वन-विकास या विनाश

वन-विकास या विनाश
वन-विकास या विनाश

आजादी आने के साथ ही वृक्ष मित्र नेहरू और श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने वन महोत्सव प्रारम्भ किया था, परन्तु वन-संरक्षक की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। उसका मुख्य कारण वृक्षारोपण के पीछे सामान्य लोगों के जीवन की समस्याओं को हल करने वाली एक निश्चित उद्देश्य वाली नीति का अभाव रहा है। वन विभाग के अधिकारियों का सारा शिक्षण और उससे भी अधिक चिन्तन व प्रत्यक्ष कार्य व्यापारिक वानिकी का रहा है। राज्यों के लिए वन बिना खिलाए पिलाए ही सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के समान रहे हैं। पिछली आधी शताब्दी में वनों से होने वाली कमाई कई गुना बढ़ गयी है। सन् 1934-35 में वनों से होने वाला शुद्ध लाभ 1.8 लाख रुपया था।

सन् 1973-74 में यह 7315 लाख हो गया। यह लाख निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। सरकारों को वनों की कमाई का ऐसा चस्का लगा है कि प्राकृतिक वनों को उजाड़कर युक्लिप्टस व उष्णकटिबन्धीय चीड़ जैसे व्यापारिक, मृदाशय तथा जलशोषक प्रजातियों को बढ़ाया जा रहा है। हिमालय क्षेत्र में 100 वर्ष पहले चीड़ के साथ चौड़ी पत्तियों वाले मिश्रित वन थे, जिनसे मनुष्यों तथा पशुओं को आहार मिलता था। वहां चीड़ और देवदार के एकल वन पनपनाये गये हैं। ये शंकुधारी वन किसानों के शत्रु हैं। उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की तराई में साल और अन्य चौड़ी पत्तियों वाले प्राकृतिक वनों को काट कर हजारों हेक्टेयर क्षेत्र पर युक्लिप्टस का रोपण किया गया। हरियाणा और पंजाब को देखकर तो लगता है कि वहां युक्लिप्टस ही पेड़ का पर्यायवाची हो गया है। छोटा नागपुर और अन्य आदिवासी क्षेत्रों में साल को काटकर सागौन लगाया गया। मध्य प्रदेश के बस्तर क्षेत्र में उष्णकटिबन्धीय चीड़ लगाने की एक परियोजना विश्व बैंक की सहायता से चल रही है। वृक्षारोपण का उद्देश्य व्यापारिक वानिकी को बढ़ावा देना है। सन् 1951 में 1979 के बीच 1645 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में औद्योगिक और व्यापारिक प्रजाति के वृक्ष लगाये गये, जबकि ईंधन और कृषि से सम्बन्धित रोपवानियों का क्षेत्र केवल 315 हजार हेक्टेयर था।

ठेकेदारों द्वारा वन-सम्पदा की मनमानी लूट को रोकने तथा सम्वर्धन के लिए कृषि आयोग ने राज्यों में वन-विकास निगमों की स्थापना करने की सिफारिश की थी। उनके अनुसार प्रायः प्रत्येक राज्य में वन-विकास स्थापित हो गये। इसमें से अधिकांश निगमों, पुराने निगमों, मिश्रित वनों को उजाड़ कर एकल प्रजाति के पेड़ों का जोर-शोर से रोपण प्रारम्भ कर दिया है। कुछ वन-निगम तो (जैसे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) केवल दूर दराज के पहाड़ी ढलानों पर पेड़ काटकर भू-क्षरण और भू-स्खलन की प्रक्रिया को तीव्र बनाने के महाविनाशी कार्यक्रम में व्यस्त हैं। पश्चिम बंगाल का वन-निगम दार्जिलिंग, कालिम्पोंग के अगम्य पर्वतीय क्षेत्र में प्रतिवर्ष 11,000 हेक्टेयर वन काटने की योजना बना रहा है। हिमाचल प्रदेश के छाजपुर क्षेत्र में वन निगम द्वारा कई वर्षों तक वनों की सफाचट्ट हजामत के परिणाम स्वरूप अगस्त, सितम्बर, 1978 में प्रलयकारी भू-स्खलन से अकथनीय क्षति हुई थी। उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों में वन निगम द्वारा पेड़ों की कटाई के पश्चात् लट्ठों के लुढ़कन से धरती की चमड़ी उधड़ गयी, जिससे तोड़खण्ड और सल्ला जैसे गांव तो तबाह ही हो गये। यह परिस्थिति पूरे देश में है। इस सम्बन्ध में विगत 2 अप्रैल को प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा पर्यावरण रक्षा के त्वरित उपायों पर विचार करने के लिए बुलायी गयी बैठक में वैज्ञानिकों और संरक्षण-प्रेमियों ने वन-विकास निगमों की कार्यवाही पर अपनी व्यथा प्रकट की।

