विवाद का जोड़

क्या 2016 तक केंद्र सरकार इतनी बड़ी धनराशि की व्यवस्था कर पाएगी? नदी जोड़ योजना को लेकर एक बड़ी आशंका यह भी उभरी थी कि इससे विभिन्न राज्यों और अंचलों के बीच नए ढंग के जल विवाद पैदा हो सकते हैं। यही नहीं, नदियों के जल बंटवारे का मसला कुछ मामलों में पड़ोसी देशों से भी ताल्लुक रखता है। योजना के क्रियान्वयन के लिए बड़े पैमाने पर नहरें खोदनी होंगी और नतीजतन विस्थापन की समस्या भी बड़े पैमाने पर खड़ी हो सकती है। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल कर पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा।

जनसत्ता 29 फरवरी, 2012: नदियों को जोड़ने की योजना राजग सरकार के समय बनी थी। लेकिन अनेक अव्यावहारिकताओं, भारी-भरकम खर्च और पर्यावरण संबंधी कई पहलुओं के मद्देनजर इसे छोड़ दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से इस योजना पर देश में एक बार फिर बहस खड़ी हो सकती है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार को नदी जोड़ योजना पर चरणबद्ध तरीके से अमल करने का निर्देश दिया है। अदालत योजना के विरोध में छह साल पहले दायर की गई एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी। उसने सरकार को आदेश दिया है कि वह नदियों को जोड़ने की योजना को क्रियान्वित करने के लिए जल संसाधन मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित करे। समिति में जल संसाधन, पर्यावरण और वित्त मंत्रालयों के सचिवों के अलावा विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यक्षेत्र से भी कुछ लोग शामिल किए जाएं। फैसले के मुताबिक समिति को परियोजना की प्रगति के बारे में अदालत को समय-समय पर रिपोर्ट भी देनी होगी।

प्रमुख नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव सबसे पहले एक इंजीनियर कनूरी लक्ष्मण राव ने रखा था, जो बाद में जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे। इसके पीछे तर्क यह था कि नदियों को जोड़ने से अतिरिक्त पानी का बहाव सूखे या कम जल उपलब्धता वाले इलाकों में किया जा सकेगा और इस तरह बाढ़ और सूखे, दोनों से निजात मिल सकेगी। लेकिन राव के प्रस्ताव को उन सरकारों ने भी कभी गंभीरता से नहीं लिया, जिनमें वे मंत्री थे। पहली बार वाजपेयी सरकार के समय उस सुझाव को मूल रूप देने की योजना बनी। लेकिन एक कार्यबल बनाने के सिवा और कुछ नहीं हो सका। दरअसल, इस योजना के औचित्य पर इतने सवाल खड़े हुए कि इसे शुरू कर पाना संभव नहीं हो सका। अब वह सारा विवाद नए सिरे से उठ सकता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका का मुद्दा भी उठे, तो हैरानी की बात नहीं होगी। कौन-सी परियोजना ठीक है और कौन-सी नहीं, यह नीति-निर्माण के दायरे में आता है, जो कि कार्यपालिका का काम है। अगर सरकार की कोई नीति जनहित या देशहित में नहीं है, तो उस पर एतराज करने और गलती सुधारने का निर्देश देने की संवैधानिक भूमिका विधायिका की है। अलबत्ता किसी कानून के उल्लंघन की शिकायत हो या किसी नीति के अमल में अनियमितता के आरोप हों तो न्यायपालिका उनका संज्ञान ले सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने खुद कई बार कहा है कि नीतिगत मामलों में अदालतों को दखल नहीं देना चाहिए। क्या उसका ताजा आदेश इससे मेल खाता है? संवैधानिक प्रश्न तो अपनी जगह है ही, अदालत के फैसले से सरकार जिस सांसत में पड़ सकती है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जब यह योजना बनी थी तब इस पर पांच लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च आने का अनुमान लगाया गया था। अब वह अनुमानित राशि कई गुना अधिक बैठेगी। मजे की बात है कि योजना पूरी करने का जो समय पहले सोचा गया गया था, सुप्रीम कोर्ट ने उसे ही बरकरार रखा है। क्या 2016 तक केंद्र सरकार इतनी बड़ी धनराशि की व्यवस्था कर पाएगी? नदी जोड़ योजना को लेकर एक बड़ी आशंका यह भी उभरी थी कि इससे विभिन्न राज्यों और अंचलों के बीच नए ढंग के जल विवाद पैदा हो सकते हैं। यही नहीं, नदियों के जल बंटवारे का मसला कुछ मामलों में पड़ोसी देशों से भी ताल्लुक रखता है। योजना के क्रियान्वयन के लिए बड़े पैमाने पर नहरें खोदनी होंगी और नतीजतन विस्थापन की समस्या भी बड़े पैमाने पर खड़ी हो सकती है। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल कर पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा।

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