वन्य जीवन संरक्षण का महत्त्व

वनस्पतियाँ प्रकृति की अनुपम देन हैं और पृथ्वी पर पारिस्थितिकी सन्तुलन कायम रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। औद्योगीकरण और विकास प्रक्रियाओं से पर्यावरण में फैलते प्रदूषण को एक स्तर तक नियन्त्रित करने की इनकी क्षमता प्रकृति प्रदत्त है। मनुष्य को अपना भविष्य सुरक्षित रखना है तो उसे वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति और सचेत होना होगा, ऐसा लेखक का मत है। पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाये रखने में वनस्पतियाँ (पेड़-पौधे व जंगल) सबसे अहम भूमिका निभाती हैं। वन्य जीवन के बिना, संसार में जीवन विकास की क्रिया ठप्प पड़ जायेगी। पर्यावरण सुरक्षा के सन्दर्भ में इस प्रकार की चर्चा सर्वत्र सुनाई देती है। पृथ्वी पर प्रकृति ने अनेक जीवनस्वरूपों की रचना की है जिनमें कुछ भी निरुद्देश्य नहीं है।

वृहद रूप में देखें तो पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी जीव प्रकृति की सन्तान हैं। सभी एक-दूसरे के हित में कार्य करते हुये आपसी संबंध स्थापित रखकर जुड़े हैं, जैसे एक परिवार के सदस्य। इसका मूल कारण है कि सभी जीवन स्वरूपों की रचना ‘डी.एन.ए.’ (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) से हुई है, जो पृथ्वी में जीवन विकास के बुनियादी निर्माण खंड हैं पर प्रत्येक जीवन स्वरूप अपने आप में अद्वितीय व अलग है।

पृथ्वी पर जीवन का विकास धीरे-धीरे व क्रमवार रूप में हुआ। माना जाता है कि 300 करोड़ वर्ष पूर्व ‘एक कोशिका’ वाले अविकसित जीवों के अवतरण से पृथ्वी में प्रथम जीवन का श्रीगणेश हुआ और कालांतर में पर्यावरण निर्णायक ऊर्जा स्रोतों (ताप, प्रकाश, हवा व जल) के प्रभाव से इनके विभाजन से नये-नये जीवन स्वरूप जन्म लेते रहे।

इस गतिमान विकास क्रिया के अन्तर्गत 44 करोड़ वर्ष पूर्व वनस्पतियों का उद्भव हुआ और 40 करोड़ वर्ष पूर्व वनस्पतियों ने जंगलों का रूप धारण करना प्रारम्भ कर दिया था।

वनस्पतियाँ प्रकृति की अनमोल देन हैं। इनका स्तर पृथ्वी पर पाये जाने वाले अन्य जीवनों से उच्च है क्योंकि ये केवल देना जानती हैं, लेना नहीं। ये अपने पोषण के लिये मात्र 10 प्रतिशत भाग मृदा से प्राप्त करती हैं और बाकी आवश्यकताओं के लिये वायुमंडल पर निर्भर करती हैं।

ये सभी दूसरे जीवों के लिये आवश्यक ऑक्सीजन भोजन, जल और आवास का प्रबंध करती हैं। उन्हें पृथ्वी का फेफड़ा कहा जा सकता है। प्रकृति ने इन्हें फोटोसिनथिसिस की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। हमारा वायुमंडल कई प्रकार की गैसों व वाष्प-कणों से युक्त है।

पृथ्वी पर जीवन के लिये आवश्यक वायुमंडल में सही गैस-मिश्रण और पर्याप्त भोजन की व्यवस्था के लिये वनस्पतियाँ फोटोसिनथिसिस द्वारा सौर-ऊर्जा से मिलकर वायुमंडल में विद्यमान कार्बन-डाई-ऑक्साइड एवं वाष्प-कणों को ऑक्सीजन और कार्बोहाइड्रेट्स में लगातार परिवर्तित करती रहती हैं।

यदि वायुमंडल में पानी न हो तो संसार मौसम-विहीन हो जायेगा। वनस्पतियाँ वाष्पोत्सर्जन (ट्रान्सपरेशन) द्वारा वायुमंडल में समुचित मात्रा में पानी बनाये रखने का कार्य करती हैं। उदाहरण के लिये सूर्यमुखी का पेड़ 2 लीटर एवं सेव का एक बड़ा पेड़ 30 लीटर पानी प्रतिदिन वायुमंडल में त्यागता है। घास जैसी छोटी वनस्पति भी यह कार्य करती है।

