उपग्रहों के ताजे चित्र बताते हैं कि देश में हर साल 13 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं। वन विभाग की ओर से प्रचारित सालाना दर के मुकाबले वह आठ गुना ज्यादा है।
छठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान वनीकरण पर खर्च की गई राशि पिछले 30 सालों में खर्च कुल राशि से 40 प्रतिशत ज्यादा थी। फिर भी वन-क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है।
देश में 1990 तक 600 करोड़ की लागत से करीब 20 लाख हेक्टेयर भूमि पर हरियाली लाने की योजना है। लेकिन नए वन समाज के लिए नहीं, विदेशी ढंग पर पनपे बाजार के लिए लग रहे हैं। डर है कि कहीं यह ‘दूसरी हरीत क्रांति’ भी पहली हरीत क्रांति की तरह समाज पर बोझ न बन जाए।
करीब पांच लाख हेक्टेयर में सफेदे के पेड़ लगाए गए हैं। एक तरफ कर्नाटक में किसानों ने कई जगहों पर सफेदा उखाड़ा है तो दूसरी तरफ गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में किसानों ने उसे अपने खेतों में बड़े पैमाने पर रोपा है।
सरकार उजड़ चुकी वन भूमि को लकड़ी-आधारित उद्योगों के हाथों में देना चाहती है। लेकिन इसका विरोध भी हो रहा है।
वन कटने से वनवासी उखड़ते थे। अब तो वनीकरण की नई योजनाएं भी उन्हें उखाड़ने का काम कर रही हैं।
पिछले दौर में देश के सामने उठीं पर्यावरण समस्याओं में सबसे ज्यादा ध्यान वन-विनाश की समस्या पर गया है और इस दौर में पर्यावरण संबंधी जितने कायदे-कानून बने हैं, उनमें सबसे ज्यादा आलोचना वन संवर्धन संबंधी नीतियों की ही हुई है।
कई राज्य सरकारों ने गैर-जंगलाती जमीन में यानी निजी खेतों और गांवों की पंचायती जमीन में सामाजिक वानिकी के नाम पर वन लगाने के कार्यक्रम शुरू किए । कुछ राज्य सरकारों ने अपनी ओर से भी वन लगाने का काम हाथ में लिया है और वृक्षविहीन वनभूमि को पेड़ लगाने के लिए औद्योगिक कंपनियों के हवाले किया है।
इन सब कार्यक्रमों में एक बात समान है। वही पेड़ लगाए जाते हैं जो शहरी और उद्योगों के बाजार की मांग पूरी कर सकें, जबकि ईंधन और चारे की कमी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रह है। इस कार्यक्रम के लिए चुने गए सफेदा, सागौन ओर चीड़ के पेड़ पर्यावरण की रक्षा के लिए किसी काम के नहीं हैं। न वे मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाते हैं न मिट्टी का संरक्षण और न पानी का संचय कर सकते हैं।
वन संपदा को व्यापार-व्यवसाय की चीज बना दिया गया है, जिससे देश के समृद्ध वन दूर-दूर तक साफ होते चले जा रहे हैं। सरकार की वन संवर्धन योजनाओं का मूल लक्ष्य भी यही है और इस काम के लिए आर्थिक मदद करने वाली विदेशी एजेंसियों का पूरा-पूरा सहारा लिया जा रहा है। इस प्रकार वन संवर्धन भी वन विनाश की ही तरह चोट पहुंचा रहा है। इस मिसाल के लिए देहाती महिलाओं को लें। बहुत से इलाकों में ईंधन और चारा जुटाने में ही उनका सारा जीवन बीतता है। पर इन कार्यक्रमों में उनकी गिनती कहीं है ही नहीं।
जहां भी लोगों के रोजमर्रा की चीजों की यानी ईंधन, चारा और लकड़ी आदि की पूर्ति की दृष्टि से वन लगाने के प्रयास स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा या जन अभिक्रम से हो रहे हैं, वहां लोग पूरे उत्साह से तत्परता के साथ उनमें शामिल होते हैं, जबकि सरकारी विभागों द्वारा वन लगाने के कार्यक्रमों का आमतौर पर हर कहीं विरोध हो रहा है। जैसे कर्नाटक में ‘अप्पिको’ आंदोलन पेड़ों को कटने से बचाने के लिए लोगों को पेड़ से चिपक जाने को तैयार कर रहा है और दूसरी तरफ राज्य का एक मजबूत संगठन ‘रैयत संघ’ लगे-लगाये सफेदे के लाखों पौधों को उखाड़ने के काम में लग रहा है। बहुत कम ऐसे सरकारी लोग हैं जो यह सोच सकते हैं कि बंजर जमीन में पेड़ लगाने का काम सबसे बड़ा भूमि सुधार का काम है जो गरीबी को मिटाने में और रोजगार के अवसर बढ़ाने में बहुत उपयोगी हो सकता है।
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