आज के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि किसी को मी भूमि (मिट्टी या मृदा) की फिक्र नहीं है। वास्तव में मिट्टी या मृदा की स्थिति कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में शरशय्या पर लेटे घायल भीष्म पितामह जैसी है। भीष्म पितामह को अर्जुन के बाणों से बिंधने के कारण उतनी पीड़ा नहीं थी जितनी कि महाभारत के युद्ध में हुए भीषण नरसंहार के बाद भारत के भविष्य को लेकर थी। औपचारिकतावश भीष्म के पास बुधिष्ठिर, अर्जुन, कुन्ती, द्रौपदी, गांधारी आ आकर अनुपात करते रहे। उनकी यह कहानी अब बीते युग की कहानी हो चुकी है। मिट्टी के प्रति किसानों, मृदा विज्ञानियों तथा देश के कणचारों को मौखिक संवेदना है। सम्प्रति हमारे देश ही क्यों, सारे विश्व की मिट्टियां जनसंख्या के बोझ से कराह रही हैं। वे बुरी तरह से प्रदूषण की चपेट में आ चुकी हैं। उनका उद्धारक दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा। अतः मिट्टी व्याकुल है, शिथिल है, मरणासन्न है। अरे आप यह क्या कह रहे हैं? "में ठीक कह रहा हूँ। मैं बताऊंगा कि मिट्टी को क्या हो गया है।"
मेरे गांव से चिट्ठी आई है। मेरे गांव के अधिकांश लोग खेतिहर हैं। उन्हें रात-दिन मिट्टी से ही काम रहता है। उन्होंने मुझे लिख भेजा है। "तुम कब से नहीं आये। अब तुम्हारे बचपन वाले खेत नहीं रहे, वे ऊसर और बीहड़ हैं।" वन चुके हैं। तुम जाते तो अपनी आंखों से देखकर अनुभव करते। किन्तु तुम तो दूर हो सुना है तुमने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मिट्टी के बारे में ही शोध कार्य भी किया है, ऊसर मिट्टियों के बनने का कारण खोज निकाला है और मिट्टियों के बारे में पुस्तकें भी लिखी है।
हम तुम्हें सूचित कर रहे हैं कि हम जिन खेतों को नहर से सोचते थे, वे अब ऊसर बन चुके हैं। पहले जहां ईख होती थी, अब बरसात में धान लगा देते हैं जो हमारी जीविका का एकमात्र सहारा है।हमने नहर की सिंचाई बन्द करके नये बोर किये गये नलकूपों से अपने खेतों को सींचा। काफी रुपये खर्च करते गये, फिर भी खेत ऊसर बनते गये। अब सारे ऊसर ज्यों के त्यों पड़े हैं। 'ऊसर बरसे तृण नहिं जामा यह कहावत हमारे खेतों पर लागू है। यह तो भइया! तुम क्यों नहीं आकर अपनी खोजों का लाभ हमारे इन ऊसर से प्रभावित खेतों की पहुंचाते हमारी विपत्तियों का कोई अन्त नहीं रहा।
"जब हमने गांव से कुछ ही दूरी पर ब्लाक अधिकारी की राय से नई रासायनिक खाद डालकर खेतों से अधिक उपज लेने की ठानी तो कुछ ही वर्षों बाद उपज में कमी आने लगी हम भरपूर सिंचाई करते रहे। कुछ सालों के बाद बताया गया कि कुंओं के पानी में यूरिया खाद के कुछ अंश (शायद नाइट्रेट बन कर) मिल गये और वह पानी बच्चों के पीने लायक नहीं रहा। और तो और हमने नई खेती के चक्कर में हल बैल की जगह ट्रैक्टर से जुताई शुरू की। ब्लॉक द्वारा बताये गये उन्नत बीजों से बिजाई की कुछ सालों के बाद हमारी जमीन कठोर (ठोकर) बन गई। बताया गया कि मिट्टी पानी नहीं सोख पा रही।