आपके घर में यदि कोई पौधा गमले में लगा है और कुछ दिनों तक उसे पानी न दिया जाए तो वह पेड़ मुरझाने लगता है और उसकी पत्तियाँ सिकुड़ कर नीचे की ओर झुकने लगती हैं और पानी ज्यादा समय तक न दिये जाने पर झड़ने लगती हैं। पर जैसे ही हम गमले में पानी डालते हैं, वाष्पोत्सर्जन की क्रिया तेज हो जाती है।

कुछ ही मिनटों के पश्चात हम देख सकते हैं कि पत्तियों की सिकुड़न कम हो रही है व थोड़ा और समय बीतने पर पत्ते चौड़े होकर अपनी स्वाभाविक स्थिति प्राप्त कर लेते हैं।

वनस्पतियों के वाष्पोत्सर्जन और नदी, नाले, तालाब, समुद्र आदि से वाष्पिकरण द्वारा पानी के कण वायुमंडल में पहुँचते हैं और फिर हिम व वर्षा के रूप में उसका त्याग करते हैं। यह कभी न समाप्त होने वाली दोतरफा आवागमन की क्रिया लगातार चलती रहती है।

वनस्पतियाँ जैव विविधता का अनमोल स्रोत हैं और जीन-निकायों की क्षमता रखती हैं। 1960 के दशक में हुई ‘हरित क्रांति’ एक जंगली फसल से प्राप्त नवीन-जनन द्रव्य (जर्म प्लाज्म) के उपयोग से सम्भव हुई थी। अभी भी संसार में कई ऐसी वनस्पतियाँ हैं जिनके विषय में मानव को ज्ञान नहीं है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि संसार में पाई जाने वाली 20,000 वनस्पतियों का उपयोग हम भोजन के लिये कर सकते हैं, पर आज तक हमने केवल 3,000 वनस्पतियों का उपयोग ही समय-समय पर किया है। व्यापारिक स्तर पर केवल 150 वनस्पतियों की खेती भिन्न-भिन्न कालों में की गई है।

कई बहुमूल्य औषधियाँ-तेल, डाई, मूँगफली, दालचीनी, काॅफी आदि जंगलों की देन हैं। यदि आज उपलब्ध आधी वनस्पतियाँ कुछ हजार वर्ष पूर्व लुप्त हो गई होतीं तो आज हम पेनिसिलिन, चावल, रूई आदि से वंचित होते।

औषधि निर्माण के क्षेत्र में वनस्पतियों का योगदान विश्व में लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका जैसे समृद्ध देश में 40 प्रतिशत से ज्यादा औषधियाँ वनस्पतियों से तैयार की जा रही हैं। इसी कारण भारतीय चिकित्सा पद्धति ‘आयुर्वेद’ को अब अन्तरराष्ट्रीय मान्यता मिलने लगी है। पर्यावरण अनुकूल होने के कारण आयुर्वेदिक औषधियों को आधुनिक एलोपैथी दवाओं के व्यावहारिक विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।

वनस्पतियों की उपस्थिति मृदा निर्माण में सहायक होने के साथ-साथ मृदा कटाव व रेगिस्तान फैलाव को भी नियन्त्रित करने की क्षमता रखती है। तापमान वृद्धि कम करने में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पृथ्वी में पानी के भंडार का संचय करने में भी वनस्पतियाँ मुख्य भूमिका निभाती हैं।

जंगलों में वर्षा के पश्चात पानी को भू-सतह तक पहुँचने में काफी समय लगता है और घने जंगलों में तो इस प्रकार की क्रिया में एक या दो घंटे भी लग सकते हैं। वर्षा समाप्त हो जाने के बाद भी काफी समय तक पानी की बूँदें पेड़-पत्तियों से टपकती रहती हैं।

एक बार जब वर्षा का पानी मृदा तक पहुँच जाता है, तब सूर्य-ताप से होने वाले वाष्पिकरण से जंगलों के पेड़-पौधे एक छतरी के समान उसकी रक्षा करते हैं। यह पानी उस क्षेत्र के नदी-नालों में महीनों बहता रहता है। इसलिये किसी भी स्थान पर सतही-मृदा की उपस्थिति बहुत महत्त्व रखती है और इसकी सुरक्षा का भार पेड़-पौधों के कंधों पर होता है।

