ओडीशा के छोटे से आदिवासी गाँव गुंडूरिबाड़ी की महिलाएँ रोजाना तंगापल्ली यानी अपने गाँव के इर्द-गिर्द मौजूद वनों की गश्त के लिये निकलती हैं। वे अपने वन संरक्षण समिति की सदस्य भी हैं जो कि यह फैसला करती है कि वन और उसके संसाधनों का प्रबन्धन किस प्रकार किया जाये। सोनाली पाठक ने गुंडूरबाड़ी की प्रहरी महिलाओं के साथ एक दिन बिताकर यह जानना चाहा कि किस प्रकार इस आन्दोलन ने वनों को कायम रखा और गाँव वालों का सबलीकरण किया। गुंडूरिबाड़ी गाँव के लिये वह अन्य दिनों की तरह से ही एक दिन था। कुल जमा 27 घरों का यह आदिवासी गाँव ओडीशा के नयागढ़ जिले के रानपुर विकासखण्ड के साता भाई (पहाड़ों और पर्वतों की एक शृंखला) की तलहटी में स्थित है। गाँव की करीब 45 वर्षीय दो महिलाएँ जान्हा प्रधान और सरोजिनी प्रधान गाँव की अन्य महिलाओं को आवाज़ लगाती हुई मुख्य मार्ग के किनारे इकट्ठा होने को कहती हैं। उनकी आवाज पर गाँव की 30 से 60 वर्षीय दस महिलाएँ तत्काल अपने मुख्य देवता कालिया संधा के मन्दिर के पास तंगापल्ली यानी वन की गश्त के लिये इकट्ठा हो जाती हैं। यह उनके दैनिक जीवन का हिस्सा है जिसके तहत अदला-बदली के आधार पर सात से दस महिलाएँ रोजाना वनों की गश्त करती हैं।
ओडीशा में वन संसाधन के पतन और निरन्तर ह्रास के कारण समुदाय आधारित वन संरक्षण और प्रबन्धन की पहल बीसवीं सदी के आरम्भ से ही शुरू हो गई थी। अविभाजित सम्भलपुर और कोरापुट जिलों ने इस पहल का नेतृत्व किया और ओडीशा के दूसरे जिलों के लिये उदाहरण कायम किया, जहाँ इसने अस्सी और नब्बे के दशक में गति पाई और धीरे-धीरे एक जनान्दोलन बन गया।
उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार ओडीशा राज्य में वनों के बीच या करीब स्थित 12000 गाँवों में से 5000 गाँव (ओडीशा में तकरीबन 51000 गाँव हैं) अपने करीब स्थित सरकारी वन भूमि का संरक्षण कर रहे हैं। वनों पर आधारित इन समुदायों की महिलाएँ अपनी आजीविका और आय के लिये बिक्री के माध्यम से गैर काष्ठ वनोपज (एनटीएफपी) को इकट्ठा करने पर व्यापक रूप से निर्भर हैं।
घरेलू उपयोग में आने वाले कन्द में पत्ती वाली सब्जियों, फलों और रसभरियों के अलावा पिचुली, कडाबा और तुंगा शामिल हैं। व्यावसायिक उपयोग के लिये गाँव वाले जंगल से सियाली की पत्तियाँ, शाल की पत्तियाँ और शाल के बीच इकट्ठा करते हैं।
वन सम्पदा के ह्रास के कारण जब समुदाय पर दिक्कतें आईं तो महिलाओं ने पारम्परिक संस्थागत प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाई। इन प्रक्रियाओं में एनटीएफपी तक पहुँच और उसके उपयोग के बारे में नियम बनाना, वन संरक्षण समितियों का गठन, चौकसी और वनों पर निगाह रखना और वनों को नुकसान पहुँचाने वाले दोषियों को दंड देना शामिल है।
गुंडूरिबाड़ी के आसपास तकरीबन 200 हेक्टेयर संरक्षित वन और 30 एकड़ ग्राम्य वन हुआ करता था। सन् 2012 में गाँव वालों ने सन् 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत संरक्षित वन और ग्राम्य वन पर अपने सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिये आवेदन किया। लेकिन उनमें से किसी को भी व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि एफआरए के तहत उनका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि एफआरए के तहत बने प्रावधान की बजाय वे किसी और किस्म की जमीन के लिये दावा कर रहे हैं।