भइया! हमने हल बैल क्या छोड़ा, गोवर की खाद दुर्लभ हो गई। किन्तु अब नया भूत सवार है सरकारी कृषि अधिकारियों को वे कहते हैं कि गोवर की खाद बहुत लाभदायक है। किन्तु हम तो इस देशी खाद को कब का छोड़ चुके हैं। अब देशी खाद बनाना चाहें तो गोबर कहां से लायें हमने जानवरों को पालना कम कर दिया है। ईंधन की कमी के कारण जो थोड़ा बहुत गोवर निकलता है उससे घरवालियां कंडे पाथ कर खाना बनाने में इस्तेमाल करती है। जंगल तो सिकुड़ते चले गये अब जानवरों के चरने के चारागाह भी नहीं रहे।
अब, आये दिन सरकारी कर्मचारी केंचुए की खाद पर लेक्चर दे जाते हैं। इसमें भी तो गोवर लगता है। और झंझट भी कम नहीं है। केंचुए प्राप्त करके उन्हें जीवित रखने के लिए जैविक पदार्थ जुटाना क्या आसान कार्य है? हमें यह विधि तनिक भी नहीं सुहाती। हम बुवाई के समय यूरिया या डी.ए.पी. जैसी परिचित रासायनिक खादों के लिए आस लगाये रहते हैं।
इधर एक नई बला सिर पर आ पड़ी है। हमारी फसलों में कीटों के अलावा विषाणु (वायरस) आदि से उत्पन्न होने वाले रोग उपज को आधी कर रहे हैं, इनके नियंत्रण हेतु तरह-तरह की दवाएं छिड़कने की सलाह दी जाती है। छिड़काव की मशीनें मंहगी हैं और यदि असावधानी से छिड़काव किया जाता है। तो छिड़काव करने वाले मजदूरों की मृत्यु तक हो जाती है आंखों का सृजना, सिर दर्द होना आम बातें हैं।
हम बौरा गये है अपने बाप-दादों के खेतों से हम अमृततुल्य अन्न न उपजा कर 'विषधारा, उत्पन्न कर रहे हैं। बताइये ना हमारी किसानी को, हमारे खेतों को, हमारी मिट्टी को क्या हो गया है? हम अब खेती नहीं विनाशक खेती कर रहे हैं। हम अधिक पैसा खर्च करते हैं, रात-दिन खेतों में डटे रहते हैं किन्तु देखते हैं कि हमारे खेत मरे जा रहे है।
भइया! हम तुमको लिख रहे हैं कि तुमने शहर जाकर जो उच्च शिक्षा प्राप्त की है, यदि उसका लाभ हमें न मिले तो क्या लाभ? क्या हम मर जायें, हमारे खेत ऊसर, बीहड़ बन जायें। "का वर्षा जब कृषि सुखाने" तुम्ही हमें मार्ग सुझाओ। हमें उबारो । तो हे मेरे ग्रामवासियों !
मैं तुम्हारी समस्याओं से अवगत हुआ हम लोग स्वयं आपकी मिट्टियों के बारे में चिन्तित हैं। पूरे विश्व में तमाम क्षेत्रों की मिट्टियां रुग्ण बन रही हैं। हम "मिट्टी के डाक्टरों की संख्या बहुत बड़ी है, हम आपकी समस्याओं के समाधान में निरन्तर लगे हुए हैं। किन्तु हमारी यह धारणा बनी है कि आपकी समस्याओं की जड़ तक पहुंचने के लिए आप लोगों को शिक्षित बनाया जाय हमारा विश्वास है कि आप लोगों को मिट्टी के विषय में प्रारम्भिक एवं मूलभूत जानकारी देना आवश्यक है। अतः मैं आगे जो कुछ लिख रहा हूँ उसे ध्यानपूर्वक पंचायत घर में बैठकर सुनें तथा उसे समझने का प्रयास करें अब पुरानी खेती की प्रथा या घाव की कहावतों के अनुसार खेती करने की प्रथा को विराम देना होगा और उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में मिट्टी के विषय में जो ज्ञान अर्जित हुआ है जिसे 'मृदा विज्ञान' कहा जाता है। उसके आधार पर खेती की नींव रखनी होगी।
