अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में वानिकी एवं भारतीय पहल:
वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साईड को पृथ्वी पर उपलब्ध वनस्पतियाँ ही सुरक्षित रूप से संग्रहीत करने में सक्षम हैं। इन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती तथा वायुमण्डल में उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों को सुरक्षित रूप से समाहित करने की दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान जारी है। आवश्यकता एक वृहत अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु अनुकूलन कोष स्थापित कर विकासशील व अल्पविकसित देशों को अधिक आर्थिक सहायता देने की है जिससे ये देश सम्भावित जलवायु परिवर्तन के खतरों से अपने आप को बचाने में सक्षम हो सकें।विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तन आज विश्व भर में चिंतनीय समस्याओं में से एक है। यों तो पृथ्वी के इतिहास में जलवायु परिवर्तन कोई नई बात नहीं है किन्तु इस समय इस परिवर्तन में मानव जनित गतिविधियाँ मुख्य भूमिका निभा रही हैं। विश्व भर में कार्बन आधारित ऊर्जा पर हमारी अत्यधिक निर्भरता, औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात वायुमंडल में अत्यधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों को छोड़ा जाना एवम निरन्तर घटते वन क्षेत्र इसके प्रमुख कारण हैं। वर्तमान में तेजी से हो रहे भू-उपयोग परिवर्तन से पृथ्वी की आकृति ही काफी बदल गई है। ग्रीन हाउस प्रभाव आज सर्वविदित है। यह ग्रीन हाउस का प्रभाव ही है कि पृथ्वी का औसतन तापमान 150 सें. के आसपास बना हुआ है। ग्रीन हाउस प्रभाव की अनुपस्थिति में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं है। पिछले 200 वर्षों में वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत तक बढ़ी है।
पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन के रूप में संग्रहीत करते हैं। वृक्षों की आयु अधिक होने के कारण यह कार्बन इनमें अधिक समय तक संग्रहीत रहती है। वृक्ष कटने या मरने से यह संग्रहीत कार्बन पुनः वायुमण्डल में निर्मुक्त हो जाती है। प्राकृतिक अपघटन जैसे लकड़ी का गलना, सड़ना आदि प्रक्रियाओं में कार्बन निर्मुक्ति की दर सामान्य रहती है, लेकिन अप्राकृतिक कारणों जैसे वनों में अग्नि, झूम खेती, वनों की अंधाधुन्ध कटान आदि से वनों में संग्रहीत कार्बन वायुमंडल में तेजी से निर्मुक्त होती है। वन विनाश से लगभग 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड वायुमण्डल में निर्मुक्त होती है।
जलवायु परिवर्तन का वनों पर प्रभाव
वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की अधिकता से पौधों की वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी अवश्य होगी विशेषकर ऊँचाई वाले क्षेत्रों में जहाँ तापक्रम में वृद्धि अन्य क्षेत्रों से अधिक होगी। पृथ्वी के तापक्रम में वृद्धि तथा वर्षा में परिवर्तन से पौधों तथा जानवरों के प्राकृतिक आवास की सीमाओं में भी परिवर्तन अवश्यम्भावी है। तापक्रम वृद्धि से विभिन्न प्रजातियों का वितरण उच्च अक्षांशों तथा ऊँचाइयों की ओर जाएगा। जलवायु परिवर्तन का एक विपरीत प्रभाव यह भी होगा कि ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली कुछ प्रजातियाँ जो विशेष क्षेत्रों तक ही सीमित है, अपने प्राकृतिक आवास को बदलती परिस्थितियों के अनुकूल समायोजित नहीं कर पाएगी तथा पारिस्थितिकीय तन्त्र से विलुप्त हो सकती हैं।