गुंडूरिबाड़ी के लोग कहते हैं कि संरक्षण और संवर्धन के लिये वनों के सामुदायिक गश्त रिवाज 30 साल पुराना है। जैसा कि जान्हा प्रधान कहती हैं, “मेरी सास उन दिनों की भयानक कहानियाँ सुनाती हैं जब अकाल के दौरान भोजन के जबरदस्त संकट का सामना करना पड़ता था। तब वे वन विभाग के गार्डों से संरक्षित वनों में नजर बचाकर घुसती थीं ताकि अपने बच्चों और अन्य आश्रितों का पेट भरने के लिये किसी प्रकार कुछ कन्द ला सकें। एक और प्रहरी कमला प्रधान बताती हैं कि जब वे इस गाँव में बहू बनकर आईं तो देखा कि दूर-दूर से मर्द साता भाई की पहाड़ियों में लकड़ी के लिये खड़े पेड़ और छोटे-छोटे पौधे काटने के लिये चले आ रहे हैं। जिसके कारण जलावन की लकड़ी का जबरदस्त संकट पैदा हुआ और साता भाई वन का विनाश हुआ। लेकिन गाँव के पुरुष वनों की रक्षा के लिये सक्षम नहीं थे।
गाँव के एक बुजुर्ग अर्जुन प्रधान (70) बताते हैं कि पहले पुरुष ही वनों की रखवाली करते थे लेकिन अपनी दयालुता और मिलनसारिता के चलते गुंडूरबाड़ी के पुरुष उस समय खामोश रह जाते थे जब बाहरी लोग लकड़ी काटने आते थे। लेकिन जब तक पुरुषों ने अपनी गलती महसूस की तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इससे सामाजिक गतिशीलता में बदलाव आया और महिलाओं ने आगे आकर मोर्चा सम्भाला। इस प्रकार महिलाओं द्वारा वनों के संरक्षण और संवर्धन का एक युग आरम्भ हुआ। महिलाएँ इस छोटे से संसार की एक प्रहरी बन गईं और इससे इलाके में जबरदस्त परिवर्तन आया। पास के गाँव के पुरुषों द्वारा लकड़ी की कटाई में तेजी से कमी आई और फिर धीरे-धीरे वह बन्द हो गई।
उसके प्रभाव में समुदाय की अपनी पहल पर 1990 के दशक में एक वन संरक्षण समिति का गठन किया गया। इस कमेटी में 8 महिलाओं और चार पुरुषों समेत 12 सदस्य थे, जो वन प्रबन्धन और संवर्धन की प्रक्रिया के बारे में फैसला करते थे।
महिलाओं की गश्त आमतौर पर सुबह सात बजे शुरू होती थी और वे दोपहर बाद लौट आती थीं। अगर समुदाय रात में गश्त की जरूरत महसूस करता था तो गश्त का जिम्मा पुरुषों के कन्धों पर आ जाता था। जिन घरों में महिलाएँ सुबह गश्त के लिये जाती थीं वहाँ पर घरेलू काम बूढ़ी महिलाओं और छोटी लड़कियों द्वारा किया जाता था। पुरुष स्थानीय राशन की दुकानों या अन्य दुकानों से राशन लाते थे और फिर गश्त लगाने वाली महिलाओं के साथ लौटते हुए सूखी लकड़ियाँ ले आते थे। सब्जियों के लिये महिलाएँ घर के आसपास लगाई गई तरकारी की फसलों पर निर्भर करती थीं और वे जंगल के कुछ पत्ती वाली सब्जियाँ और कन्द जैसी वस्तुएँ भी ले आया करती थीं।
इस विशेष दिवस पर भारी बारिश की अनदेखी करते हुए प्रहरी महिलाएँ एक हाथ में डंडा, एक झोले में मुड़ी तुड़ी बोतल में पानी और खाने के लिये चिवड़ा और दूसरे में छाता लेकर गश्त पर निकल पड़ीं। रास्ते में वे जामुन से लदे पेड़ों और कदम, तुंगा या पिचुली वाले पेड़ों पर निगाह लगाती चलती हैं।
जामुन चूसते हुए सरोजिनी प्रधान संरक्षण का काम शुरू होने से पहले जंगल की जो स्थिति थी अब वह उससे कहीं ज्यादा विकसित हो गया है। यह पूछे जाने पर कि उन्हें जंगल में आकर कैसा लग रहा है तो वसंता नायक कहती हैं कि जंगल वह जगह है जहाँ पर वे उसी तरह खुलकर बात करती हैं जैसे मायके में करती थीं। चिड़ियों की चहचहाट, पेड़ों की पत्तियों को पार करके आती हवा की सरसराहट और जानवरों की भागदौड़- यह सब उन्हें जबरदस्त आनन्द देता है।
