विश्व तापीकरण : ग्लोबल वार्मिंग


मौसम परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में सूर्य के चमकने की तीव्रता में परिवर्तन जोकि 27 दिन से 90 वर्ष तक में परिवर्तित होते रहते हैं, में मुख्य 22 वर्ष के चक्र में सूर्य के अन्दर चुम्बकीय गुणधर्मों में परिवर्तन तथा चमक में अन्तर से धरती के वायुमंडलीय तापमान में परिवर्तन होना माना जाता है। धरती सूर्य के चारों ओर घूमती हुई अपने अक्ष पर भी घूमती है। सूर्य से उसकी दूरी व अक्ष पर घूर्णन से ’मिलानकोविच इफेक्ट’ पैदा होता है।

ग्लोबल वार्मिंग (विश्व तापीकरण) आज एक ऐसा ज्वलन्त विषय है जो पृथ्वी के बच्चे-बच्चे को ज्ञात है। प्राकृतिक व मनुष्यजनित करतूतों की वजह से वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती सान्द्रता से ग्लोबल वार्मिंग हो रही है तथा मौसम परिवर्तन भी। उक्त गैसों में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड एक महत्त्वपूर्ण तत्व है क्योंकि यह वातावरण में ज्यादा पायी जाती है। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की सान्द्रता औद्योगीकरण (जलयुग) के आने पर 31 प्रतिशत तक बढ़ गई है। अर्थात 280 molmol-1 से 380 molmol-1 और इस सदी के अन्त तक यह लगभग 550 molmol-1 हो जाने की संभावना है। वन विनष्टीकरण के कारण 2.3Gt एवं जैव ईंधन जलने से 5.7Gt कार्बन-डाइ-ऑक्साइड वातावरण में आती है। यह 8Gt कार्बन-डाइ- ऑक्साइड वातावरणीय स्तर पर 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष जोड़ता है। जिसमें 4.7Gt समुद्री तथा स्थलीय पौधों द्वारा प्रतिवर्ष सोख लिया जाता है तथा 3.3 वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की सान्द्रता बढ़ाता है।

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड व अन्य ग्रीन हाउस गैसों की वातावरणीय सान्द्रता पृथ्वी की सतह के तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि कर रहे हैं। अनेक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि बीसवीं सदी में पृथ्वी की सतह के पास की हवा के तापमान में 0.80C की वृद्धि हो चुकी है। एक अनुमान के अनुसार यदि इसी दर से तापमान में बढ़ोत्तरी होती रही तो सदी के अन्त तक 2 से 4.50C तापमान ऊँचाई एवं अक्षांश के आधार पर बढ़ जायेगा। तापमान में सम्भाव्य यह वृद्धि विभिन्न जीवों जैसे पौधों, पशुओं व जीवाणुओं के वितरण, प्रचुरता तथा उत्पादकता में उनके रूप, संरचना, शारीरिकी एवं जैव रासायनिक प्रक्रिया में अन्तर लाकर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव छोड़ेगी। इस तरह चक्रान्त में दुनिया भर के देशों के अर्थतन्त्र राजनीति एवं सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव पड़ेगा। सहज वायुमंडलीय प्रकृति के कारण उष्ण कटिबंधीय देशों में इसका ज्यादा प्रभाव दिखाई देगा जैसे भारत, पाकिस्तान, इन्डोनेशिया, घाना, नाइजीरिया इत्यादि। यह अत्यधिक महत्व रखता है कि ग्लोबल वार्मिंग के सम्भावित कारण तथा पर्यावरण परिवर्तन, इसके परिणाम, प्रशमन एवं उपयोग की जा सकने वाली योजना को युद्धस्तर पर लागू किया जा सके ताकि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेन्ज) को सहने योग्य बनाया जा सके।

जलवायु परिवर्तन के कारण धरती ग्रह पर एक मुख्य चुनौती है। यह पाया गया है कि औद्योगीकरण, पूर्व से आज तक मनुष्य जनित व प्राकृतिक कार्य कलाप सम्पूर्ण विश्व में तथा क्षेत्रीय पैमाने पर लम्बे समय तक चलने वाले निम्न परिवर्तन दे सकते हैं। 1) तापमान : 2) वर्षा : 3) हवा : 4) अन्य कोई तत्व/ प्रक्रिया।

