वन विभाग की जमींदारी

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भारत में निजी जमींदारी प्रथा कानूनी तौर पर भले ही समाप्त हो गई हो लेकिन वन विभाग के रूप में सरकारी जमींदारी बदस्तूर जारी है। पट्टेधारी आदिवासी को बेदखल कर उसकी कृषि भूमि पर बांस का रोपण कर आदिवासी को उसके घर और व्यवसाय से बेदखल करने से अधिक अन्यायपूर्ण और क्या हो सकता है? वन विभाग की मानसिकता पर नए सिरे से विचार करने को उद्वेलित करता आलेख।

वन अधिकार कानून की प्रस्तावना में लिखा है कि औपनिवेशिक काल और आजाद भारत में आदिवासियों की पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई है। जिसके परिणामस्वरूप आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है और नया कानून इस अन्याय को दूर करने के लिए बनाया गया है। लेकिन ऐसे कई आदिवासी हैं जिनके अधिकारों को मान्यता नहीं दी जा रही है। बैतूल जिले के कोटा गांव के हबलू भी ऐसे ही आदिवासियों में से एक है। उनका कहना कि मुझे जमीन का पट्टा मिल गया है, पर वन विभाग ने मुझसे मेरी जमीन छीनकर कब्जा कर लिया और बांस के पौधे लगा दिए। अब मै अपनी ही जमीन पर आ-जा भी नहीं सकता हूं, यह कैसा अन्याय है?

देश भर में एक ओर आदिवासियों को वन अधिकार कानून 2006 के तहत् जमीन का अधिकार देने की प्रक्रिया चल रही है वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के एक आदिवासी को अधिकार पत्र मिलने के बावजूद उसे अपनी जमीन से बेदखल कर दिया गया है। वह अपना अधिकार पत्र लेकर इधर-उधर घूम रहा है पर उसकी जमीन पर वनविभाग ने जबर्दस्ती बांस के पौधों का रोपण कर दिया है। इस संबंध में स्थानीय भौंरा रेंज में भी शिकायत की गई लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

शाहपुर तहसील के ग्राम कोठा के निवासी हबलू को वर्ष 2010 में उसके कब्जे की 3.285 हैक्टेयर जमीन का अधिकार पत्र प्रदान कर दिया गया था। पटवारी हल्का नं. 11 की जमीन पर वह वर्षों से खेती करते आ रहा था। पट्टा पाकर वह बहुत खुश था लेकिन उसकी खुशी जल्द ही मायूसी मे बदल गई। कुछ दिन बाद वनविभाग के अमले ने उस पर बांस के पौधे रोप दिए। जब उसने इस संबंध में वन विभाग के लोगों से पूछा तो जवाब मिला कि तुमको इसके बदले दूसरी जमीन दे देंगे।

हबलू का कहना है कि उसने और उसके परिवार के सदस्यों ने वर्षों मेहनत कर इस जमीन को खेती लायक बनाया है। अब किसी दूसरी जमीन में फिर उतना ही समय लगेगा, जो हमारे लिए बहुत मुश्किल है। उसने कहा कि जमीन पर वृक्षारोपण करने से पहले न तो वन विभाग ने उससे पूछा और न ही इसकी जानकारी दी। यह पूरी तरह मनमानी है।

हबलू को यह अधिकार पहली बार नहीं मिला है। उसके पिता चुहिया को भी पहले इसका पट्टा मिल चुका था। जब दो साल पहले उसके पिता का निधन हो गया तो उसने पुनः अधिकार पत्र के लिए दावा किया और उसे हासिल किया।

हालांकि उसके परिवार की गुजर-बसर पूरी तरह खेती से नहीं हो पाती। कई बार उसे मजदूरी करने के लिए पास के इटारसी जैसे शहरों में भी जाना पड़ता है। लेकिन जंगल ही उसकी जिंदगी है। जंगल के बिना उसका जीवन दुश्वार है। वनोपज का तो सहारा होता ही है। वह कहता है कि शहर में कुछ दिन तो कमाने-खाने के लिए रह सकते हैं पर स्थाई रुप से भीड़-भाड़ में नहीं रह सकते।