अत्यधिक बादलों के बनने तथा वर्षा से उत्पादन में कमी एवम नए क्षेत्रों में वन अग्नि की सम्भावना भी बनी रहेगी। जिन अनुकूल परिस्थितियों में फसलों में वृद्धि की सम्भावना है उन्हीं के चलते खरपतवार में भी वृद्धि होगी तथा फसलों से प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उत्पादन प्रभावित होगा। तापक्रम वृद्धि से कई हानिकारक कीट तथा व्याधि की वितरण सीमा बढ़ जाएगी जिससे और अधिक वन क्षेत्र कीटों तथा बीमारियों से प्रभावित होंगे। मृदा की सूक्ष्मजीवी गतिविधियाँ भी बढ़ जायेंगी जिससे मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ तेजी से अपघटित होगा। मृदा में वायुमण्डलीय कार्बन से लगभग दोगुनी कार्बन संग्रहीत है।
अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास
1992 में ब्राजील के रियो डी जिनरो नगर में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में विश्वसमुदाय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र के यू.एन.एफ.सी.सी. को अंगीकृत किया। यू.एन.एफ.सी.सी. का मुख्य उद्देश्य वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को एक ऐसे स्तर पर स्थिर करना था जिससे वह मनुष्य के लिए हानिकारक न हो। इसी दिशा में 1997 में क्योटो प्रोटोकाॅल पारित हुआ जिसके तहत प्रत्येक विकसित राष्ट्र के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। क्योटो प्रोटोकाॅल के स्वच्छ विकास क्रियाविधि (सीडीएम) के अन्तर्गत विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों में सतत विकास हेतु ऐसी परियोजनाओं को, जिनसेवायुमण्डलीय कार्बन डाईऑक्साईड अवशोषित या विस्थापित की जा सके आर्थिक सहायता देकर अपने निर्धारित कार्बन लक्ष्यों की पूर्ति कर सकते हैं। इस प्रक्रिया से जहाँ विकासशील राष्ट्र आर्थिक सहायता प्राप्त कर अपने यहाँ सतत विकास तथा पर्यावरण सुधार की दिशा में कार्य कर सकते हैं वहीं विकसित राष्ट्र इन परियोजनाओं से प्राप्त पर्यावरणीय लाभ से अपने ग्रीन हाउस गैसों की कटौती के लक्ष्यों की पूर्ति कर सकते हैं।
क्योटो प्रोटोकाॅल को वर्ष 2002 में प्रारम्भ होना था तथा समझौते के अनुसार यह तभी लागू हो सकता है जब 55 विकसित राष्ट्र जो कुल ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का 55 प्रतिशत के लिये उत्तरदाई हैं इसका अनुमोदन करें। अमेरिका ने अनुमोदन करने से मना कर दिया है। ज्ञातव्य है कि विश्व के कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का 36 प्रतिशत केवल अमेरिका करता है। अब तक 122 राष्ट्र क्योटो प्रोटोकाॅल का अनुमोदन कर चुके हैं जिसमें विकसित राष्ट्रों की ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन योगदान 44.2 प्रतिशत हैं। 55 प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अभी भी अमेरिका या रूसका अनुमोदन आवश्यक है।
यू.एन.एफ.सी.सी.सी. के पक्षकारों का सातवां सम्मेलन कोप 7 मराकेश में हुआ जिसे मराकेश समझौते के नाम से जाना जाता है। जलवायु प्रभाव में वानिकी की भूमिका के योगदान के कारण यह महत्त्वपूर्ण सम्मेलन था। क्योटो प्रोटोकाॅल वनीकरण एवं पुनर्वनीकरण की बात करता है। मराकेश समझौते ने स्पष्ट रूप से वनीकरण एवं पुनर्वनीकरण को पारिभाषित किया तथा इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए एक 15 सदस्यीय स्वच्छ विकास क्रियाविधि कार्यकारी परिषद की भी स्थापना की।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा अभिसमय के पक्षकारों का नवा सम्मेलन दिसम्बर, 2003 में इटली के मिलानो शहर में हुआ। इसमें वायुमंडलीय कार्बन पृथक्करण हेतु वानिकी परियोजनाओं के लिए क्रियाविधि को अन्तिम रूप दिया तथा ग्राम स्तर पर, निम्न आय वर्ग समूहों द्वारा चलाई जा सकने वाली लघुस्तरीय वानिकी परियोजनाओं पर विचार हुआ। यह विचार विमर्श अभी भी कार्यसमूहों में जारी है तथा दसवें सम्मेलन में इन्हें अन्तिम रूप दिया जा सकता है।