यह तो स्पष्ट है कि मौसम एक जड़ वस्तु न होकर परिवर्तनशील है, जो कि स्वयं ही तथा पिछले 50 वर्षों के नवीन युग में मनुष्य जनित कारणों से परिवर्तित हो रहा है। पृथ्वी में चार हिम युग आये थे जब तापमान सामान्य से नीचे था एवं इनके बीच के युगों में सामान्य एवं उच्च था। नियोप्रोटीरोजोइक समय में ’स्नोबॉल अर्थ’ के पश्चात ही ’केम्ब्रियन एक्सप्लोजन’ हुआ जिसमें बहुकोशिकीय जीव बढ़ने लगे थे।

Fig-1इस तरह धरती का वायुमंडल सर्द-गर्म होता रहा है। मौसम परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में सूर्य के चमकने की तीव्रता में परिवर्तन जोकि 27 दिन से 90 वर्ष तक में परिवर्तित होते रहते हैं, में मुख्य 22 वर्ष के चक्र में सूर्य के अन्दर चुम्बकीय गुणधर्मों में परिवर्तन तथा चमक में अन्तर से धरती के वायुमंडलीय तापमान में परिवर्तन होना माना जाता है। धरती सूर्य के चारों ओर घूमती हुई अपने अक्ष पर भी घूमती है। सूर्य से उसकी दूरी व अक्ष पर घूर्णन से ’मिलानकोविच इफेक्ट’ पैदा होता है। प्रथम प्रभाव धरती के गोल से वर्तुलाकार परिक्रमा पथ के कारण होता है जिससे सूर्य की किरणों के धरती पर पहुँचने पर 30% का अन्तर आ जाता है। दूसरा धरती का अपना अक्ष थोड़ा झुका हुआ है और तीसरा धरती का अपनी कक्षा में घूर्णन गति में थोड़ा अन्तर आ जाता है इस तरह प्रतिपल मौसम परिवर्तन की सम्भावना रहती है।

’प्लेट टेक्टोनिक्स’ व ’कान्टिनेन्टल ड्रिफ्ट’ के कारण अर्थात धरती की ऊपरी ठोस सतह जो प्लेट (तश्तरी) की तरह की बनी है तथा एक दूसरे से 2-3 सेमी प्रतिवर्ष की गति से दूर या नजदीक आ-जा रही है, के द्वारा ग्रहण किये जाने वाली सूर्य की गर्मी भी स्थानानुसार अलग-अलग रहती है। ज्वालामुखी कार्बन चक्र का एक अभिन्न अंग है। तुरंत गर्मी देने के पश्चात ज्वालामुखी की धूल पृथ्वी सतह पर सूर्य किरणों को आने से रोकती हैं इससे कुछ समय के लिये मौसम में ठंडक आती है। जलवायु परिवर्तन में ये अस्थाई परिवर्तन भी महत्त्व रखते हैं।

मनुष्य जनित कार्य कलाप जैसे जीवाश्म ईंधन, रासायनिक उर्वरक, औद्योगीकरण, शहरीकरण, सीमेन्ट उत्पादन, शहरों का विकास, प्राकृतिक पदार्थ का दोहन, वन-विनाश, वनाग्नि आदि वातावरणीय बदलाव ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता तथा वितरण बदल देते हैं जिससे निचले वायुमंडल में ग्रीन हाउस इफेक्ट की वजह से तापमान बढ़ जाता है। ग्रीन हाउस जैसे छोटे तरंग दैर्ध्य वाली गैसें सूर्य किरणों को सोखने एवं उत्सर्जन में अच्छी होती हैं। ग्रीन हाउस इफैक्ट में ग्रह का तापीय सन्तुलन बदल जाता है। वायुमंडल कुछ ऐसी गैसों से भर जाता है जो इन्फ्रारेड किरणों को सोखने व छोड़ने लगती हैं। विश्व के पावर स्टेशन 21.3%, औद्योगीकरण 16.82%, यातायात 14% खेती व उर्वरक 12.5%, जैव ईंधन प्रोसेसिंग 11.3%, रिहायसी क्षेत्र 10.3%, ज्वलन प्रक्रिया 10% व कूड़ा निस्तारण 3.4% ग्रीन हाउस जैसे प्रभाव उत्पन्न कर रहे हैं। कियोटो प्रोटोकाल (1997) के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के लिये उत्तरदायी मुख्य ग्रीन हाउस जैसे, पानी की भाप (H2O), कार्बन-डाइ-ऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), ओजोन (O3), सल्फर हेक्सा फ्लोराइड (SF6), हाइड्रो फ्लोरो कार्बन (HFCs)0, पर फ्लोरो कार्बन (PFCs) हैं। इन सब गैसों का ग्लोबल वार्मिंग पोटोन्शियल (GWP) विश्व तापीकरण विभव इनकी सान्द्रता, वातावरण में इनकी उम्र एवं इन्फ्रारेड सोखने की शक्ति पर निर्भर करता है।