वन-विनाश के परिणाम

वन-विनाश से बाढ़, भू-स्खलन और सूखा के अलावा कई अन्य उपद्रव हो रहे हैं, जिनसे कृषि और उद्योग दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। किस प्रकार बाढ़ का पानी कोयला खानों में घुस जाने से कोयले सप्लाई पर असर पड़ा और उसके बाद रेल यातायात, ताप बिजली घर तथा अन्य उद्योग ठप्प हो गये, यह हम सन् 1978 की बाढ़ में देख चुके हैं। लगभग 5000 करोड़ रुपए खर्च करके बनाये गये विशाल बांध और जल-विद्युत परियोजनाओं का भविष्य भी नदियों में पानी के अस्थिर बहाव और गाद भरने से अन्धकारमय हो गया है। भारत मे अब तक बने सभी बांध-जलाशयों में गाद भरने की गति उनके निर्माण के समय के आकलनों से 213 प्रतिशत अधिक है। उत्तर प्रदेश में रामगंगा पर बने कालागढ़ बांध की अनुमानित आयु 185 वर्ष से घटकर 45 वर्ष ही रह गयी है। 1000 करोड़ रुपए की लागत से निर्माणाधीन टिहरी बांध की आयु 100 वर्ष होने की बजाय 25 वर्ष होने की विशेषज्ञों ने आशंका प्रकट की है, क्योंकि भागीरथी के जलग्रहण क्षेत्र में असाधारण रूप से भू-स्खलन हो रहा है और वहां जंगलों की हजामत जारी है। इन बांध जलाशयों में कई ऐसे हैं, जिनमें एक बार गाद भर जाने के बाद वैकल्पिक जलाशय बनाने के लिए स्थान नहीं है।

हमारे देश की 30 करोड़, 40 लाख हेक्टेयर भूमि में से 9 करोड़ हेक्टेयर पानी द्वारा भू-क्षरण से और 5 करोड़ हेक्टेयर पानी द्वारा भू-क्षरण से प्रभावित है। 2 करोड़ हेक्टेयर पर बाढ़ का प्रकोप है। भू-क्षरण से प्रतिवर्ष 600 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत नष्ट हो जाती है, जिसकी ढाई सेंटीमीटर मोटी तह बनाने में प्रकृति को 500 से लेकर 1000 वर्ष तक का समय लगता है। इसके साथ 50 लाख टन उर्वरक नष्ट हो जाते हैं, जिनका मूल्य 100 करोड़ रुपए होगा।

पहाड़ों में जलस्रोतों का सूखना और मैदानी क्षेत्रों में भूमिगत जल की सतह का नीचे जाना दूसरी महाविपदा है, जबकि बढ़ती हुई जनसंख्या और औद्योगीकरण के लिए शुद्ध जल की आवश्यकता निरन्तर बढ़ती जा रही है।

विकल्प क्या है ?

तो क्या इस परिस्थिति में मुक्ति का कोई मार्ग है ? हां, विकल्प है, उजड़े हुए वनों को पुनः आबाद करना। वन, वर्षा के विनाशकारी स्वरूप को कल्याणकारी स्वरूप मे बदलने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। जब वर्षा की बूंदें नंगी धरती पर पड़ती हैं, तो उनकी मार से मिट्टी का कटाव होता है, यह मिट्टी पानी के साथ बह कर नदियों में और अन्ततोगत्वा समुद्र में चली जाती है। सतही पानी के बहाव में वृद्धि ही बाढ़ और भू-स्खलन की विपत्ति लाती है। इस वृद्धि में एक ओर तो बाढ़ का प्रकोप बढ़ा और दूसरी ओर भूमिगत जल की मात्रा घटी।

