवायु परिवर्तन का प्रकोप

वन किसी भी राष्ट्र की मूल्यवान संपत्ति हैं क्योंकि वनों से कच्चे पदार्थ लकड़ियाँ सूक्ष्म जीवों के लिए आवास, मिट्टी के अपरदन से बचाव, भूमिगत जल में वृद्धि होती है। वन, कार्बन डाईऑक्साइड का अधिक से अधिक मात्रा में अवशोषण करते हैं एवं कारखानों से निकलने वाली मानव जनित कार्बन डाईऑक्साइड को सोख कर वायुमंडल के हरित ग्रह प्रभाव को कम करते हैं। कारखानों से निकलने वाली गैसों के पर्यावरण पर कई प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। ज्ञातव्य है कि औद्योगिक क्रांति के प्रारंभ में 1860 वायुमंडल कार्बन डाईऑक्साइड का सान्द्रण 290 ppm था जो अब बढ़कर 319 ppm हो गया।

अनुमान है कि 21वीं शताब्दी के अंत तक कार्बन डाईऑक्साइड का सान्द्रण बढ़कर 370 ppm हो जायेगा । जिसके कारण वायुमंडल के हरित ग्रह प्रभाव में वृद्धि हो रही है एवं तापमान बढ़ कर वायुमंडल एवं पृथ्वी की ऊष्मा बजट को परिवर्तित कर रहे हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन के विमोचन से ओजोन परत की अल्पता होने के कारण सूर्य की पैराबैंगनी किरणें धरातल तक पहुंच कर उसका तापमान बढ़ा देती हैं जिसके फलस्वरूप पादप एवं जंतु जीवन को भारी क्षति होती रही है तथा मनुष्य में चर्म कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी हो रही है। मनुष्य के द्वारा पर्यावरण का ह्रास इस कदर हो जाना कि वह होमियोस्टैटिक क्रिया से भी पर्यावरण को सही नहीं किया जा सकता है।

तालिका 1 विश्व की हरित गैसों का उत्सर्जन (मिलियन टन में)
तालिका 1 विश्व की हरित गैसों का उत्सर्जन (मिलियन टन में)
स्रोत: Down to Earth, 30 अप्रैल, 1998


एक अनुमान के अनुसार 100 वर्ष में धरातलीय वायु के तापमान में 0.5 C° से 0.7 C° तक की वृद्धि हुई है। ओजोन परत के अल्पता तथा हरित ग्रह प्रभाव से बचने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास हो रहे हैं जिसके लिए मांट्रियल प्रोटोकॉल पर 33 देशों ने सितम्बर 1987 में हस्ताक्षर किए।वन कटाव की प्रवृत्ति मनुष्य में निरंतर बढ़ रही है। वन क्षेत्रों को सीमित कर कृषि क्षेत्रों का विकास किया जा रहा है। नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र वनस्पतियों से रहित हो रहा है। जल बिना रोक टोक के नदियों में पहुँचता रहता है फलस्वरूप इसके आयतन में वृद्धि हो जाती है और बाढ़ आती है। भारत के अधिकांश बाढ़ प्रभावित एवं बाढ़ पीड़ित क्षेत्र उत्तरी भारत में खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के मैदानी भागों में होते हैं।

कभी कभी प्राकृतिक आपदा के कारण घटनायें घटित हो जाती हैं और इसका असर प्राकृतिक तत्वों तथा वनस्पतियों पर भी पड़ता है फलस्वरूप विकासशील देशों में इतनी अधिक आर्थिक क्षति होती है कि विकास परियोजनाओं के अनुकूल परिणाम परिलक्षित नहीं हो पाते हैं क्योंकि विकास परियोजनाओं के लिए निर्धारित धनराशि को प्रकोपों से उत्पन्न क्षति की पूर्ति के लिए लगाना पड़ता है। भूकंप आने का प्रभाव प्राकृतिक पेड़- पौधे पर पड़ता है। प्राकृतिक आपदा आने का कारण है- अंधाधुंध वनों की कटाई । पृथ्वी सम्मलेन में अंधाधुंध कटाई पर चिंता एवं रोष प्रकट किया जा रहा है।एक अनुमान के अनुसार 8000 वर्ष पहले पृथ्वी पर 8000 मिलियन हेक्टेयर भूमि थी जो 1998 तक घटकर 3000 मिलियन हेक्टेयर रह गई है, शेष बचे वन क्षेत्रों का 0.5% प्रतिवर्ष की दर से विनाश हो रहा है।

तालिका 2 : जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC) की रिपोर्ट, 1996
तालिका 2
स्रोत: Dawn to Earth, 15 अगस्त, 1996

प्राकृतिक आपदा को रोकने के लिए उपाय-

  • स्थानीय तथा सामान्य लोगों के कल्याण के लिए कृषि एवं वन भूमि में संतुलन बनाये रखना ।
  • वनो के अंधाधुन्ध कटाव को रोकना तथा वानिकी का विस्तार करना ।
  • विभिन्न आवश्यक एवं उचित उपयोग में लाने हेतु लकड़ियों की नियमित पूर्ति हेतु प्रयास करना ।

  "परिश्रम और कड़ी मेहनत असफलता नामक बीमारी  की सबसे बढ़िया दवाई है।"
                                             - डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम'

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण अवनयन के लिए जिम्मेदार कारणों से भावी जीवन के प्रति निराशा जागृत होती है तथा यह भी आभास होता है कि सभी विकास कार्य प्रकृति तथा पर्यावरण के विपरीत हैं।यदि ध्यान से देखा जाए तो पर्यावरण अवनयन का मूल कारण जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि ही है, अत: पर्यावरण- अवनयन को रोकने के लिए सर्वप्रथम जनसँख्या की वृद्धि को नियंत्रित करना होगा। साथ ही, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर नियंत्रण रखना होगा, एवं वन विनाश प्रभावित क्षेत्रों तथा बंजर भूमियों पर बड़े पैमाने पर वनरोपण करना होगा, रासायनिक खादों एवं कीटनाशी रसायनों के प्रयोग पर नियंत्रण रखना होगा, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में कमी करनी होगी और आम जनता को पर्यावरण के प्रति शिक्षित एवं जागरूक करना होगा।

हरी शंकर लाल वन कार्य की एवं आणविक जीव विज्ञान प्रभाग वन उत्पादकता संस्थान, लाल गुटवा, रांची

स्रोत-  हिंदी पत्रिका पर्यावरण

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Post By: Shivendra
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