भाप : पानी की भाप सबसे अधिक पाये जाने वाली एवं वातावरण में सबसे प्रमुख ग्रीन गैस है। विश्व में औसत भाप की उत्पादकता सीधे मनुष्य जनित कर्मों का फल नहीं है फिर भी यह एक प्रति सूचना तन्त्र की तरह का रोल करती है। वातावरण में प्रति एक डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि 6% अधिक पानी की भाप को धारण करने की शक्ति प्रदान करती है।

कार्बन डाइ ऑक्साइड : 60% से ज्यादा ग्रीन हाउस इफैक्ट के लिये कार्बन-डाइ-ऑक्साइड जिम्मेदार है। सन 1950 से, हवाई द्वीप की मोना लुआ आब्जरवेटरी में, समुद्र सतह से 11,141 फीट ऊपर, इसका सान्द्रण हमेशा मापा जा रहा है। वातावरण में इसकी सान्द्रता परिवर्तन शील किन्तु बढ़त की ओर है तथा विश्व तापीकरण विभव एक माना जाता है।

मीथेन : मीथेन मुख्यतः जैव पदार्थों के ऑक्सीजन- निरपेक्ष टूटने से, चावल की खेती से एवं प्राणियों की आँत में भोजन के खमीरीकरण से पैदा होती है। औद्योगीकरण से पहले यह 770 पीपीबी थी व आज लगभग 1745 पीपीबी है। इसकी उम्र वातावरण में 12 वर्ष व विश्व तापीकरण विभव 62 है। यह कार्बन- डाइ-ऑक्साइड से लगभग आधी गर्मी रोके रखती है।

नाइट्रस ऑक्साइड : नाइट्रस ऑक्साइड का मुख्य स्रोत उर्वरक, जैव ईंधन तथा जैव ज्वलन है। इसका सान्द्रण औद्योगीकरण से अब तक 280 से 314 पीपीबी हो गया है। यह वातावरण में 120 वर्ष तक रह सकती है तथा विश्व तापीकरण विभव लगभग 300 है।

ओजोन : ओजोन तीन तरह से विश्व वातावरण को प्रभावित करती है (1) अच्छे ओजोन की सुरक्षा परत स्ट्रेटोस्फीयर में (2) बुरे ओजोन अर्थात ट्रोपोस्फीयर में स्मॉग, जहाँ यह CO2, CH4 व नाइट्रोजन आक्साइड की उपस्थिति में बनती है। इसका सान्द्रण 20% से 50% तक पहुँच चुका है। यह इन्फ्रारेड किरणों को सोखती है (3) अधिकतम ओजोन सान्द्रण 20 किमी से ऊपर 1/100,000 से ज्यादा नहीं है।

एस. एफ. 6, एच.एफ.सी., पी.एफ.सी. : ये शक्तियुक्त गैसें विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं यथा एल्यूमीनियम गलने से, सेमी कन्डक्टर बनाने से, एम सी एफ सी-22 बनाने से, बिजली के वितरण आदि से बनती हैं। इनकी लम्बी वातावरणीय आयु है तथा काफी इन्फ्रारेड सोखती हैं।