थोड़ा विश्राम करने के बाद प्रहरी अपना काम शुरू कर देती हैं। वन ज्यादा घना हो गया है इसलिये कुछ भी दिखाई पड़ने में समय लगता है। तभी एक महिला देखती है कि एक पुरुष छोटे से पेड़ को काट रहा है। यह देखकर वह बाकी महिलाओं को चौकस करती है और वे उस पुरुष को सहयोगी के साथ पकड़ लेती हैं। जान्हा प्रधान कुछ कदम आगे बढ़ती हैं और देखती हैं कि एक आटो पर कुछ लकड़ी और लताएँ लदी हुई हैं।
एक सन्तरी गुरेई प्रधान (38) कहती हैं, ``हम वनों को अपने बच्चों की तरह मानते हैं, हम उसकी परवाह करते हैं, संरक्षण करते हैं और अपने बच्चे की तरह उसे बचाते हैं। अगर कोई उसे नुकसान पहुँचाता है तो उसे दंड मिलना चाहिए। हम उसे किसी भी कीमत पर छोड़ने वाले नहीं हैं। लकड़ी और आटो जब्त करने के बाद महिलाएँ उन व्यक्तियों को पकड़ कर गाँव लाती हैं। पता चलता है कि वे पुरुष बगल के गाँव के हैं। महिलाओं द्वारा कड़ी पूछताछ और फटकार के बाद वे लोग माफी माँगते हैं और कसम खाते हैं कि वे भविष्य में फिर कभी भी गाँव की वन संरक्षण समिति से पूछे बिना जंगल में नहीं घुसेंगे। काफी चर्चा के बाद सन्तरी उन लोगों को इस शर्त पर जाने देती हैं कि वे दोबारा जंगल से लकड़ी नहीं चुराएँगे।
गुंडूरिबाड़ी की महिलाओं के लिए एफआरए ने वनों से एक अटूट रिश्ता जोड़ दिया है।
एफआरए की धारा 3(1)(आई) वनों पर उस समुदाय के अधिकार को मान्यता देता है जो उसकी सुरक्षा और प्रबन्धन करता है। धारा 5 समुदाय को यह अधिकार देती है कि वह वनों का संरक्षण करे, प्रबन्धन करे और उनका संवर्धन करे, जबकि धारा 4(1)(ई) का कानून समुदाय को एक प्रबन्धन समिति और संरक्षण समिति बनाने का अधिकार देता है। यह सारे कानून गुंडूरिबाड़ी में व्यावहारिक उदाहरण के तौर पर मौजूद हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि एफआरए 2006 ने महिलाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करने में कामयाबी हासिल की है जहाँ महिलाएँ अपनी राय दे सकें और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी कर सकें। गुंडूरिबाड़ी के उदाहरण को अपनाते हुए पड़ोस की दर्पनारायणपुर, सिंदुरिया, कोडालपल्ली और केंदुधिपी जैसे गाँवों की महिलाओं ने अपने वनों की रक्षा के लिये सक्रिय भूमिका अपनाई है। उसी के साथ उन्होंने अपने संरक्षण वाले सामुदायिक वनों पर अपना दावा ठोंक दिया है।
1. एम सरीन (1995) रिजनरेटिंग इंडियाज फारेस्टः रिकानसाइलिंग इक्विटी विथ ज्वाइन फारेस्ट मैनेजमेंट, आइडीएस बुलेटिन वाल्यूम 26 नम्बर 1।
2. नीरा एम सिंह (2001) वूमेन एंड कम्यूनिटी फॉरेस्ट इन ओडीशाः राइट्स एंड मैनेजमेंट। इंडियन जरनल आफ जेंडर स्टडीज सितम्बर 2001 वाल्यूम 8, नम्बर 2, 257-270।
3. केके सिरीपुरापू एंड एस मिश्रा , 2010, कम्युनिटी बेस्ड फारेस्ट गवर्नेंस सिस्टम इन ओडीशा, पालिसी मैटर्स –द आईयूसीएन-सीईईएसपी, न्यूजलेटर, दिसंबर 2010।
4. मधु सरीन, नीरा एम सिंह , नंदिनी सुंदुर एंड रानू के भोपाल, 2003, डिवाल्यूशन एज ए थ्रीट टू डेमोक्रेटिक डिसीजन मेकिंग इन फारेस्ट्री? फाइंडिंग फ्राम थ्री स्टेट्स इन इंडिया। ओवरसीज डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट, 111 वेस्टमिनिस्टर ब्रिज रोड, लंदन एसई 17 जेडी, यूके।
