विश्व के प्रमुख शहरों की जल प्रबन्धन व्यवस्था


पानी की कमी शहरों के लिये चुनौती तथा अवसर दोनों है। नए स्रोतों की तलाश करना तथा कम कीमत पर जल आपूर्ति करना इसमें प्रमुख है। भारत तथा अन्य विकासशील देशों के लिये यह एक गम्भीर चुनौती है। यहाँ बड़े पैमाने पर औद्योगिक कारखानों को बढ़ावा दिये जाने की वजह से कृषि तथा पीने के पानी की आपूर्ति इन्हीं कारखानों से की जाती है। चेन्नई में ग्रामीण इलाकों के जल को नहर के जरिए शहर में पहुँचाए जाने की वजह से खेती के लिये पानी का संकट खड़ा हो गया। मानव इतिहास के अन्तर्गत मानव विकास, सभ्यता तथा पारिस्थितिकी तंत्र के लिये जल एक महत्त्वपूर्ण घटक माना जाता है। पानी के इर्द-गिर्द ही मानव सभ्यताएँ पनपी। प्राचीन काल से ही अनेक शहरों की बसावट तथा मानव बस्तियाँ नदियों के किनारे ही बसीं। दैनिक उपयोग हेतु लोगों को आसानी से पानी उपलब्ध हो सके यह इसका एक प्रमुख कारण था।

लेकिन आज के सन्दर्भ में देखें तो ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी पानी तथा स्वच्छता से जुड़ी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। जितनी तेजी से मानव सभ्यताएँ विकसित हुईं, उतनी ही तेजी से ये समस्याएँ भी उभरकर सामने आई हैं। इनमें जल, स्वच्छता तथा मैले पानी का उचित निस्तारण एक प्रमुख मुद्दा है।

अगर हम इन समस्याओं को वैश्विक दृष्टि से देखें तो विकासशील देशों के शहर विकसित देशों के शहरों की अपेक्षा अधिक प्रभावित हैं। गौरतलब है कि विकासशील देशों ने तीव्र शहरीकरण की शुरुआत न्यूयार्क तथा लंदन जैसे वैश्विक शहरों की तर्ज पर की। जिससे इन शहरों में लोगों को समान स्तर से मूलभूत सुविधाओं की आपूर्ति में बड़ी बाधक साबित हुई।

विकसित देशों के शहरों में विकास की प्रक्रिया एक क्रमिक स्तर से हुई है। यानि इन शहरों में जनसंख्या बढ़ने के साथ ही मूलभूत नागरिक सुविधाओं की आपूर्ति में समानता बरती गई। इसकी बड़ी वजह इन शहरों का आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से सशक्त होना है। औद्योगीकरण के प्रारम्भ में लंदन की जनसंख्या में तेजी से इजाफा हुआ। जिससे वहाँ पीने के पानी तथा साफ-सफाई का संकट खड़ा हो गया। किन्तु लंदन ने इस समस्या पर तत्काल विजय प्राप्त कर ली।

इस सन्दर्भ में भारत तथा अन्य विकासशील देशों के शहरों की तुलना करें तो चीजें बिलकुल उलट नजर आती हैं। मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, ढाका तथा ब्राजील के शहरों को देखें तो यहाँ बढ़ती जनसंख्या तथा तीव्र शहरीकरण ने बुनियादी ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया है। इससे यहाँ असमान वृद्धि दर के साथ ही मूलभूत सुविधाओं की कमी मसलन पीने का पानी, स्वच्छता तथा मैले पानी का निस्तारण एक बड़ी समस्या साबित हुई है।

विश्व पटल पर तेजी से उभर रहे इन शहरों के बुनियादी ढाँचे को बेहतर बनाना, सभी के लिये स्वच्छ जल की आपूर्ति तथा साफ-सफाई की उचित व्यवस्था जैसी मुलभूत सुविधाओं का मुद्दा सर्वप्रथम अन्तरराष्ट्रीय जल सम्मेलन, कनाडा में वर्ष 1977 में उठाया गया। और इसी सम्मेलन में वर्ष 1981-90 को अन्तरराष्ट्रीय जल आपूर्ति तथा स्वच्छता वर्ष घोषित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एक दशक के भीतर विश्व के सभी नागरिकों को पीने योग्य स्वच्छ जल की आपूर्ति तथा स्वच्छता की व्यवस्था करना।

