विश्व धरोहर बनने की राह पर नदी द्वीप : माजूली

असम की राजधानी गुवाहाटी से 350 किलोमीटर पूरब में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप माजूली को विश्व धरोहरों की सूची में शामिल कराने का प्रयास रंग लाने लगा है। यूनेस्को के विशेषज्ञों की एक टीम 22 नवम्बर, 2005 को इस काम को अंजाम देने के लिए माजूली में थी। विशेषाज्ञों की इस टीम का नेतृत्व श्रीलंका के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता सर्वेक्षण के अधिकारी भी टीम में शामिल थे।

नदी द्वीपों में माजूली एक ऐसा द्वीप है जिस पर इस समय सारी दुनिया की निगाह लगी हुई है। यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा माजूली को मिलना ही चाहिए तभी यहाँ की सांस्कृतिक विरासत तथा अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य के संरक्षण तथा विकास को सही दिशा तथा सहारा मिल सकेगा।माजूली के सबडिविजनल मजिस्ट्रेट रोहिणी कुमारी चौधरी का मानना है कि “अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा, तो जल्द ही यह नदी द्वीप विश्व धरोहर का दर्जा हासिल कर लेगा। हमें उम्मीद है कि यूनेस्को की टीम सकारात्मक रिपोर्ट देगी।” माजूली के एक प्राध्यापक आनन्दा हजारिका तथा समुदाय के वृद्ध टीटाराम पेयांग भी कुछ ऐसी ही आशा रखते हैं। उनका कहना है कि “हमने यूनेस्को की टीम का परम्परागत स्वागत-सत्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और उन्हें माजूली की व्यापक संस्कृति, कला, नृत्य, संगीत, दस्तकारी तथा अनोखी प्राकृतिक छटाओं से भलीभाँति परिचित करा दिया है।” वैसे भी माजूली अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विश्वविख्यात है।

उधर असम के संस्कृति मन्त्री हेमोप्रोवा सैकिया का कहना है कि “माजूली को विश्व धरोहर का दर्जा देने के भारत सरकार के प्रस्ताव पर इस समय यूनेस्को इस द्वीप को विश्व धरोहर का दर्जा देकर इसके संरक्षण के प्रयासों को और भी मजबूती देगा। माजूली विश्व धरोहरों की सूची में शामिल होने की काबिलियत रखता है। यह अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के लिए भी विख्यात है।' वहीं असम के एक सांसद अरुण शर्मा मानते हैं कि “माजूली को नहीं बचाया गया, तो हम इस विरासत को खो देंगे।”

डेढ़ लाख लोगों की आबादी वाला यह खूबसूरत नदी द्वीप 1947 के पूर्व लगभग 1,500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था। परन्तु 1950 में असम में आए भीषण भूकम्प के कारण ब्रह्मपुत्र नदी ने अपनी धारा बदल ली जिसके कारण वर्षा के दिनों में नदी द्वारा इस द्वीप का भारी कटाव प्रारम्भ हो गया। भू-क्षरण, गाद के जमाव की दिशाहीनता, भीषण बाढ़ तथा नदी के कटाव के कारण आज माजूली अपने मूल क्षेत्रफल का आधा ही रहा गया है तथा इसके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मण्डराने लगे हैं। वर्तमान में इस नदी द्वीप का दायरा सिमटकर मात्र 886 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है।

माजूली द्वीप की उत्तरी सीमा सुबांसरी तथा दक्षिणी सीमा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्धारित होती है जिसके कारण यह मुख्य भूमि से अलग एक द्वीप का रूप ले लेता है। माजूली के उत्तर में लखीमपुर, दक्षिण-पश्चिम में गोलाघाट, दक्षिण-पूरब में शिवसागर तथा दक्षिण में जोरहाट जैसे शहर स्थित हैं।1947 से पहले माजूली का रुतबा कहीं अधिक था। 16वीं शताब्दी से ही माजूली असमी सम्यता की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में पहचाना जाता रहा है। यहाँ के लोग सामाजिक तथा सांस्कृतिक बदलावों के प्रति प्रारम्भ से ही संवेदनशील रहे हैं। यहाँ हिन्दू धर्म की एक धारा वैष्णव सम्प्रदाय का काफी प्रभाव रहा है। 15वीं शताब्दी में वैष्णव सन्त श्रीमन्त शंकरदेव तथा उनके प्रमुख शिष्य माधवदेव ने माजूली की भूमि पर वैष्णव सम्प्रदाय का जम कर प्रसार किया। तब से माजूली असम में वैष्णव सम्प्रदाय का गढ़ रहा है। कभी इस नदी द्वीप पर वैष्णव मठों की भरमार हुआ करती थी। इन मठों के अलावा माजूली, मिट्टी से बनी आकर्षक कलाकृतियों, बर्तनों के साथ-साथ विशेष प्रकार के आभूषणों तथा दस्तकारी के लिए भी विख्यात है। बाँस की टोकरी, हाथी दाँत पर नक्काशी तथा चाँदी की आकृतियाँ बनाना यहाँ की दस्तकारी की परम्परा रही है।