भारतीय प्रयास
भारत ने 1992 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा अभिसमय को अंगीकृत किया, 1997 में क्योटो प्रोटोकाॅल पर हस्ताक्षर व अगस्त, 2003 में इसका अनुमोदन तथा नई दिल्ली में 2002 में पक्षकारों का आठवाँ सम्मेलन आयोजित किया। स्वच्छ विकास क्रियाविधि जिसे क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म या सी डी एम नाम से भी जाना जाता है, को भलीभाँति लागू करने हेतु भारत सरकार ने 20 अप्रैल 2004 को भारत के राजपत्र (असाधारण) द्वारा अधिसूचना जारी कर सचिव पर्यावरण मन्त्रालय भारत सरकार की अध्यक्षता में राष्ट्रीय स्वच्छ विकास क्रियाविधि प्राधिकरण का गठन किया है। भारत सरकार के इस राजपत्र से स्वच्छ विकास क्रियाविधि के अन्तर्गत परियोजनाओं का पंजीकरण एवं क्रियान्वयन सुगम हो गया है तथा गैर पारम्परिक ऊर्जा, खनिज तेल विस्थापन व ऊर्जा बचत आदि की कई अन्य परियोजनाओं का स्वच्छ विकास क्रियाविधि सी.डी.एम. के अन्तर्गत पंजीकरण प्रारम्भ हो गया है।
कार्बन संग्रहण हेतु लघुस्तरीय वानिकी परियोजनाओं के क्रियान्वयन तथा पंजीकरण में अभी कुछ समय लग सकता है। वानिकी परियोजनाओं को समय पर लागू करने हेतु क्रियाविधियों पर वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय, भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय विज्ञान संस्थान आदि विभिन्न स्तरों पर कार्य कर रहे हैं। सरकार का उपरोक्त राजपत्र इस दिशा में एक सार्थक पहल है।
वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साईड को पृथ्वी पर उपलब्ध वनस्पतियाँ ही सुरक्षित रूप से संग्रहीत करने में सक्षम हैं। इन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती तथा वायुमण्डल में उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों को सुरक्षित रूप से समाहित करने की दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान जारी है। आवश्यकता एक वृहत अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु अनुकूलन कोष स्थापित कर विकासशील व अल्पविकसित देशों को अधिक आर्थिक सहायता देने की है जिससे ये देश सम्भावित जलवायु परिवर्तन के खतरों से अपने आप को बचाने में सक्षम हो सकें।
भूमण्डलीय उष्मा परिवर्तन, चुनौतियाँ
संयुक्त वन प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य वनों के संरक्षण, विकास तथा उत्पादकता में वृद्धि हेतु नियोजन, वन प्रबन्ध तथा वनों से प्राप्त लाभों के वितरण में स्थानीय जनता की सक्रिय भूमिका सुनिश्चित करना तथा सहभागिता प्राप्त करना है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय वन पंचायत/ग्राम वन समिति द्वारा स्वेच्छा एवं संयुक्त रूप से वन क्षेत्र का माइक्रोप्लान के आधार पर रख-रखाव एवं अग्रेतर विकास किया जाना है। इसके अन्तर्गत ग्राम विकास निधि का सृजन होता है जिसमें 20 प्रतिशत योगदान श्रम के रुप में ग्रामीणों द्वारा किया जाता हैं। ‘देखभाल से भागीदारी’ संयुक्त वन प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।वानिकी एक बेहतर विकल्प 21-वीं शताब्दी में औसत भूमण्डलीय तापमान में हो रही निरन्तर तीव्र वृद्धि, पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बनकर उभरी है। अनुसंधानकर्ताओं के नवीन आंकलन के अनुसार इस सदी में पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 (0 डिग्री) सेंटीग्रेड से 2.5(0 डिग्री) सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा और 14.68(0 डिग्री) सेंटीग्रेड से बढ़कर लगभग 16.5(0 डिग्री) सेंटीग्रेड हो जाएगा। आई.पी.सी.सी. के वैज्ञानिक मूल्यांकन पैनल ने अनुमान लगाया है कि इस वृद्धि के लिए मुख्य रूप से उत्तरदाई ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी दर से होता रहा तो 0.3(0 डिग्री) सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से विश्व का तापमान बढ़ता रहेगा।
