• साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।
• यह विधेयक साल २००५ में भी संसद में पेश किया गया था, फिर इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए जिसमें अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ अन्य पंरपरागत वनवासी समुदायों को भी इस अधिकार विधेयक के दायरे में लाना शामिल है।
मूल विधेयक में कट-ऑफ डेट (वह तारीख जिसे कानून लागू करने पर गणना के लिए आधार माना जाएगा) ३१ दिसंबर, १९८० तय की गई थी जिसे बदलकर संशोधित विधेयक में १३ दिसंबर, २००५ कर दिया गया।
• परंपरागत वनवासी समुदाय का सदस्य वनभूमि पर अधिकार अथवा वनोपज को एकत्र करने और उसे बेचने का अधिकार पाने के योग्य तभी माना जाएगा जब वह तीन पीढ़ियों से वनभूमि के अन्तर्गत परिभाषित जमीन पर रहता हो। कानून के मुताबिक प्रत्येक परिवार ४ हेक्टेयर की जमीन पर मिल्कियत दी जाएगी जबकि पिछले विधेयक में २.५ हेक्टेयर जमीन देने की बात कही गई थी।
एशियन इंडीजिनस एंड ट्राइबल पीपलस् नामक सूचना स्रोत के अनुसार-http://www.aitpn.org/Issues/II-09-06-Forest.pdf
वनाधिकार कानून का इतिहास
• २५ अक्तूबर १९८० की अर्धरात्रि को भारत सरकार ने वन-संरक्षण अधिनियम को मंजूर किया और इस कानून की मंजूरी के साथ ही हजारो वनवासी और जनजातीय लोग रातोरात उसी जमीन पर अवैध निवासी बन गये जिसपर वे पीढियों से रहते आ रहे थे। कुछेक वनवासियों के अधिकार बने रहे। लगभग २५ सालों तक हजारों लोग अपनी ही जमीन पर अवैध निवासी बने रहे मगर सरकार ने वनभूमि पर वनवासी समुदायों के परंपरागत अधिकार की न तो पहचान की और ना ही उसे मंजूर किया। वन संरक्षण कानून और इसी से जुड़े वन और पर्यावरण मंत्रालय के दिशानिर्देशों में वनभूमि पर वनवासी समुदायों के जिन परंपरागत अधिकार को मान्यता दी गई थी उन्हें भी सरकार ने सीमित करने के प्रयास किये।
• सुप्रीम कोर्ट ने गोदावर्मन तिरुमलपद बनाम भारत सरकार के मुकदमे में फैसला दिया था कि जनजातीय राजस्व-जिलों(रेवेन्यू विलेज) का नियमितीकरण नहीं किया जाए।इसी फैसले के प्रत्युत्तर में अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक लाया गया।
• सुप्रीम कोर्ट ने जनजातीय राजस्व-जिलों के नियमतीकरण पर स्थगन का आदेश २३ नवंबर २००१ को सुनाया। इस फैसले से एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हुई। सभी वनवासी चाहे १९८० के वन-संरक्षण कानून में उनके अधिकारों को मान्यता दी गई हो या नहीं, कानूनी तौर विलुप्त की श्रेणी में आ गये।
• विधेयक १३ दिसंबर २००५ को द शिड्यूल्ड ट्राइव्स् (रिकॉग्नीशन ऑव फॉरेस्ट राइट्स्) बिल नाम से संसद में पेश हुआ. एक साल तक इस पर बड़ी तीखी बहस चली और इसका नाम बदलकर द शिड्यूल्ड ट्राइव्स् एंड अदर टेड्रीशनल फ़ॉरेस्ट डेवेलरस (रिकॉग्नीशन ऑव फॉरेस्ट राइट्स्),२००६ रखा गया। देश के निचले सदन(लोकसभा) ने इसे १३ दिसंबर २००६ को पास किया। २९ दिसंबर २००६ को भारत के राष्ट्रपति ने इसपर मुहर लगायी और यह कानून प्रभावी हो गया।
• साल २००५ में विधेयक संसद में पेश किया गया था और साल २००६ के दिसंबर में यह कानून की शक्ल में आ सका। इस बीच जो बहस इस विधेयक को लेकर चली उससे साप स्पष्ट हो गया कि जनजातीय समुदाय को लेकर गैर-जनजातीय समुदाय में बड़े गहरे पूर्वग्रह मौजूद हैं और जमीन पर उनकी हकदारी की मंजूरी में आड़े आ रहे हैं।