जब मैं हबलू से उसकी आप बीती सुन रहा था तब वह बहुत सहमा, दबा और डरा हुआ था। बोलने के पहले सोच रहा था व इधर-उधर देख रहा था। जब वह अपना खेत दिखाने ले गया तब उसका भाई बिशन भी साथ में था। दोनों ने बताया कि वन विभाग के लोगों के सामने वे बोल नहीं पाते हैं। उनसे पूछ भी नहीं पाते कि उन्होंने उनकी जमीन पर कब्जा कैसे कर लिया?

इस क्षेत्र में निवासरत गोंड और कोरकू बहुत ही दबे-कुचले हैं। अंग्रेजों के अधिकार के पहले जंगल पर उनका ही अधिकार था। लेकिन अंग्रेजों ने जंगलों पर कब्जा करने की कोशिश की जिसका आदिवासियों ने पूरी ताकत से विरोध किया। जंगलों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद वे अपने ही घर में पराए हो गए। सरकार ने जंगल पर कब्जा जमा लिया। निस्तार के लिए लकड़ी, कांटे-गेड़ी और बांस मिलना मुश्किल हो गया। जगह-जगह नर्सरी बना दी गई हैं। खेती करने और मवेशी चराने की भी दिक्कत है। कानूनों का सहारा लेकर आदिवासियों को बहुत तंग किया जाता है। इनके माध्यम से स्वभाव से आजाद आदिवासियों पर कई तरह की बंदिशें लग गई।

सतपुड़ा अंचल में वर्ष 1862 में बोरी अभयारण्य भारत का पहला आरक्षित वन बना, जिसे पचमढ़ी के पास हर्राकोट के कोरकू राजा भभूतसिंह से छीना गया था। भभूतसिंह को धोखे से पकड़कर 1861 में जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई। तब से अत्याचार का यह सिलसिला लगातार जारी है। आजाद भारत में भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।

श्रमिक आदिवासी संगठन से जुड़े मंगल सिंह का कहना है कि वन विभाग की ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं। आदिवासियों को हमेशा डराया-धमकाया जा रहा है। उनके निस्तार पर रोक लगाई जा रही है और अब तो यहां तक नौबत आ चुकी है कि उनके सिर की छत भी छुड़ाई जा रही है और उनकी बस्तियां जलाई जा रही हैं। वनविभाग के जुल्म-अत्याचार इतने बढ़ गए हैं कि आदिवासियों का जीना दुश्वार होता जा रहा है। वे सवाल करते हैं कि पट्टा देकर जमीन पर कब्जा करना क्या न्यायसंगत है?

होशंगाबाद जिला पंचायत सदस्य फागराम का कहना है कि वृक्षारोपण तो एक बहाना है जमीन पर कब्जा करने और आदिवासियों को बेदखल करने का। उन्होंने कहा कि जंगल की कटाई की जा रही है। भौंरा का विशाल लकड़ी डिपो दिखाते हुए उन्होंने कहा कि यहां जंगल से ‘ट्रकों’ लकड़ी लाई जा रही है जबकि आदिवासी अपने निस्तार के लिए एक लकड़ी ले आए तो उसे अपराधी माना जाएगा।

समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और आदिवासियों के हक और इज्जत की लड़ाई लड़नेवाले राजेन्द्र गढ़वाल का कहना है कि हबलू एवं उसके जैसे सभी आदिवासियों को उनकी जमीन का कब्जा दिलाया जाए और जांच कर संबंधित दोषी कर्मचारियों पर कार्रवाई की जाए।

परिचय - बाबा मायाराम स्वतंत्र पत्रकार हैं और यह रिपोर्ट सीएसई मीडिया फैलोशिप 2011 के तहत हैं।



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