तापमान वृद्धि का जलवायु व मौसम चक्र पर किस सीमा तक प्रभाव पड़ेगा यह निर्विवाद रूप से प्रतिपादित नहीं हो पाया है। अधिकांश वैज्ञानिक इसे विनाशकारी मानते हैं। मौसम चक्र में परिवर्तन, समुद्र जल के तापक्रम में 0.50 सेंटीग्रेड तक की वृद्धि के कारण सूक्ष्म जैविक जीवन पर प्रतिकूल असर, समुद्र का स्तर एक मीटर तक ऊपर उठ जाने के कारण तटीय क्षेत्रों का जलमग्न हो जाने जैसी कुछ आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं। वैसे वैज्ञानिकों का एक वर्ग इसे सामान्य प्रक्रिया मानते हुए आशंकाओं को निर्मूल बताने का प्रयास कर रहा है परन्तु यह सत्य है कि वृद्धि दर पिछली सदियों की तुलना में कई गुना बढ़ जाने से विज्ञान जगत की चिन्ता स्वाभाविक है।
हाल के वर्षों में ग्रीन हाउस गैसों विशेषकर कार्बन डाईऑक्साइड के उत्पादन व उत्सर्जन में बेतहाशा वृद्धि हुई है। विकासशील राष्ट्रों में भी औद्योगीकरण, वनों के विनाश, अत्यधिक जीवाश्म ईंधन का दहन इत्यादि कारणों से लगभग 5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से इन गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है व वातावरण में इनका संघनन 0.5 प्रतिशत या 2 पी.पी.एम. की दर से बढ़ा है। आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में कल कारखानों व मोटर वाहनों की संख्या में भारी वृद्धि के कारण कार्बन डाईऑक्साइड की उत्सर्जन मात्रा पर नियंत्रण आसान नहीं है। विश्व समुदाय कई अन्तर्राष्ट्रीय करारों जिनमें मांट्रियल प्रोटोकाॅल, यू.एन.एफ.सी.सी.सी. क्योटो प्रोटोकाॅल इत्यादि शामिल हैं, के द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन को नियंत्रित करने हेतु प्रयासरत है। लक्ष्य है 2010 तक उत्पादन स्तर में 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत तक की कमी लाना।
आर्थिक विकल्प
कुछ विकसित राष्ट्रों ने सम्बन्धित उद्योगों पर कार्बन ऊर्जा टैक्स जो 160.00 रु. से 450.00 रु. प्रति टन तक है, लगाया है। अन्तर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेन्सी ने अनुमान लगाया है कि 721 अमरीकी डालर लगभग 2900.00 रु.) प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड का ऊर्जा कर लगाने पर 2050 ई. तक उत्सर्जन स्तर को 1990 के स्तर पर लाया जा सकता है। साथ ही स्वच्छ एवं उन्नत टेक्नोलॉजी को अपनाने हेतु करोड़ों डालर का निवेश करना होगा। यह न तो व्यावहारिक होगा और न उचित। इसका कुप्रभाव आर्थिक विकास दर में मंदी के रूप में होगा। वन संवर्धन एवं विकास: श्रेष्ठ विकल्पवनों द्वारा प्राकृतिक व पारिस्थितिकीय सन्तुलन के कई अनमोल कार्य स्वाभाविक रूप से होते हैं।
इनमें से प्रमुख है प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड को ग्रहण करना व कार्बन घटक को स्थाई रूप से अपने अंदर संचित रखना। वन एक वृहद कार्बन सिंक के रूप में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं जिसके कारण कार्बन डाईऑक्साइड की वायुमण्डलीय मात्रा कम होती है। दशकों तक पेड़ों में सुरक्षित रहा कार्बन, कार्बन डाईऑक्साइड के रूप में तभी वातावरण में मिलता है जब प्रकाष्ठ ईंधन के रूप में जलता है या उसके जैव पिंड का विघटन होता है। अनुसंधान निष्कर्ष के अनुसार औसतन लगभग 2.2 टन काष्ठ 1 टन कार्बन संचित करने की क्षमता रखता है। इसी प्रकार विभिन्न वय के विभिन्न प्रजातियों वाले प्रति हेक्टेयर वनों की कार्बन डाईआॅक्साइड अवशोषित करने की क्षमता 2 टन से लेकर 5 टन तक होती है। इस प्रकार वर्तमान