हमारे देश में खेती की प्रथा अति प्राचीन है। वेदों में हल, बीज, खाद, ऋतुएं, सिंचाई आदि का उल्लेख मिलता है किन्तु क्रमबद्ध कृषि विज्ञान की नींव डालने वाले पराशर मुनि थे। उनका कृषि पाराशर ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ उसी के आधार पर मौसम की जानकारी, मौसम विषयक भविष्यवाणियां होती रहीं। धीरे-धीरे हम मुगलकाल तक पहुंच गये। हमारे कुछ लोक कृषिविदों ने कहावतों के रूप में पूरा कृषि विज्ञान प्रचारित किया। जाज भी "याच भड्डुरी' तथा 'खना' की कहावतें प्रचलित हैं। उत्तर भारत के अधिकांश किसान बाघ भड्डुरी की कहावतों के आधार पर खेती करते हैं जुताई, बुवाई, कटाई, मंड़ाई आदि कृषि क्रियाएं पूरी करते हैं। खना देवी की कहावतें बंगाल में अधिक लोकप्रिय रही हैं।
दुर्भाग्यवश अंग्रेजी राज्य के सुदृढ़ होने पर परम्परागत खेती में बदलाव आने शुरू हुए मैंने अपनी पुस्तक "भारतीय कृषि का विकास' में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि नई खेती का सूत्रपात भारत में जे. डब्ल्यू. लेदर नामक मृदा विज्ञानी के यहां पर आने पर हुआ। तब से अब तक 125 वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है। उससे 5000 वर्षों से चली आ रही परंपरागत कृषि में बदलाव आने लगे। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तथाकथित "हरित क्रान्ति" ने किसानों को व्यावसायिक बना दिया। उन्होंने निर्ममतापूर्वक मृदा उर्वरता का दोहन किया और उसे ऐसे स्तर पर ला दिया, जहां पर किसान एक बार फिर अपनी खेती को लेकर आठ-आठ आंसू बहा रहा है।
तो मुझे लगता है कि आपकी समस्या का एकमात्र समाधान है "मृदा विज्ञान" के मूलभूत सिद्धांतों से अवगत होकर उनके बारे में चिन्तन मनन करना और तब खेती में हाथ डालना।
मृदा विज्ञान और कुछ नहीं अपितु मिट्टी का सांगोपांग अध्ययन है इसे नया रूप देने वाले कुछेक मृदा विज्ञानी हैं किन्तु उनके द्वारा प्रदत्त नियम पूरे विश्व के किसानों के लिए लाभप्रद हैं। अतः आइये हम अपनी पूर्व परम्परा को भूलकर इस मृदा विज्ञान की नई प्रणाली पर दृष्टिपात करें।
सबसे पहले प्रश्न उठता है कि मृदा क्या है? मृदा के लिए बहुप्रचलित शब्द 'मिट्टी' है। 'भूमि' शब्द भी यदाकदा प्रयुक्त होता है।
सामान्यतया मृदा को शैलों तथा खनिज पदार्थ के साथ जैविक पदार्थ का मिश्रण माना जाता है जिसमें पेड़-पौधे तथा फसलें उगाई जाती हैं। मृदा को पौधों के पोषक तत्वों का भण्डार भी कहा गया है किन्तु जिसे किसान तथा जमींदार मिट्टी कहते आये हैं, यह तो मृदा की ऊपरी परत (संस्तर) मात्रा है। यह तो मानो वृक्ष की पत्तियां हो। किन्तु वृक्ष में जड़ें, तना तथा पत्तियां होती हैं। यदि हम वृक्ष की जड़ों तथा तने की बात न करें तो वृक्ष का पूर्ण चित्र उभर कर कैसे आ सकता है?