वर्ष 2002, जोहानसबर्ग शिखर सम्मेलन में भी विश्व में जल आपूर्ति सम्बन्धित मुद्दों पर चर्चा हुई। इस सम्मेलन में 2015 तक विश्व की आधी आबादी तक स्वच्छ जल की आपूर्ति करना सुनिश्चित किया गया। जिसे एक लक्ष्य सहस्त्राबदी विकास लक्ष्य यानि मीलेनियम डेवलपमेंट गोल (एमडीजी) के अन्तर्गत शामिल किया गया। लेकिन इस लक्ष्य में स्वच्छता के मुद्दे पर कोई बात नहीं हुई। जबकि जल आपूर्ति के बाद मैले पानी का बहाव एक बड़ी समस्या होती है। जिसका उपचार करना उतना ही जरूरी होता है जितना कि जल आपूर्ति की व्यवस्था।

शहरीकरण तथा जल प्रबन्धन


बेहतर जीवन तथा उद्योग धन्धों की उपलब्धता की वजह से शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। जैसा कि हमने बताया विश्व में औद्योगीकरण के बाद शहरों की आबादी में तेज बढ़ोत्तरी हुई। सन 1800 में विश्व की कुल शहरी आबादी 3 प्रतिशत थी जो सौ साल बाद बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई। इनमें दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 12 थी। इसी तरह 1950 में दुनिया की एक चौथाई से अधिक लगभग 30 प्रतिशत लोग शहरों में निवास करने लगे। 1950 से 2000 के बीच शहरी जनसंख्या बढ़ोत्तरी की गति ग्रामीण इलाकों से अधिक थी। सन 2000 तक विश्व में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 83 दर्ज की गई।

शहरों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो 2030 तक यह लगभग 500 करोड़ तक पहुँच जाएगी। इसमें विकासशील शहरों की आबादी अधिक होगी। भारत के मुम्बई, कोलकाता तथा बांग्लादेश के ढाका की जनसंख्या सबसे अधिक होगा।

वर्तमान में विकासशील देशों के शहरों की आबादी जिस गति से बढ़ रही है, ऐसे में यहाँ बुनियादी ढाँचे का विकास तथा प्रबन्धन एक बड़ा संकट बन गया है। इसकी मुख्य वजह इन शहरों के निकायों के समक्ष धन की कमी है। हालांकि कई अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से इसे बेहतर बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से विकसित देशों के शहरों में भी जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। परन्तु इन शहरों के आर्थिक रूप से सम्पन्न होने की वजह से जल आपूर्ति तथा बुनियादी ढाँचे का विकास कभी समस्या नहीं बनी। उदाहरण के लिये जापान की बात करें तो 1950 तक इस देश का 90 प्रतिशत से अधिक पानी रिसाव की वजह से बेकार हो जाता था। किन्तु वर्तमान में अपनी ठोस प्रौद्योगिकी के बूते जापान ने ऐसा तंत्र विकसित किया है जिससे इस देश का महज 8 प्रतिशत जल का ही रिसाव हो पाता है। यह विश्व का ऐसा देश है जहाँ जल रिसाव सबसे कम है।

इस बारे में विकासशील देशों का प्रदर्शन बहुत बुरा है। बड़े पैमाने पर कर्ज का बोझ तथा शासन की विफलता के कारण यहाँ के शहरों में ऐसी तकनीक विकसित करना एक टेढ़ी खीर है। साथ ही यहाँ शहरों की योजना को भी इन सबके लिये जिम्मेदार माना जाता है। ज्यादातर शहरों का खड़ा यानि वर्टिकल विकास हुआ है। शहर अपनी जरूरतों के हिसाब से बसते चले गए। जिसकी वजह से शहर के मध्य भाग की जनसंख्या का घनत्व बहुत बढ़ गया। अधिकतर रोजगार तथा व्यापार के साधन शहर के इसी हिस्से में उपलब्ध थे।