• वनाधिकार कानून के पुराने प्रारुप(२००५) का दो हितसमूहों ने विरोध किया। कुछ प्रयावरणवादियों का कहना था कि जैव-विविधता, वन्य-जीव और वन का पर्यावरण के लिहाज से प्रबंधन जनजातीय लोगों और अन्य वनवासी समुदायों के बिना किया जाना चाहिए। यह बात रियो घोषणा के ठीक उलट थी। दूसरी तरफ वन और प्रयावरण मंत्रालय का तर्क था कि अगर जनजातीय और अन्य परंपरागत वनसमुदाय को वनभूमि और वनोपज पर अधिकार दिए गए तो देश के वनाच्छादन (फॉरेस्टकवर) में १६ फीसदी की कमी आयेगी। यह तर्क भी बड़ा लचर था क्योंकि देश का ६० फीसदी वनाच्छादन कुल १८७ जनजातीय जिलों में पड़ता है जबकि इन जिलों में देश की महज ८ फीसदी जनसंख्या निवास करती है। इससे पता चलता है कि जनजातीय लोगों ने जंगल को बचाकर रखा है और उनकी संस्कृति में जंगल को बचाने के गुण हैं।
• एक तरफ जनजातियां हैं जिनकी संस्कृति जंगल बचाने की है, दूसरी तरफ है वन और पर्यावरण मंत्रालय जिसने कुल अधिगृहीत वनभूमि का ७३ फीसदी हिस्सा (९.८१ लाख हेक्टेयर) गैर-वनीय गतिविधियों यानी औद्योगिक और विकास परियोजनाओं के खाते में डाल रखा है।
• साल २००५ में पेश किए गए मसौदे पर जब आपत्तियां उठीं तो इसे एक संयुक्त पार्लियामानी समिति के हाथो सौंप दिया गया जिसकी अध्यक्षता वी किशोर चंद्र एस देव(कांग्रेस पार्टी) कर रहे थे।
• २३ मई २००६ को इस समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें कट-ऑव डेट, प्रत्येक परिवार को दी जाने वाली जमीन की माप, ग्राम सभा की मजबूती सहित अन्य परंपरागत वनवासी समुदायों को विधेयक के दायरे में शामिल करने के बारे में सुझाव दिए गए थे।
क्या मिला-क्या नहीं मिला?
• पुराने विधेयक के नाम से सूचना मिल रही थी कि जनजातीय समुदाय और वन के बीच एक आत्यांतिक रिश्ता है। इस रिश्ते को साल १९८८ की वननीति में भी रेखांकित किया गया था। मौजूदा अधिनियम इस रिश्ते को कमजोर करता है क्योंकि इसमें अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय नामक पद जोड़ दिया गया है। मौजूदा कानून अब सिर्फ जनजातीय की अधिकारिता पर केंद्रित नहीं है जैसा कि इस कानून का मसौदा तैयार करते वक्त मंशा जतायी गई थी।
• जंगल और जनजातीय समुदाय एक तरह से प्रयायवाची के रुप में इस्तेमाल होते हैं यानी दोनों को अलगाया नहीं जा सकता जबकि यही बात अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय के बारे में नहीं कही जा सकती।
• जनजातीयों का जंगल से भावनात्मक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक जुड़ाव है। वे हमेशा से वनवासी रहे हैं जबकि गैर जनजातीय अन्य पंरपरागत वनवासी समुदाय वनोपज को अपनी आजीविका का आधार तब बनाते हैं जब उनके पास और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता।
मौजूदा कानून में अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय को बढ़त देने के लिए कट ऑव डेट बढ़ा दी गई है।
• पहले के मसौदे में यह तारीख २५ अक्तूबर १९८० थी मगर अब के कानून में यह तारीख १३ दिसंबर २००५ है।
• बढ़ी हुई तारीख से अन्य परंपरागत वनसमुदाय के नाम से परिभाषित समूहों को फायदा मिलेगा। कानून में कहा गया है कि इस समुदाय के लोगों को वनोपज या वनभूमि पर मिल्कियत की दावेदारी के लिए साबित करना होगा कि वे तीन पीढियों से वनभूमि पर रह रहे हैं। तारीख के बढ़ने से ऐसे समुदायों को पूरी एक पीढ़ी का फायदा पहुंचा है।
• साल १९८० के वन-संरक्षण कानून के प्रावधानों के कारण हजारों जनजातीय लोग आपराधिक आरोपों के दायरे में आ गए हैं। इस कानून के कारण उनपर वनोपज को चुराने और अवैध कब्जा करने के आरोप लगे हैं। साल २००६ में जो वनाधिकार कानून पास हुआ उसमें इस बात की पहचान ही नहीं की गई है कि वन-संरक्षण कानून जनजातीयों के अधिकारों को छीनता है और उन्हें अपराधी करार देता है। साल २००६ का कानून जनजातीय को वनोपज और वनभूमि पर अधिकारलतो देता है लेकिन उन पर लगे आरोपों से मुक्ति नहीं।नये कानून में ऐसा कोई विधान नहीं है कि जनजातीय समूहों पर लगे आरोपों को हटा लिया जाएगा।
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