5-एम गुप्ते (2004) पार्टिसिपेशन इन जेंडर मूवमेंटः द केस आफ कम्यूनिटी फारेस्ट्री इन इण्डिया, ह्यूमन इकोलाजी, वाल्यूम. 32, नम्बर 3, जून 2004।
सोनाली पटनायक, भुवनेश्वर की शोध छात्रा, वे इस आलेख के लिये सहयोग और सलाह देने के लिये सुब्रत कुमार नायक, चित्रा रंजन पाणि और शोध का मौका दिये जाने के लिये अपने मौजूदा संगठन वसुन्धरा की आभारी हैं।
ओडीशा में वन संसाधन के पतन और निरन्तर ह्रास के कारण समुदाय आधारित वन संरक्षण और प्रबन्धन की पहल बीसवीं सदी के आरम्भ से ही शुरू हो गई थी। अविभाजित सम्भलपुर और कोरापुट जिलों ने इस पहल का नेतृत्व किया और ओडीशा के दूसरे जिलों के लिये उदाहरण कायम किया, जहाँ इसने अस्सी और नब्बे के दशक में गति पाई और धीरे-धीरे एक जनान्दोलन बन गया।
उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार ओडीशा राज्य में वनों के बीच या करीब स्थित 12000 गाँवों में से 5000 गाँव (ओडीशा में तकरीबन 51000 गाँव हैं) अपने करीब स्थित सरकारी वन भूमि का संरक्षण कर रहे हैं। वनों पर आधारित इन समुदायों की महिलाएँ अपनी आजीविका और आय के लिये बिक्री के माध्यम से गैर काष्ठ वनोपज (एनटीएफपी) को इकट्ठा करने पर व्यापक रूप से निर्भर हैं।
घरेलू उपयोग में आने वाले कन्द में पत्ती वाली सब्जियों, फलों और रसभरियों के अलावा पिचुली, कडाबा और तुंगा शामिल हैं। व्यावसायिक उपयोग के लिये गाँव वाले जंगल से सियाली की पत्तियाँ, शाल की पत्तियाँ और शाल के बीच इकट्ठा करते हैं।
वन सम्पदा के ह्रास के कारण जब समुदाय पर दिक्कतें आईं तो महिलाओं ने पारम्परिक संस्थागत प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाई। इन प्रक्रियाओं में एनटीएफपी तक पहुँच और उसके उपयोग के बारे में नियम बनाना, वन संरक्षण समितियों का गठन, चौकसी और वनों पर निगाह रखना और वनों को नुकसान पहुँचाने वाले दोषियों को दंड देना शामिल है।
गुंडूरिबाड़ी के आसपास तकरीबन 200 हेक्टेयर संरक्षित वन और 30 एकड़ ग्राम्य वन हुआ करता था। सन् 2012 में गाँव वालों ने सन् 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत संरक्षित वन और ग्राम्य वन पर अपने सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिये आवेदन किया। लेकिन उनमें से किसी को भी व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि एफआरए के तहत उनका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि एफआरए के तहत बने प्रावधान की बजाय वे किसी और किस्म की जमीन के लिये दावा कर रहे हैं।
वन की बहू से संरक्षक बनीं
गुंडूरिबाड़ी के लोग कहते हैं कि संरक्षण और संवर्धन के लिये वनों के सामुदायिक गश्त रिवाज 30 साल पुराना है। जैसा कि जान्हा प्रधान कहती हैं, “मेरी सास उन दिनों की भयानक कहानियाँ सुनाती हैं जब अकाल के दौरान भोजन के जबरदस्त संकट का सामना करना पड़ता था। तब वे वन विभाग के गार्डों से संरक्षित वनों में नजर बचाकर घुसती थीं ताकि अपने बच्चों और अन्य आश्रितों का पेट भरने के लिये किसी प्रकार कुछ कन्द ला सकें। एक और प्रहरी कमला प्रधान बताती हैं कि जब वे इस गाँव में बहू बनकर आईं तो देखा कि दूर-दूर से मर्द साता भाई की पहाड़ियों में लकड़ी के लिये खड़े पेड़ और छोटे-छोटे पौधे काटने के लिये चले आ रहे हैं। जिसके कारण जलावन की लकड़ी का जबरदस्त संकट पैदा हुआ और साता भाई वन का विनाश हुआ। लेकिन गाँव के पुरुष वनों की रक्षा के लिये सक्षम नहीं थे।