चौड़ी पत्तियों वाले प्राकृतिक वनों में वन-विनाश (पेड़ों के छत्र) अधिक घना होता है, वर्षा की बूंदें पहले इस छत्र पर पड़ती है, तो उनका वेग कम हो जाता है। शेष कुछ धरती पर पड़ती हैं, जहां छोटी-छोटी झाड़ियों, घास या सूखी पत्तियों का कवच रहता है। इन वनों के नीचे सड़ी हुई पत्तियों का स्पंज भी रहता है, जो धरती के अन्दर धीरे-धीरे वर्षा के सारे पानी को सोख लेता है। यही पानी वर्षा के बाद पहाड़ी नदियों के प्रवाह को बनाये रखने में सहायक होता है और मैदानी सूखे क्षेत्रों में भूमिगत जल की सतह को ऊँचा रखता है। यह सूखे के खिलाफ खेती का बीमा है।

यद्यपि हमारे देश में स्थिति काफी नाजुक है, परन्तु हमसे भी बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने वाले दो देशों के उदाहरण हमारे सामने हैं। अमरीका में वन विनाश के फलस्वरूप वहां की नदियां भारी गाद लेकर बहती थीं। राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने भू-क्षरण की विभीषिका की गम्भीरता को समझा और 20 लाख लोगों का भूमि-क्षरण दल संगठित कर इस परिस्थिति का मुकाबला किया। दूसरा उदाहरण चीन का है, जो हमसे भी बाद में आजाद हुआ और जिसके पास केवल पांच प्रतिशत वन क्षेत्र शेष रह गया था। चीन ने इस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए, वानिकी को कृषि के बराबर ही महत्व दिया और युद्ध स्तर पर वृक्षारोपण शुरू किया। 15 अंश से अधिक ढाल की सारी पहाड़ी भूमि पर अनिवार्यतः वृक्षारोपण किया गया। वानिकी का लक्ष्य कृषि को पुष्ट बनाना मानकर, उन वृक्ष प्रजातियों के रोपण को प्राथमिकता दी, जिससे खाद्य मुख्यतः तैलीय बीज और चारा तथा ईंधन की उपलब्धि होती थी। इसकी योजना और कार्यान्वयन किसी केन्द्रीय शक्ति के बजाय, लोगों ने किया। 3 करोड़ 20 लाख व्यक्ति वृक्ष उगाने के कार्यक्रम में नियमित रूप से लगे हुए हैं। इसके अलावा पेड़ लगाने के मौसम में सभी सफेदपोश लोग इस काम में जुट जाते हैं। इस प्रकार सन् 1977 तक चीन के वन क्षेत्र में 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी।

हमें वन-संरक्षण के एक देशव्यापी कार्यक्रम को चलाने, अपनी नीतियों और उनके कार्यान्वयन की पद्धतियों में अनुकूल वातावरण बनाने के लिए बुनियादी परिवर्तन करने पड़ेंगे। पहली घोषणा तो यह करनी होगी कि वानिकी के प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य कृषि को पुष्ट बनाना होगा। वनों का मुख्य कार्य मिट्टी का क्षरण रोकना और मिट्टी बनाना है। अतः इसका संरक्षण और निर्माण पूंजी निर्माण का कार्य माना जाना चाहिए। राज्य सरकारों और मुख्यतः भ्रष्ट राजनीतिज्ञों एवं वन-सम्पदा की लूट-खसोट से मालामाल बनने वाले अधिकारियों व ठेकेदारों से वनों के लिए एक मात्र हल यही दिखाई देता है कि नाजुक वन क्षेत्रों का, जिनमें नदियों के उद्गम क्षेत्रों-हिमालय, विंध्याचल, सतपुड़ा और पश्चिमी घाट के वन पहले आते हैं। प्रबन्ध कम से कम 25 वर्षों के लिए केन्द्र अपने हाथ में ले ले। यहां पर हरे पेड़ों की व्यापारिक कटाई तत्काल रोक कर उन्हें संरक्षण-वन घोषित किया जाए।

स्रोत -  कटते जंगल रोती धरती,आल इण्डिया पिंगलवाड़ा चैरीटेबल सोसाइटी

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Post By: Shivendra
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