वनाधिकार पर आयोजित सम्मेलन

वनाधिकार पर आयोजित सम्मेलन में भाग लेते प्रबुद्धजन
वनाधिकार पर आयोजित सम्मेलन में भाग लेते प्रबुद्धजन
अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय (वनाधिकारों को मान्यता) कानून 2006 के प्रभावी क्रियान्वन के लिए वनाश्रित समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ राजनैतिक पहल करने के लिए राज्य सभा व लोकसभा के सांसदों के साथ एक वार्ता 23 जुलाई 2012, डिप्टी स्पीकर हाल, कांस्टीटयुशन कल्ब, नई दिल्ली, सांय 4 से 7 बजे में राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच द्वारा आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में राज्य सभा के सदस्य जनता दल युनाईड के अली अनवर, बसपा से एस0पी0एस बाघेल, लोकसभा के सदस्य राबर्टसगंज लोकसभा के समाजवादी पार्टी के सांसद पकौड़ी कोल, समाजवादी पार्टी के युवा विंग के राष्ट्रीय सचिव धनंजय व उत्तरप्रदेश के पूर्व राज्य मंत्री संजय गर्ग उपस्थित हुए। इस वार्ता का मुख्य मकसद सांसदों का देश के राज्यों से आए वनक्षेत्रों के प्रतिनिधियों को वनाधिकार कानून 2006 के क्रियान्वन के आ रही दिक्कतों व राजनैतिक स्तर पर पहल करने के लिए आयोजित किया गया था।

इस कार्यक्रम में देश के 16 राज्यों से लगभग 100 प्रतिनिधि शामिल हुए जिसमें उड़ीसा, झारखंड, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, अरूणांचल प्रदेश, त्रिपुरा, उत्तराखंड, असम, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छतीसगढ़ के प्रतिनिधि शामिल थे। साथ ही इस कार्यक्रम में कई संगठनों ने प्रतिनिधित्व किया व मीडिया के साथी भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच की राष्ट्रीय अध्यक्षा जारजुम एटे ने की। कार्यक्रम का संचालन संजय गर्ग ने किया जिन्होंने विषय प्रस्तुत किया व वनाधिकार के सवालों पर कार्य करने वाले जनसंगठनों व प्रतिनिधियों के साथ इस वार्ता के आयोजन का उद्देश्य बताया। उन्होंने काफी मजबूती से कहा कि देश में संसद के दोनों सदनों ने दिसम्बर 2006 में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय (वनाधिकारों को मान्यता) कानून 2006 को सर्वसम्मति से पारित किया था।

यह कानून एक ऐतिहासिक विधेयक है क्योंकि कानून की प्रस्तावना में वनाश्रित समुदाय के साथ हो रहे ऐतिहासिक अन्याय के खत्म करने की घोषणा की गई है। हमारी संसदीय गणतंत्र में वनाश्रित समुदायों के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसकी वजह से उन्हें आजादी के 60 वर्ष बाद पहली बार आजाद होने का एहसास हुआ और सदियों से वंचित समुदायों में मुख्य धारा में अपना हिस्सा पाने के लिए उत्साह पैदा हुआ। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि कानून के पारित होने के पांच साल बाद भी वनाश्रित समुदाय को वो आजादी नहीं मिली बल्कि उनके उपर वनविभाग, सांमतों और वनमाफियाओं के जुल्म लगातार बढ़ रहे हैं। वनाश्रित समुदायों में आंदोलनरत तमाम संगठनों ने और उनके शुभचिंतक प्रगतिशील व्यक्तियों ने बार-बार इस मुददे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। यह भी सच्चाई सामने आ रही कि वनविभाग और निहित स्वार्थों खुलकर संसद के द्वारा पारित ऐतिहासिक निर्णय की अवमानना कर रहे हैं और ऐतिहासिक अन्याय की प्रक्रिया को जारी रख कर वनाश्रित समुदाय को उनके अधिकार पाने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर सांसदों से यह उम्मीद की जा रही है कि वे कानून को लागू करने की प्रक्रिया में अपनी अहम भूमिका निभाए संसद के अंदर और बाहर भी। राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के वरिष्ठ साथी व न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के अध्यक्ष डी थंगप्पन ने वनाधिकार कानून के संदर्भ में अभी 12 जुलाई 2012 को जारी आदिवासी मंत्रालय के नए दिशा निर्देश के बारे में स्वागत करते हुए लघुवनोपज को वननिगम और बिचौलियों से मुक्त कराने के लिए ठोस पहल करने के सुझाव दिए। उन्होंने बोला कि अब वो समय आ गया है जब ग्राम सभा को मजबूत किया जाए व वनसंसाधनों को लोगों के हाथों में सौंपा जाए व मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में महिलाओं द्वारा दिए गए नारे वनविभाग को भगाओ पर अमल किया जाए।