में कार्बन उत्सर्जित होने वाली लगभग 20 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड में 1 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य पाने के लिए 0.200 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड को आफसेट करने के लिए एक लाख हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र वनाच्छादित कर इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इस वन संवर्धन से अनेक लाभ भी होंगे। विश्व स्तर पर इस लक्ष्य को प्राप्त करना ज्यादा कठिन भी नहीं होगा क्योंकि पर्याप्त भूमि व लगभग 50 हजार करोड़ रु. की राशि, अभी दूसरे विकल्पों पर व्यय की जाने वाली राशि से ज्यादा नहीं है।
भारतीय परिदृश्य
सम्पूर्ण भूमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का 3.7 प्रतिशत भारत द्वारा होता है अर्थात लगभग 640 मिलियन टन। इस उत्सर्जन स्तर को नियंत्रित करने व इसमें 1 प्रतिशत कमी लाने हेतु आकलन के अनुसार लगभग 3 मिलियन हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि पर वन विकास की आवश्यकता है। राष्ट्रीय वन नीति 1988 के अनुसार देश की एक तिहाई भूमि को वनाच्छादित करने के अन्तिम लक्ष्य (यानि लगभग 25 मि.हे. पर वनों को लगाना) को देखते हुए 3 मिलियन हे. भूमि को कार्बन सिंक के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर्यावरण को स्थाई रूप से सुरक्षित रखने हेतु एक दस वर्षीय वार्षिक योजना बनाकर चरणबद्ध तरीके से इसका कार्यान्वयन कर विश्व स्तर पर व्याप्त उष्मा वृद्धि की समस्या का सहज सस्ता व स्थाई हल प्राप्त किया जा सकता है। क्योटो प्रोटोकाॅल के प्रावधानों जिनमें एल.यू.एल. यू.सी.एफ. (लैंड यूज लैंड यूज चेंज एण्ड फाॅरेस्ट) सी.डी.एम. का एक घटक है ने वनीकरण एवं पुनर्वनीकरण के कार्यों को मान्यता दी है। अतः वन भूमि, परती भूमि या सामुदायिक भूमि पर परियोजनाएँ बनाकर उचित माध्यम द्वारा डी.एन.ए. (डेसीग्नेटेड नेशनल अथाॅरिटी) को स्वीकृति हेतु भेजी जा सकती है तथा वनीकरण हेतु आर्थिक सहायता प्राप्त की जा सकती है। परियोजनाओं के कुशल निष्पादन से न सिर्फ भारत भूमि शस्य श्यामला बनेगी बल्कि जलवायु परिवर्तन की भीषण चुनौती को भी स्थाई व प्रभावी रूप से हल किया जा सकेगा।
संयुक्त वन प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य वनों के संरक्षण, विकास तथा उत्पादकता में वृद्धि हेतु नियोजन, वन प्रबन्ध तथा वनों से प्राप्त लाभों के वितरण में स्थानीय जनता की सक्रिय भूमिका सुनिश्चित करना तथा सहभागिता प्राप्त करना है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय वन पंचायत/ग्राम वन समिति द्वारा स्वेच्छा एवं संयुक्त रूप से वन क्षेत्र का माइक्रोप्लान के आधार पर रख-रखाव एवं अग्रेतर विकास किया जाना है। इसके अन्तर्गत ग्राम विकास निधि का सृजन होता है जिसमें 20 प्रतिशत योगदान श्रम के रुप में ग्रामीणों द्वारा किया जाता हैं। ‘देखभाल से भागीदारी’ संयुक्त वन प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
कार्बन अवशोषण-कार्बन क्रेडिट व्यापार
विश्व में तीव्र गति से फैलता प्रदूषण जहाँ विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न करता है वहीं भारत जैसे अनेक विकासशील देशों को वृक्षारोपण सृजित कर धनार्जन का सुअवसर प्रदान करता है। विकासशील देशों में कारखाने स्थापित करने से अधिक लाभदायक व्यवसाय, अधिकाधिक वृक्ष लगाने वाली योजनाओं के माध्यम से वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित कर कार्बन क्रेडिट अर्जित करना तथा कार्बन क्रेडिट के स्थान पर विकसित देशों से धन प्राप्त करना है।