गाँव के एक बुजुर्ग अर्जुन प्रधान (70) बताते हैं कि पहले पुरुष ही वनों की रखवाली करते थे लेकिन अपनी दयालुता और मिलनसारिता के चलते गुंडूरबाड़ी के पुरुष उस समय खामोश रह जाते थे जब बाहरी लोग लकड़ी काटने आते थे। लेकिन जब तक पुरुषों ने अपनी गलती महसूस की तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इससे सामाजिक गतिशीलता में बदलाव आया और महिलाओं ने आगे आकर मोर्चा सम्भाला। इस प्रकार महिलाओं द्वारा वनों के संरक्षण और संवर्धन का एक युग आरम्भ हुआ। महिलाएँ इस छोटे से संसार की एक प्रहरी बन गईं और इससे इलाके में जबरदस्त परिवर्तन आया। पास के गाँव के पुरुषों द्वारा लकड़ी की कटाई में तेजी से कमी आई और फिर धीरे-धीरे वह बन्द हो गई।
उसके प्रभाव में समुदाय की अपनी पहल पर 1990 के दशक में एक वन संरक्षण समिति का गठन किया गया। इस कमेटी में 8 महिलाओं और चार पुरुषों समेत 12 सदस्य थे, जो वन प्रबन्धन और संवर्धन की प्रक्रिया के बारे में फैसला करते थे।
महिलाओं की गश्त आमतौर पर सुबह सात बजे शुरू होती थी और वे दोपहर बाद लौट आती थीं। अगर समुदाय रात में गश्त की जरूरत महसूस करता था तो गश्त का जिम्मा पुरुषों के कन्धों पर आ जाता था। जिन घरों में महिलाएँ सुबह गश्त के लिये जाती थीं वहाँ पर घरेलू काम बूढ़ी महिलाओं और छोटी लड़कियों द्वारा किया जाता था। पुरुष स्थानीय राशन की दुकानों या अन्य दुकानों से राशन लाते थे और फिर गश्त लगाने वाली महिलाओं के साथ लौटते हुए सूखी लकड़ियाँ ले आते थे। सब्जियों के लिये महिलाएँ घर के आसपास लगाई गई तरकारी की फसलों पर निर्भर करती थीं और वे जंगल के कुछ पत्ती वाली सब्जियाँ और कन्द जैसी वस्तुएँ भी ले आया करती थीं।
गश्त
इस विशेष दिवस पर भारी बारिश की अनदेखी करते हुए प्रहरी महिलाएँ एक हाथ में डंडा, एक झोले में मुड़ी तुड़ी बोतल में पानी और खाने के लिये चिवड़ा और दूसरे में छाता लेकर गश्त पर निकल पड़ीं। रास्ते में वे जामुन से लदे पेड़ों और कदम, तुंगा या पिचुली वाले पेड़ों पर निगाह लगाती चलती हैं।
जामुन चूसते हुए सरोजिनी प्रधान संरक्षण का काम शुरू होने से पहले जंगल की जो स्थिति थी अब वह उससे कहीं ज्यादा विकसित हो गया है। यह पूछे जाने पर कि उन्हें जंगल में आकर कैसा लग रहा है तो वसंता नायक कहती हैं कि जंगल वह जगह है जहाँ पर वे उसी तरह खुलकर बात करती हैं जैसे मायके में करती थीं। चिड़ियों की चहचहाट, पेड़ों की पत्तियों को पार करके आती हवा की सरसराहट और जानवरों की भागदौड़- यह सब उन्हें जबरदस्त आनन्द देता है।
प्रहरियों की प्रगति
थोड़ा विश्राम करने के बाद प्रहरी अपना काम शुरू कर देती हैं। वन ज्यादा घना हो गया है इसलिये कुछ भी दिखाई पड़ने में समय लगता है। तभी एक महिला देखती है कि एक पुरुष छोटे से पेड़ को काट रहा है। यह देखकर वह बाकी महिलाओं को चौकस करती है और वे उस पुरुष को सहयोगी के साथ पकड़ लेती हैं। जान्हा प्रधान कुछ कदम आगे बढ़ती हैं और देखती हैं कि एक आटो पर कुछ लकड़ी और लताएँ लदी हुई हैं।