आज मृदा की सर्वस्वीकृत परिभाषा इस प्रकार है
मृदा प्रकृति का एक सुस्पष्ट पिंड है जो क्रमशः भ्रूण अवस्था से होते हुए युवावस्था और फिर प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त हुआ है। मृदा एक स्वतंत्र प्राकृतिक इकाई है। यह सजीव काया है। इसे मृत या निर्जीव मानना भारी मूल होगी। मृदा में अनन्त सूक्ष्मजीव एवं सजीव प्राणी निवास करते हैं। मृदा ऐसा काय है जिसे हम अपनी इन्द्रियों के द्वारा देख-परख सकते हैं। यह अति स्थूलकाय है।
याद रखें कि गमले में रखी मिट्टी मृदा नहीं है क्योंकि यह प्राकृतिक दशा में नहीं है। मृदा धीरे-धीरे बनती है किन्तु बीगड़ती तेजी से है और पुनः विकसित होने में काफी समय लग जाता है मृदा की ऊपरी नौ इंच परत (संस्तर) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके बनने में हजारों वर्ष लगते हैं किन्तु भारी वर्षा के कारण जल अपरदन होने पर तेजी से मिट्टी बह जाती है। तभी तो खेतों में मेड़ बांधना आवश्यक है। आज नारा दिया गया है "खेत का पानी खेत में"।
मृदा विज्ञान प्रकृति में मृदा की उत्पत्ति, निर्माण, विकास तथा भौगोलिक वितरण के नियमों की जानकारी प्रदान करता है। मृदा विज्ञान ही यह शिक्षा देता है कि मृदा सुस्पष्ट काय है जो सुनिश्चित संस्तरों में व्यवस्थित है। और हर संस्तर के अपने-अपने भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणधर्म होते है।
मृदा विज्ञान की कहानी रोचक है। सर्वप्रथम रूसी वैज्ञानिक बी. वी. डाकुशेव ने 1878 में मृदा विज्ञान के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उसके बाद उसके सहयोगी श्री सिविटिजेव तथा उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने रूस में इन सिद्धांतों को आगे बढ़ाया अमरीकी तथा यूरोपीय विद्वान दीर्घकाल तक इन सिद्धांतों से इसलिए अपरिचित रहते आये क्योंकि ये सिद्धांत रूसी भाषा में थे। 1914 ई. में ग्लिंका ने डाकुशेव के कार्य को जर्मन भाषा में और संयुक्त राज्य अमरीका के कृषि विभाग में मृदा सर्वेक्षण के प्रमुख सी.एफ. मार्बट ने जर्मन से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया।
इस तरह अंग्रेजी के माध्यम से मृदा विज्ञान का विश्वभर में शास्त्रीय अध्यन होने लगा। भारत में भी इसका आयात हुआ। इस तरह मृदा की नई परिभाषा ने पहले पहल मृदाओं के प्राप्ति स्थान और उनके वितरण में प्राकृतिक शक्तियों की प्रधान भूमिका को रेखांकित किया। मृदा निर्माण ऐसे प्राकृतिक कारकों द्वारा संचालित होता है जो स्थानीय नहीं अपितु पूरे विश्व में कार्यशील रहते हैं।
हँस जेनी नामक मृदा विज्ञानी ने मृदा निर्माण के पांच कारकों का उल्लेख किया है, ये हैं जलवायु, सूक्ष्मजीव, स्थलाकृति, शैल तथा काल जहां भी मृदा निर्माण की परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, हमें ऐसा मृदा काय प्राप्त होता है जिसकी परिच्छेदिका स्पष्ट होती है, चाहे वह उष्णकटिबंध में हो या धुर आर्कटिक क्षेत्र में अब मृदा परिच्छेदिका को ही किसी मिट्टी समूह का अभिलक्षण माना जाता है। यह मिट्टी के फिंगरप्रिंट जैसी है।
मृदा काय की गहराई (इसे ऊंचाई मोटाइ कह लें संस्तरों की मोटाई पर निर्भर करती है। सामान्यतया अधिकांश मृदाओं की मोटाई 10 फुट से अधिक नहीं होती। हमारे देश की या अन्यत्र की काली मिट्टियां सबसे गहरी मिट्टियां हैं। पठारी मिट्टियां उथली होती हैं। जलोढ़ मिट्टियां भी काफी गहरी हो सकती है।