इस समय माजूली में लगभग 15 वैष्णव मठ मौजूद हैं जिनमें कमलाबाड़ी, नूतन कमलाबाड़ी, औनियाती, गारमूर, समोगूरी, दक्षिणपट तथा वेंगीनाती प्रमुख हैं। ये सभी मठ असमी कला, संगीत, नृत्य, नाटक, दस्तकारी, साहित्य तथा धर्म इत्यादि के प्रमुख केन्द्र हैं। औनियाती का मठ प्राचीन बर्तनों, आभूषणों तथा हस्तकला के संग्रह हेतु अत्यधिक प्रसिद्ध है।

माजूली नदी द्वीप को ऊपरी तथा निचले दो भागों में पहचाना जाता हैं। ऊपरी माजूली में सामान्यतः मिशिंग तथा देवरी जनजातियों का निवास है। इन जनजातियों के त्यौहार तथा रंग-बिरंगी प्रथाएँ अपने-आप में एक जीवित धरोहर का रूप हैं। अभी तक इनकी संस्कृति पर आधुनिकता का प्रभाव लेशमात्र भी नहीं पड़ा है। सम्भवतः मुख्य भूमि से कटे रहने के कारण ही ऐसा हो पाया है। आध्यात्मिकता के रंग में सराबोर माजूली वासियों के बीच जाति और धर्म का कोई बन्धन नहीं है। सौहार्द तथा भाईचारे का अद्भुत नजारा यहाँ के वातावरण में देखने को मिलता है।



वैष्णव सम्प्रदाय के लोगों ने यहाँ संगीत, नृत्य तथा नाटक जैसी सांस्कृतिक विधाओं का अत्यधिक विकास किया है। अतिथियों के स्वागत सत्कार में माजूली वासी अनुपम उदाहरण पेश करते हैं। माजूली में जो भी एक बार आ जाता है, वह यहाँ के लोगों को कभी भुला नहीं पाता। साधारण जीवन व्यतीत करने वाले माजूली वासी अपने जीवन्त स्वभाव से सबका दिल जीत लेते हैं।

माजूली द्वीप की उत्तरी सीमा सुबांसरी तथा दक्षिणी सीमा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्धारित होती है जिसके कारण यह मुख्य भूमि से अलग एक द्वीप का रूप ले लेता है। माजूली के उत्तर में लखीमपुर, दक्षिण-पश्चिम में गोलाघाट, दक्षिण-पूरब में शिवसागर तथा दक्षिण में जोरहाट जैसे शहर स्थित हैं।

माजूली में अहोम, कचारी, ब्राह्मण, कलिता, कोचराजवोंगस, बनिया, कोईबरता, नाथ, मिशिंग, देवरी, सूत, सोनोवाल, नोमोशुद्र, नेपाली, कुमार, बंगाली और राजस्थानी लोग निवास करते हैं। इनमें से मिशिंग, देवरी तथा सोनोवाल कचारी जनजातियाँ हैं। माजूली में जनसंख्या का घनत्व 300 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि.मी. है तथा यहाँ कुल 243 गाँव हैं। यहाँ की भाषा असमी, मिशिंग तथा देवरी है। नवम्बर से फरवरी तक यहाँ सर्दी का मौसम तथा औसत तापमान 27 डिग्री से. रहता है। मार्च से जून तक गर्मी का मौसम तथा तापमान 34 डिग्री से. रहता है। जुलाई से अक्टूबर तक बरसात का मौसम माजूली वासियों के लिए कई कठिनाइयाँ लेकर आता है।

माजूली में प्रवासी पक्षियों को बहुत बड़ी संख्या में देखा जा सकता है जिनमें पेलिकन, साइबेरियाई क्रेन, एजूटेण्ट स्ट्रोक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सर्दी के महीने में माजूली के विभिन्न स्थानों से सूर्यास्त का नजारा अपना अलग ही आकर्षण रखता है। माजूली द्वीप तक पहुँचने के लिए प्रतिदिन प्रातः 10:30 बजे तथा सायं 4:00 बजे जोरहाट तथा नीमाटी घाट से स्टीमर की सेवा उपलब्ध रहती है।

नदी द्वीपों में माजूली एक ऐसा द्वीप है जिस पर इस समय सारी दुनिया की निगाह लगी हुई है। यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा माजूली को मिलना ही चाहिए तभी यहाँ की सांस्कृतिक विरासत तथा अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य के संरक्षण तथा विकास को सही दिशा तथा सहारा मिल सकेगा।

(लेखक वरिष्ठ पर्यावरणविद तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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