एक सन्तरी गुरेई प्रधान (38) कहती हैं, ``हम वनों को अपने बच्चों की तरह मानते हैं, हम उसकी परवाह करते हैं, संरक्षण करते हैं और अपने बच्चे की तरह उसे बचाते हैं। अगर कोई उसे नुकसान पहुँचाता है तो उसे दंड मिलना चाहिए। हम उसे किसी भी कीमत पर छोड़ने वाले नहीं हैं। लकड़ी और आटो जब्त करने के बाद महिलाएँ उन व्यक्तियों को पकड़ कर गाँव लाती हैं। पता चलता है कि वे पुरुष बगल के गाँव के हैं। महिलाओं द्वारा कड़ी पूछताछ और फटकार के बाद वे लोग माफी माँगते हैं और कसम खाते हैं कि वे भविष्य में फिर कभी भी गाँव की वन संरक्षण समिति से पूछे बिना जंगल में नहीं घुसेंगे। काफी चर्चा के बाद सन्तरी उन लोगों को इस शर्त पर जाने देती हैं कि वे दोबारा जंगल से लकड़ी नहीं चुराएँगे।
भावी दृष्टि
गुंडूरिबाड़ी की महिलाओं के लिए एफआरए ने वनों से एक अटूट रिश्ता जोड़ दिया है।
एफआरए की धारा 3(1)(आई) वनों पर उस समुदाय के अधिकार को मान्यता देता है जो उसकी सुरक्षा और प्रबन्धन करता है। धारा 5 समुदाय को यह अधिकार देती है कि वह वनों का संरक्षण करे, प्रबन्धन करे और उनका संवर्धन करे, जबकि धारा 4(1)(ई) का कानून समुदाय को एक प्रबन्धन समिति और संरक्षण समिति बनाने का अधिकार देता है। यह सारे कानून गुंडूरिबाड़ी में व्यावहारिक उदाहरण के तौर पर मौजूद हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि एफआरए 2006 ने महिलाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करने में कामयाबी हासिल की है जहाँ महिलाएँ अपनी राय दे सकें और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी कर सकें। गुंडूरिबाड़ी के उदाहरण को अपनाते हुए पड़ोस की दर्पनारायणपुर, सिंदुरिया, कोडालपल्ली और केंदुधिपी जैसे गाँवों की महिलाओं ने अपने वनों की रक्षा के लिये सक्रिय भूमिका अपनाई है। उसी के साथ उन्होंने अपने संरक्षण वाले सामुदायिक वनों पर अपना दावा ठोंक दिया है।
सन्दर्भ और अन्य अध्ययन सामग्री
1. एम सरीन (1995) रिजनरेटिंग इंडियाज फारेस्टः रिकानसाइलिंग इक्विटी विथ ज्वाइन फारेस्ट मैनेजमेंट, आइडीएस बुलेटिन वाल्यूम 26 नम्बर 1।
2. नीरा एम सिंह (2001) वूमेन एंड कम्यूनिटी फॉरेस्ट इन ओडीशाः राइट्स एंड मैनेजमेंट। इंडियन जरनल आफ जेंडर स्टडीज सितम्बर 2001 वाल्यूम 8, नम्बर 2, 257-270।
3. केके सिरीपुरापू एंड एस मिश्रा , 2010, कम्युनिटी बेस्ड फारेस्ट गवर्नेंस सिस्टम इन ओडीशा, पालिसी मैटर्स –द आईयूसीएन-सीईईएसपी, न्यूजलेटर, दिसंबर 2010।
4. मधु सरीन, नीरा एम सिंह , नंदिनी सुंदुर एंड रानू के भोपाल, 2003, डिवाल्यूशन एज ए थ्रीट टू डेमोक्रेटिक डिसीजन मेकिंग इन फारेस्ट्री? फाइंडिंग फ्राम थ्री स्टेट्स इन इंडिया। ओवरसीज डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट, 111 वेस्टमिनिस्टर ब्रिज रोड, लंदन एसई 17 जेडी, यूके।
5-एम गुप्ते (2004) पार्टिसिपेशन इन जेंडर मूवमेंटः द केस आफ कम्यूनिटी फारेस्ट्री इन इण्डिया, ह्यूमन इकोलाजी, वाल्यूम. 32, नम्बर 3, जून 2004।
सोनाली पटनायक, भुवनेश्वर की शोध छात्रा, वे इस आलेख के लिये सहयोग और सलाह देने के लिये सुब्रत कुमार नायक, चित्रा रंजन पाणि और शोध का मौका दिये जाने के लिये अपने मौजूदा संगठन वसुन्धरा की आभारी हैं।
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