इसके लिए आदिवासी मंत्रालय द्वारा जारी निर्देशों को जारी करना ही काफी नहीं होगा बल्कि इसके लिए वनसमुदाय के साथ काम कर के उनकी सहकारी समितियों को बना कर ही वननिगम व बिचौलियों को दूर किया जा सकता है। लेकिन हमारे देश में सहकारी समितियों में सरकारी दखल की वजह से यह आंदेालन कभी कामयाब नहीं हो पाया। इसलिए सहकारी समितियों के संदर्भ में कई नयी नीतियों को लाना होगा व मौजूदा सहकारी समितियों के कानून में बदलाव लाना होगा। इस काम के लिए सांसदों की अहम भूमिका होगी और उनको इस काम में वनाश्रित समुदाय के साथ काम कर रहे संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है। वनों के अंदर सामुदायिक वनाधिकारों के वनस्वशासन एवं लघुवनोपज पर नियंत्रण कायम करने के लिए समुदाय के साथ कई स्तर पर एवं नीति के स्तर पर भी कई राजनैतिक पहल करनी होगी जिसमें सांसदों की एक अहम भूमिका होगी चूंकि यह कानून केवल वनाश्रित समुदाय के लिए बल्कि पूरे नागरिक समाज के लिए है इसलिए पर्यावरण, जंगल व पूरे प्रकृति को बचाने की जंग है।

दक्षिण भारत से आए आदिवासी परिषद के के0कृष्णन ने बताया कि वनविभाग आज भी देश का सबसे बड़ा जमींदार है व आज भी वनों के अंदर अंग्रेजी शासन चलता है। यह विभाग नहीं चाहता कि देश में वनाधिकार कानून लागू हो, ऐसा नहीं कि इस बात को सरकार न जानती हो लेकिन संसद में तो यह कानून पास हो गया पर जमींनी स्तर पर इस कानून का क्या हश्र हो रहा है इसके बारे में संसद द्वारा किसी भी प्रकार की निगरानी नहीं की जा रही। इसलिए सांसदों से यह अपेक्षा की जा रही है कि इस तरह के कानूनों के लिए संसद के अंदर विस्तृत बहस चलाए व संसद के अन्य सांसदों को संवेदनशील बनाए।

असम से आए कृषक मुक्ति संग्राम समिति के अखिल गोगई में असम सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को लेकर जो कोताही बरती जा रही है उसके बारे में बताया। उन्होंने बताया कि असम सरकार एक उच्च न्यायालय के आंदेश का हवाला देती है व कहती है कि असम में रहने वाले आदिवासी वनाश्रित समुदाय है ही नहीं और वहीं दूसरी और अन्य परम्परागत वनसमुदाय के लिए 75 वर्ष के प्रमाण का प्रावधान लगा कर वनाश्रित समुदाय के साथ गैरसंवैधानिक कार्य किया है। 75 वर्ष का प्रावधान लोकतंत्र की मंशा के खिलाफ है व उपनिवेशिव मानसिकता का प्रतीक है ऐसे में यह कानून किस प्रकार से लागू होगा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अभी हाल ही में आदिवासी मंत्रालय द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देश में अन्य परम्परागत समुदाय के बारे में कुछ भी नहीं है देश में अनुसूचित जनजाति से कहीं ज्यादा तादात तो अन्य परम्परागत समुदाय की है। इस समुदाय में ऐसे कई आदिवासी समुदाय भी है जिन्हें आज तक अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिए एक बार फिर ऐतिहासिक अन्याय दोहराया जा रहा है। माननीय सांसदों से उन्होंने अपील की कि वे इस मसले को संसद में उठाए व इस कानून में दिए गए 75 वर्ष के प्रावधान को हटा कर वनों में रहने वाले लोगों के लिए एक ही समय सीमा दिसम्बर 2005 निर्धारित किया जाए व इस कानून को गंभीरता से लागू कराने की मुहिम चलाए।

वक्ताओं की बातों को सुनकर माननीय सांसदों ने अपनी वक्तवयों को रखा पहले अली अनवर ने कानून के बनने और लागू होने में सरकारों व सरकारी तंत्र की अक्षमता के बारे में चर्चा की और कहा कि आज की राजनीति में काफी बदलाव आ चुका आज जल, जंगल और जमींन का मुददा किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में नहीं है। उन्होंने संजय गर्ग से सहमति जताते हुए कहा कि यह दो मानसिकता की लड़ाई है एक लड़ाई जो बचा रहे हैं उनकी और दूसरी उनसे जो कि इन संसाधानों को उजाड़ रहे हैं। इसलिए यह दो सभ्यताओं की लड़ाई हैं। आज ऐसा दौर है कि कोई सुनने को तैयार नहीं है, जो जनता के कानून है वो जल्दी से लागू नहीं होते पर जो कानून कारपोरेट से सम्बन्धित हैं उनके ऊपर फौरन अमल होता है। उन्होंने यह भी कहा कि सांसद होने के नाते भी कुछ सीमाए हैं जहां पर एक स्तर तक ही जा कर काम हो सकता है इसलिए अपने कानून को लागू कराने के लिए जनता को ही पहल करनी होगी, और आंदोलन के तहत सरकारों का तख्ता पलट हो सकता है।