इन स्थानों पर पानी तथा अन्य साधनों की आपूर्ति नगरपालिका के लिये प्रमुख माना जाता है। किन्तु पिछले एक दशक पूर्व से इन शहरों के क्षैतिज विस्तार ने एक नई समस्या खड़ी कर दी है। आज शहर के हर हिस्से में जल आपूर्ति तथा स्वच्छता की व्यवस्था करना यहाँ के नगरपालिका के लिये सम्भव नहीं हो पा रहा है।

मुम्बई का उदाहरण देखे तो इस शहर की लगभग आधी आबादी अवैध झोपड़पट्टियों में रहती है। इन स्थानों के अधिक सकरा तथा अवैध होने की वजह से महानगरपालिका इनके हर हिस्से की सफाई तथा पानी की आपूर्ति करने में अपनी असमर्थता जताती है। इसी तरह दूसरे शहरों में भी अवैध कालोनियों और झोपड़पट्टियों की तुलना में महत्त्वपूर्ण लोगों के ठिकानों पर पानी पहुँचाने को महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

जल की कमी


पानी की कमी शहरों के लिये चुनौती तथा अवसर दोनों है। नए स्रोतों की तलाश करना तथा कम कीमत पर जल आपूर्ति करना इसमें प्रमुख है। भारत तथा अन्य विकासशील देशों के लिये यह एक गम्भीर चुनौती है। यहाँ बड़े पैमाने पर औद्योगिक कारखानों को बढ़ावा दिये जाने की वजह से कृषि तथा पीने के पानी की आपूर्ति इन्हीं कारखानों से की जाती है।

चेन्नई में ग्रामीण इलाकों के जल को नहर के जरिए शहर में पहुँचाए जाने की वजह से खेती के लिये पानी का संकट खड़ा हो गया। इस वजह से कई किसानों की आजीविका प्रभावित हुई। बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों से शहरों की ओर लोगों को पलायन हुआ। जैसा कि हमने शहर की अवैध कालोनियों की बात की थी, इनमें रहने वाले अधिकतर लोग इसी तरह रोजी-रोटी की तलाश में लगे रहते हैं।

अधिक आर्थिक लागत


शहरी क्षेत्रों में जल आपूर्ति तथा स्वच्छता बनाए रखने में आर्थिक लागत एक बड़ा कारक है। विकासशील देशों के शहरों के तेजी से वैश्विक स्तर पर उभरने की वजह से यहाँ जल तथा पर्यावरण सम्बन्धित स्रोतों का खूब दोहन किया गया है। इस कारण कई स्रोत समाप्त हो गए हैं। इन स्रोतों को पुनर्जीवित तथा नए की खोज करने में धन तथा समय दोनों खर्च करना पड़ता है।

इस सम्बन्ध में जापान के उदाहरण पर गौर करें तो, उसे अपने देश में जल रिसाव को 80-85 प्रतिशत से 25 तक घटाने में करीब पन्द्रह वर्ष लग गए।

वित्त तथा प्रबन्धन में बाधा


ज्यादातर विकासशील देशों में पानी की आपूर्ति सार्वजनिक तथा निजी दोनों क्षेत्रों द्वारा की जाती है। जिसके चलते इनके जल आपूर्ति की लागत में भारी अन्तर होता है। साथ ही शहर के ज्यादातर हिस्सों में मीटर सिस्टम न होने की वजह से इसकी निगरानी में भी कठिनाइयाँ आती हैं।

कलकत्ता शहर में पानी की आपूर्ति की देखभाल के लिये कोई मीटर नहीं लगाया गया है। साथ ही मुम्बई तथा अन्य शहरों में पानी की आपूर्ति के लिये उपभोक्ताओं से कम लागत वसूली जाती है। इससे वित्त विभाग पर वित्त का अतिरिक्त बोझ पड़ता है। अगर इसे सप्लाई पम्प तथा बिजली की लागत से जोड़े तो इसमें बड़ा अन्तर आता है।

इन विश्लेषणों से यह पता चलता है कि विकासशील देशों के शहरों के लिये 21वीं सदी में भी जल आपूर्ति, स्वच्छता तथा मैले पानी का निस्तारण एक बड़ी समस्या है।

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