जीव जनित : गैसें क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFCs), कार्बन मोनो ऑक्साइड (CO), नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड (NO1), सल्फर डाइ ऑक्साइड (SO2), वातावरणीय भूरे बादल व एरोसोल आदि मनुष्य/जैव जनित गैसें हैं। मॉन्ट्रीयल प्रोटोकाल के तहत हेलोजिनेड गैसों का उत्सर्जन रोक दिया गया है फिर भी यह लगभग 12 प्रतिशत ग्रीन हाउस इफेक्ट के लिये जिम्मेदार हैं। कार्बन मोनो ऑक्साइड कार्बन युक्त पदार्थों के अधूरे जलने एवं वन विनष्टीकरण से पैदा होती हैं। इसकी वजह से CH4 एवं ट्रोपोस्फेयर की ओजोन का सान्द्रण बढ़ जाता है। ओजोन का सान्द्रण प्रोपेन, ब्यूटेन, इथेन व नाइट्रोजन-डाइ-आक्साइड की वजह से भी बढ़ता है। नाइट्रोजन-डाइ-ऑक्साइड मुख्यतः तड़ित के समय मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं के व्यवहार से एवं जल से पैदा होती हैं। वातावरणी भूरा बादल (ब्राउन क्लाउड) ओजोन, धुएँ, शूट, नाइट्रोजन आक्साइड, कार्बन एवं प्रदूषण की छोटी बूँदें हैं जो हिन्दुकुश हिमालय तिब्बत के ग्लेशियरों में कालिख के रूप में जम रहे हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का असर इतना खतरनाक हो सकता है कि इसे विश्व विनाश का हथियार माना जा रहा है। अतः इसे रोकने के लिये भी उसी स्तर पर जन मंशा है। जैसे-

1. जैव ईंधन का प्रयोग कम करना/कम ईंधन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करना।

2. वन विनष्टीकरण को रोकना।

3. वनीकरण एवं पुनर्वनीकरण के कार्यक्रम को भारी भरकम तरीके से लागू करना। अध्ययनों द्वारा यह पता किया जा रहा है कि कौन-कौन से वृक्ष अधिकतम कार्बन-डाइ-ऑक्साइड सोख सकते हैं, ताकि उन्हीं का रोपण अधिकतम किया जा सके।

4. सस्य सम्बन्धी वनीकरण की शुरुआत व विकास करना ताकि भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति भी होती रहे।

5. भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कम जानी पहचानी फसलों की सुरक्षा।

6. घास के मैदानों का विकास करना। कुछ अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि गहरे हरे तथा भीगे घास के मैदान जंगलों की तुलना में ज्यादा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड सोखते हैं।

7. ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित न करने वाली साफ सुथरी तकनीकी का विकास करना।

8. पिछले कुछ वर्षों में ‘कार्बन मार्केटिंग’ अथवा ‘सी- मार्केटिंग’ की अवधारणा के तहत विकसित देश विकासशील व विकसित देशों को साफ सुथरी ऊर्जा तकनीक उपलब्ध करवा रहे हैं ताकि ग्रीन हाउस गैसें कम उत्सर्जित हों।

9. कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को दुबारा ठन्डक पैदा करने वाली गैस की तरह इस्तेमाल करना।

10. समुद्र में लोहे के बीज डालने से यह प्रतिवर्ष 3 से 5 बिलियन टन कार्बन डाइ ऑक्साइड सोख सकेगा जोकि जंगल लगाने से लगभग 10 गुना सस्ता है।

11. नई तकनीकी से घर फैक्ट्री इत्यादि बनाना ताकि वातावरणीय परिवर्तन सह्य हो सके।

12. फैक्ट्रियों की ऊर्जा कार्य क्षमता बढ़ाना।

13. फैक्ट्रियों के कूड़े एवं जैव अपव्यय से पुनः आपूर्ति स्थायी ऊर्जा उत्पादन करना।

14. जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नई ऊर्जा तकनीकों का इस्तेमाल करना जैसे सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, भूतापीय ज्वार भाटे की ऊर्जा, समुद्र तापीय ऊर्जा, जल ऊर्जा, जैव गैस, जैव ऊर्जा, न्यूक्लियर ऊर्जा इत्यादि।

15. वातावरण से कार्बन जब्त कर लेना इसके लिये भी दो सुझाव हैं भूवैज्ञानिक जब्तीकरण एवं खनिज जब्तीकरण।

16. मीथेन को भूमि भराव, कोयले की खानों एवं खनिज तेल एवं गैस सिस्टम में ऊर्जा हेतु प्रयोग करना।

इनके अलावा भी बहुत से विचार वैज्ञानिक एवं तकनीकी जगत में चल रहे हैं जिनका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों का न्यायोचित उपयोग है ताकि भविष्य में धरती को बचा कर जीवनोपयोगी बनाये रखा जा सके।

सम्पर्क


सुरेश चन्द्र जोशी एवं कौमुदी जोशी
जीबीपीआईएचइडी; श्रीनगर (गढ़वाल) : भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, भुवनेश्वर


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