जब बात परिच्छेदिका की चली है। तो उसके संस्तरों के बारे में भी जान लिया जाय। ऊपर से नीचे की ओर गहराई में जाने पर (जहाँ जनकशैल अभी भी मौजूद हैं और प्रायः मृदा में काफी नमी है) तीन संस्तर होते हैं। इन्हें क्रमशः अंग्रेजी के A, B तथा C अक्षरों से सूचित किया जाता है। वैसे आप इन्हें अपना कोई नाम दे सकते हैं।
अतः ABC मृदा का अर्थ होगा कि इसकी परिच्छेदिका में तीनों संस्तर हैं इस मृदा का विकास हो चुका है। किन्तु AB या BC मृदा का अर्थ होगा कि इसकी परिच्छेदिका पूर्णतया विकसित नहीं है, या कोई संस्तर गायब हो चुका है। जैसे कि BC मृदा का अर्थ हुआ कि A संस्तर कट कर वह गया है इसलिए केवल B C संस्तर हैं। वह तो सिरकटा शरीर है केवल रुण्ड AB का अर्थ हुआ कि C संस्तर अभी विकसित नहीं हुआ C संस्तर के नीचे जनक शैल रहता है, जिससे मिट्टी का विकास हुआ है जनक शैल से मिट्टी का विकास काफी रोचक है। इस पर फिर चर्चा की जावेगी।
इन तीनों संस्तरों में कुछ विशेषताएं पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ इनके रंगों में अन्तर होता है, इनमें विभिन्न आकार के मिट्टी के कणों की प्रतिशतता में अन्तर होता है। प्रायः ऊपर से नीचे जाने पर (A से C की दिशा में) मृदा जैब में अंश (कार्बनिक पदार्थ) की मात्रा घटती जाती है। ज्यादातर A संस्तर में ही कार्बनिक पदार्थ का संचय रहता है। इसका कारण यह है कि उसी पर खर-पतवार, वनस्पतियां उग कर नष्ट होती रहती हैं और मिट्टी में मिलती रहती हैं।
मृदा का यह A संस्तर बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें कई उपसंस्तर पाये जा सकते हैं। उदाहरणार्थं सबसे ऊपर कम सड़ी गली पत्तियों की पतली परत, उसके नीचे ज्यादा सड़ी पत्तियों के निर्मित ट्यूमस की परत और तब मिट्टी की खनिज परत सामान्यतया A संस्तर में कार्बनिक पदार्थ खनिज पदार्थ के साथ मिला-जुला रहता है। इस तरह A संस्तर के तीन उप संस्तर मृदा उर्वरता को सुनिश्चित करते हैं अधिक कार्बनिक पदार्थ होने से मिट्टी का रंग भूरे से लेकर श्याम वर्ण का होता है। इसकी जलशोषण क्षमता अधिक होती है तथा यह पौधों की जड़ों को दूर-दूर तक फैलने देकर पोषक तत्वों की आपूर्ति करने वाला होता है।
जो किसान अपने खेत में बंधी या मेड़ नहीं बांधते उनके खेत की मिट्टी वर्षा के जल के साथ बह जाती है और मिट्टी बहने का अर्थ है उर्वरता का ह्रास इसलिए जिन मिट्टियों में लगातार अपरदन होता रहता है, उनमें से पोषक तत्व वह कर चले जाते हैं और फसलें ठीक से नहीं उगती उत्पादन घटता जाता है।
प्रायः A संस्तर में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम रहती है। इसका कारण है कि उष्णकटिबन्ध में गर्मी अधिक पड़ने से मृदा के A संस्तर का कार्बनिक पदार्थ तेजी से ऑक्सीकृत होता रहता है। फलस्वरूप इस संस्तर में कार्बनिक पदार्थ की कुल मात्रा प्रायः कम ही रहती है। फिर भी यह मात्रा मिट्टी के कणों को परस्पर बांधे रहने में कारगर है।
यह विचित्र संयोग है कि मिट्टी में पाया जाने वाला कार्बनिक पदार्थ मृदा उर्वरता से घनिष्ठतापूर्वक जुड़ा है। यह पाया गया है कि नाइट्रोजन, जो कि पौधों के लिए अत्यावश्यक तत्व है, उसकी मात्रा कार्बन की मात्रा की 10% होती है। इसी को कार्बन- नाइट्रोजन अनुपात कहते हैं जो CN = 10:1 होता है।
जो किसान अपने खेत में बंधी