क्योटो प्रोटोकाॅल वर्ष 1997 में स्वीकार किया गया। क्योटो प्रोटोकाॅल के अनुसार वर्ष 2012 तक, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन वर्ष 1990 के उत्सर्जन स्तर से कम से कम 5.2 प्रतिशत कम करना विकसित देशों की वैधानिक बाध्यता है। अब तक विकसित देशों सहित 55 देश क्योटो प्रोटोकाॅल पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1990 में, कुल उत्सर्जित की गई कार्बन डाईआॅक्साइड में आधी से अधिक मात्रा इन्हीं विकसित देशों द्वारा उत्सर्जित की गई थी। क्योटो प्रोटोकाल ने 16.2.2005 से क्रियात्मक रूप ग्रहण कर लिया है। इसकी शर्तों के अनुसार कोई अकेला विकसित देश प्रोटोकाॅल से नहीं हट सकता है। भारत ने 26 अगस्त 2002 को क्योटो प्रोटोकाॅल पर हस्ताक्षर किया है।
कार्बन, सीमेंट, स्टील, वस्त्र, उर्वरक आदि कारखानों से कार्बन डाईआॅक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस आॅक्साइड जैसी गैस भारी मात्रा में उत्सर्जित होती है। यह गैस ओजोन परत को क्षति पहुँचाने के साथ ही वातावरण के तापमान में वृद्धि कर जलवायु परिवर्तन भी करती है। पेट्रोल, डीजल आदि के प्रयोग से भी वातावरण में इन गैसों की वृद्धि होती है। अभिलेखीय उद्देश्य से समस्त 6 ग्रीन हाउस गैसों को एक साथ रखा गया है। वैश्विक तापमान वृद्धि क्षमता को ध्यान में रखते हुए विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों की भूमिका प्रतिशत में निर्धारित की गई है। इनमें कार्बन डाईआॅक्साइड का मान 50 प्रतिशत, मीथेन का मान 18 प्रतिशत, नाइट्रस आॅक्साइड का मान 6 प्रतिशत भाग है, शेष में हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, परफ्लूरो कार्बन एवं सल्फर हेक्साफ्लोराईड है।
वैश्विक तापमान वृद्धि क्षमता का मापन, आई.पी.सी.सी. के मापदण्डों के अनुसार किया गया है, जिसके अनुसार किसी प्रदूषक द्वारा एक निर्धारित अवधि (क्योटो प्रोटोकाॅल के अनुसार 100 वर्ष) में वातावरण को गर्म करने के सापेक्ष प्रभाव को निर्धारित किया गया है। कार्बन डाईआॅक्साइड की वैश्विक तापमान वृद्धि क्षमता को 1 मानते हुए विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों की वैश्विक तापमान वृद्धि क्षमता नम्नानुसार है:-
ग्रीन हाउस गैस | वैश्विक तापमान वृद्धि क्षमता |
कार्बनडाई ऑक्साइड | 1 |
मीथेन | 21 |
नाइट्रस ऑक्साइड | 310 |
हाइड्रोफ्लोरो कार्बन | 140 से 11,700 |
परफ्लूरो कार्बन | 7,000 से 9,200 |
सल्फर हेक्साफ्लोराइड | 23,900 |
क्योटो प्रोटोकाॅल के अनुसार विकासशील देश ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कमी लाने हेतु तीन प्रक्रियाओं में से कोई भी प्रक्रिया अपना सकते हैं। प्रथम प्रक्रिया में संयुक्त क्रियान्वयन का प्राविधान है जिसके अनुसार विकासशील देश किसी अन्य विकासशील देश में उत्सर्जन कम करने वाली परियोजनाएँ क्रियान्वित कर सकते हैं अथवा प्रदूषक अवशोषक प्रक्रिया का उपयोग कर उत्सर्जन अवशोषण में वृद्धि कर सकते हैं। ऐसी परियोजना, विकसित देशों को, ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। विकसित देश, अन्य विकसित देशों में जहाँ उत्सर्जन में कमी सरलता से हो सकती है उत्सर्जन व्यापार कर सकते हैं।
क्योटो प्रोटोकाॅल के अनुच्छेद- 12 में स्वच्छ विकास प्रक्रिया का प्राविधान है। इसके अनुसार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने हेतु विकसित देश यह प्रक्रिया भी अपना सकते हैं। यह प्रक्रिया:
(अ) विकासशील देशों का चिरन्तर विकास का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी।
(ब) औद्योगिक देशों को उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी।