मृदा के अभाव में बरसात का पानी पृथ्वी में समाने के बजाय, सीधे नदी व नालों में, कुछ ही क्षणों के भीतर बह जाता है और उस क्षेत्र के नदी-नाले वर्ष के अन्य महीनों में सूखे पड़े रहते हैं।

भारत का दो-तिहाई क्षेत्र (गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों को छोड़) 200 से 300 करोड़ वर्ष पुरानी सख्त चट्टानों से ढका है जिसके अन्तर्गत मृदा का निर्माण मूल चट्टानों के रासायनिक अपघटन से होता है, जिसमें पानी प्रमुख भूमिका निभाता है।

इस प्रकार निर्मित मृदा, भू-वैज्ञानिक दृष्टि से पुरानी होते हुये भी अल्युवियल मृदा के समान परिपक्व नहीं होती। पर पारिस्थितिक दृष्टि से यह इतनी पुरानी अवश्य होती है कि पेड़-पौधे उसमें पनप सकें। यदि इस प्रकार की मृदा को जंगलों का संरक्षण प्राप्त हो जाता है, तो सीधे भू-क्षरण अनावरण से उसकी रक्षा होती है और जैविक-तत्वों के संयोग से वह समृद्ध होने लगती है व कुछ समय पश्चात परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। पर पड़ों का आवरण घटते ही भौतिकीय भू-क्षरण (मेकैनिकल इरोजन) और अपक्षयन क्रिया तीव्र होने लगती है और मृदा आवरण घटने लगता है।

वनस्पतियों की सहायता से प्रकृति ने जंगलों की स्थापना की है और जंगलों से ही अन्य जीवनों का प्रदुर्भाव हुआ है। जिसमें मानव भी शामिल है।

प्राकृतिक तंत्र की वास्तविकता यह है कि पृथ्वी में विद्यमान कुछ भी बिना कारण नहीं है। लेकिन पृथ्वी में जीवन विकास को गति प्रदान करने में वनस्पतियों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है एवं निभा रही हैं। इन्हीं के क्रियाकलापों के माध्यम से सांस लेने के लिये आवश्यक स्वच्छ हवा का निर्माण होता है और जल भंडार भरते रहते हैं।

यह स्वयं में कई प्रकार का भोजन शाकाहारी जीवों के लिये पैदा करती रहती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से मांसाहारी जीवों के लिये उनकी रुचि के अनुरूप शिकार योग्य जीवों के विकास में योगदान करती हैं। कृषि भूमि को उपजाऊ बनाने व उपजाऊ मिट्टी को सुरक्षित रखने में इनकी भूमिका एक ‘निर्णायक’ का कार्य करती है। इनके अभाव में रेगिस्तान का फैलाव बढ़ने लगता है और अनहोने स्थानों में भी क्षेत्रीय नदी/नालों में बालू भरण के कारण बाढ़ का प्रकोप फैलने लगता है।

वनस्पतियाँ कई प्रकार की प्राकृतिक दवाओं की मूल स्रोत हैं जिन्हें खाने पर एलोपैथी दवाओं के समान कोई उत्तर प्रभाव नहीं उभरता है। इसी गुण के कारण भारतीय प्राचीन चिकित्सा पद्धति ‘आयुर्वेद’ को सारा विश्व अपनाने में लगा हुआ है। औद्योगिकरण और विकास क्रियाओं से पर्यावरण में फैलते प्रदूषण (हानिकारक गैस व रसायन और ध्वनि) को नियन्त्रित स्तर पर रखने की क्षमता इनमें प्रकृति प्रदत्त है।

इन्हीं कारणों से वनस्पति संरक्षण एवं वृक्षारोपण कार्यक्रमों को सारे विश्व में प्राथमिकता मिल रही है। मानव को अपना भविष्य सुरक्षित रखने के लिये इन कार्यों को और गम्भीरता से अपनाना होगा। जंगल न होने पर प्रायः सभी जीव नष्ट हो जाएँगे और यदि संयोग से मानव बच भी गया तो खरगोश, चूहे, काकरोच, गोरय्या, चींटी जैसे छोटे जीव उसे जीने नहीं देंगे।

(लेखक कोल इंडिया लिमिटेड के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक हैं।)

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