जब आप लोग अपने खेतों की मिट्टियों का परीक्षण कराते हैं तो उसमें कार्बन की ही मात्रा ज्ञात की जाती है। और इसी से नाइट्रोजन की मात्रा परिगणित होती है। तब इसी के अनुसार मिट्टियों में नाइट्रोजन उर्वरक डालने की सलाह दी जाती है। इसलिए मिट्टी का नमूना लेते समय ध्यान रखा जाता है कि खेत की ऊपरी सतह से खरपतवार हटाकर ही नमूना लिया जाय। शायद अब आप लोग यह समझ चुके हैं कि मिट्टियों में गोबर की खाद क्यों डालने को कहा जाता है। चाहें तो आप कह सकते हैं कि हम पहले से गोवर की खाद डालते आ रहे थे तो आपने कृत्रिम उर्वरक डालने की क्यों सलाह दी। चूंकि गोबर की खाद (कम्पोस्ट) में नाइट्रोजन की मात्रा कम रहती है, अतः गोवर की खाद के साथ-साथ यूरिया डालने की सलाह दी जाती है। अब ऐसे किसान थोड़े ही हैं जो अपने खेतों में गोबर की खाद उचित मात्रा में डाल पाते हैं। वे सीधे यूरिया के प्रयोग से फसल उगाने हैं। यह प्रथा अन्ततोगत्वा हानिकारक सिद्ध होती है।
हम यहां मृदा संस्तरों की एक अन्य विशेषता का उल्लेख करना चाहेंगे। यह मृदा कणाकार है। मिट्टी में कई आकार की कण होते हैं बालू, सिल्ट तथा फ्ले इसमें फिले सबसे महीन कण हैं इतने महीन कि आंख से नहीं दिखते) किन्तु बालू सिल्ट के साथ मिलकर मिट्टी की भौतिक दशा को निर्धारित करने में इनकी अहम भूमिका है। मिट्टी में विद्यमान विभिन्न कणों की मात्रा पर ही वायु का प्रवेश निर्भर करता है। यह जान लेने की बात है कि मृदा काय के ऊपरी संस्तर में कणों के बीच में काफी वायु फंसी रहती है। मृदा वायु की मात्रा मृदा संरचना पर निर्भर करती है। यह वायु पौधों की जड़ों के लिए तथा मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीवों के श्वसन हेतु अत्यावश्यक है।
यहां पर यह याद रखना होगा कि अधिक खुली मिट्टियों यचा रेतीली मिट्टियों में वायु की मात्रा अधिक रहती है। फलतः उनमें जल शोषण की क्षमता कम पाई जाती है। काली मिट्टियों में जलशोषण की क्षमता अधिक है इसलिए जल्दी-जल्दी सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
कभी-कभी परिच्छेदिका के भीतर कड़ी परत पाई जाती है। उसी तरह जसे हमारे मूत्राशय में पथरी बन जाती है। यह प्रायः A संस्तर के नीचे और B संस्तर के ऊपर पाई जाती है। यह कठोर परत मिट्टी परिच्छेदिका में जल तथा वायु के संचरण में बाधक बनती है। विशेषतया ऊसर मिट्टियों में कंकड़ की कठोर परत पाई जाती है। इसे तोड़ने की आवश्यकता होती है। इसके लिए गहरी जुताई या फिर गहरी जड़ों वाली कुछ फसलें उगानी पड़ती हैं।
तो हमने आपको मृदा का स्वरूप बताया जो उसकी परिभाषा से तय होता है। इसे ठीक से जाने बिना मेरे किसान भाइयो! आप टिकाऊ खेती कैसे कर सकते हैं? केवल नारेबाजी से तो खेती टिकाऊ होगी नहीं। रोगी की स्थिति का पूर्व परिचय होने पर ही उसका उपचार संभव है।
अब स्मरण कीजिये कि मृदा की यह परिच्छेदिका यह मृदाकाय हजारी वर्षों में विकसित हुआ है। इसमें हमारे पुरखों का भी योगदान है। आप यह न सोचे कि उन्होंने आपको जो खेत दिये हैं, वे दीन-हीन अवस्था में थे, नहीं। आपको इसे समझना होगा और समझ कर अगला कदम उठाना होगा। आप वह कभी न सोचे कि गाड़ी छूट चुकी है। यह अभी भी ऐसे प्लेटफार्म पर रुकी हुई है, जहां आप उसे आगे जाने के लिए सही संकेत दे सकते हैं। आप जब ऐसा संकेत दें कि यह मृदा रूपी गाड़ी निर्विघ्न अगले स्टेशनों को पार करती हुई गन्तव्य को प्राप्त हो
संपर्क सूत्र: डा. शिवगोपाल मिश्र, प्रधानमंत्री, विज्ञान परिषद् प्रयाग, महर्षि दयानन्द मार्ग, इलाहाबाद- 211002, (उ.प्र.)
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