सांसद पकौड़ी कोल जो कि खुद भी आदिवासी समुदाय से हैं ने अपनी बेबाक शैली से सभी उपस्थित सदस्यों का मन मोह लिया। उन्होंने कहा कि अब ऐसे काम नहीं चलने वाला जो कानून जनता के पक्ष के लागू नहीं होते उसे लागू कराने के लिए संसद की कार्यवाही को ठप कराना होगा, हंगामा कर दोनों सदनों की कार्यवाही को जब तक बंद नहीं कराया जाएगा तब तक सरकार नहीं सुनेगी। इसलिए इस काम के लिए हमें संसद के अंदर और संसद के बाहर दोनों जगह आवाज उठानी होगी। उन्होंने कहा कि वे इस सवाल पर देश में काम कर रहे तमाम संगठनों और सांसदों की एक मिंटिंग अपने खर्चे पर बुलाएंगे और वनाधिकार कानून के मुद्दे पर जागृत करने का काम करेंगे। उन्होंने कहा कि जहां भी देश में इस कानून के विषय पर बुलाया जाएगा वे इस मुददे के लिए सभी प्रदेशों में जाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि जंगल को वनविभाग बेच कर खा रहा है लोग तो जंगलों को बचाते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव से भी बात करेंगे।

एस0पी0एस बाघेल ने भी काफी गंभीरता से वनाधिकार मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए। बाघेल तीन बार लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं व मौजूदा समय में राज्यसभा के अध्यक्ष हैं। उन्होंने आयोजकों को धन्यवाद देते हुए कहा कि मंच के कुछ कार्यक्रमों में शामिल होने से उन्हें वनाधिकार जैसे गंभीर मुद्दे से रू-ब-रू होने का मौका मिला है। उन्होंने कहा कि वे पुलिस सेवा में थे जहां पर वे जब भी किसी हत्या की जांच करते थे तो सबसे पहले इस सवाल पर सोचते थे कि उक्त व्यक्ति की हत्या से सबसे ज्यादा किस का फायदा होगा। इसलिए वनाधिकार के सवाल पर भी यह जांचने की जरूरत है कि वनाधिकार कानून को लागू न होना किस के हित में है और वो जाहिर है कि हित तो वनविभाग का ही है। इसलिए वनविभाग के हितों पर हमला करना जरूरी है। यह तो ऐसा हुआ जैसे दूध की रखवाली बिल्ली को दे दी और यहीं वनों के साथ हो रहा है जिसकी रखवाली वनविभाग को दे दी है। उन्होंने कहा कि इस विषय पर वे कई सांसदों की बैठक बुलाएंगे व संसद के अंदर और बाहर इस मुहिम को चलाने में वनाश्रित समुदाय और जनसंगठनों का साथ देगें।

कार्यक्रम के अंत में अध्क्षीय भाषण देते हुए जारजुम एटे ने कहा कि वास्तव में वनों की लड़ाई अंतरराष्ट्रीय पूंजी से है इसलिए पूंजी की राजनीति को समझना काफी जरूरी है। भारत सरकार के साथ इस मुददे पर राजनैतिक बहस शुरू करने का वक्त आ गया है। वनाधिकार की लड़ाई आज केवल वनाश्रित समुदायों को कुछ जमीन देने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह वास्तव में पूंजी के विरूद्ध लड़ाई है। यह कानून यूपीए सरकार ने लागू किया है लेकिन उत्तर प्रदेश को छोड़कर राजनैतिक रूप से यूपीए शासित प्रदेशों में इस कानून के लागू करने की प्रक्रिया काफी ढीली है। इसलिए राजनैतिक पहल काफी जरूरी है इसके लिए कहीं प्यार से तो कहीं दबाव दोनों ही रणनीति अपना कर अपने मकसद तक हमें पहुंचना चाहिए। अंत में उन्होंने सब को धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की।

इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच के महासचिव अशोक चौधरी, संगठन मंत्री रोमा व मंच के विभिन्न राज्यों से 16 सदस्य व राष्ट्रीय समिति के सदस्य भी उपस्थित थे।

पताः-


एनएफएफपीएफडब्ल्यू/ह्यूमन राइट्स लॉ सेंटर
विनोद केसारी, नियर सरिता प्रिंटिंग प्रेस,
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उत्तर प्रदेश
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