सीडीएम का उद्देश्य औद्योगिक देशों को विकासशील देशों में ‘पर्यावरणीय मित्र’ परियोजनाओं में निवेश करने हेतु प्रोत्साहित करना व इन निवेश से प्राप्त कार्बन क्रेडिट से अपना उत्सर्जन कम करना है। सीडीएम से निजी क्षेत्र के माध्यम से विकासशील देशों में निवेश वृद्धि की सम्भावना है। इस निवेश से यूएनएफसीसीसी के उद्देश्यों को प्राप्त करने, पर्यावरणीय मित्र तकनीकों के स्थानान्तरण में वृद्धि होने एवं चिरन्तर विकास को प्रोत्साहन मिलने की सम्भावना है।
स्वच्छ विकास प्रक्रिया सीडीएम की मुख्य विशेषताएँ निम्नानुसार है:
(i) सीडीएम के अन्तर्गत वातावरण से 1 टन कार्बन डाईआॅक्साइड व अन्य ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को अवशोषित करने पर एक कार्बन क्रेडिट मात्रा के बराबर माना जाएगा। इसे प्रमाणित उत्सर्जन कमी सीईआर कहा जाएगा।
(ii) इन परियोजनाओं से सृजित सीईआर का उपयोग विकसित देश अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को प्राप्त करने में कर सकते हैं।
(iii) सृजित सीईआर तीन प्रकार का है 1. सामान्य सीईआर 2. दीर्घकालीन सीईआर (बाजार मूल्य सामान्य सीईआर का 50 प्रतिशत) एवं 3. अस्थाई सीईआर (बाजार मूल्य सामान्य सीईआर का 10 प्रतिशत)।
(iv) कार्बन क्रेडिट करने की परियोजना 1 जनवरी, 2000 या उसके पश्चात प्रारम्भ हुई हो तथा ऐसी परियोजना 31.12.2005 के पूर्व पंजीकृत हुई हो।
(v) स्वच्छ विकास परियोजना 16.02.2005 से प्रभावित है।
(vi) सीडीएम प्रदूषण अवशोषण प्रक्रिया (सिंक) परियोजना वनीकरण तथा पुनर्वनीकरण की गतिविधियों तक सीमित होगी।
विकसित देशों द्वारा गैसीय उत्सर्जन में कटौती करने के स्थान पर कार्बन क्रेडिट क्रय का प्रावधान होने के कारण वे भारत जैसे विकासशील देशों की कम्पनियों से कार्बन क्रेडिट क्रय कर रहे हैं। क्योटो प्रोटोकाॅल के अनुसार भारत सरकार ने 16 अप्रैल 2004 को सचिव, वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सीडीएम प्राधिकरण का गठन किया है। एनडीसीएमए में भारत सरकार के विदेश सचिव, वित्त सचिव, सचिव औद्योगीकरण नीति व संवर्धन, सचिव (जलवायु परिवर्तन)- पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय या उनके नामित प्रतिनिधि सदस्य हैं। निदेशक (जलवायु परिवर्तन) पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय, प्राधिकरण के सदस्य सचिव हैं। स्वच्छ विकास परियोजना प्रारम्भ करने हेतु राष्ट्रीय सीडीएम प्राधिकरण के समक्ष प्रस्ताव अनुमोदन हेतु प्रस्तुत करना होता है। एनसीडीएमए ऐसे प्रस्ताव का सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण के आधार पर परीक्षण करता है। प्रस्ताव का परीक्षण व अनुमोदन प्राप्त करने के पश्चात प्रस्तावक द्वारा यह परियोजना जर्मनी स्थित डी ओ ई के समक्ष अनुमोदन व पंजीकरण हेतु प्रस्तुत की जाती है। डी.ओ.ई प्रस्ताव का परीक्षण कर परियोजना को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के सम्बन्ध में जन सामान्य से विचार प्राप्त करती है। परियोजना के पक्ष में विचार आने पर परियोजना को एक्जीक्यूटिव बोर्ड के समक्ष रखा जाता है। डीओई द्वारा प्रस्तावक के दावे के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में कमी हो रही है अथवा नहीं, का परीक्षण कर सत्यापन रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। इस प्रक्रिया के पश्चात डीओई द्वारा सीईआर में कमी व विक्रय किए जाने वाले सीईआर की संख्या निर्धारित करने के उपरान्त प्रस्ताव का अनुमोदन एक्जीक्यूटिव बोर्ड द्वारा किया जाता है। एक्जीक्यूटिव बोर्ड के अनुमोदन के 15 दिन के बाद सीईआर का हस्तान्तरण किया जा सकता है।
अभी तक सीडीएम परियोजना के अन्तर्गत वनीकरण/पुनर्वनीकरण का एक मात्र प्रस्ताव चीन द्वारा पंजीकृत करवाया गया है।
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