विस्थापन के बीज

ठेले से कुछ दूरी पर खड़े बूढ़े पर उसकी नजर पड़ी। पता नहीं कब से खड़ा था! तीन-चार साल का एक छोटा-सा बच्चा बूढ़े की मैली-सी धोती पकड़े बैठा था। बूढ़े के चेहरे की उलझन और बच्चे की सहमी आँखें खोमचे वाले ने झट भाँप ली। किसी खेड़े-गाँव का लगता है। खोमचे वाले के दिमाग में उसका अपना गाँव घूम गया।

सुबह-सुबह वातावरण में उमस थी। धूप भी तेज निकल आई थी। कहने को तो बारिश का मौसम आ गया था, लेकिन बारिश अभी आई नहीं थी। एकाध बादल कभी छाँव बिखेरते शहर के आकाश से विलीन हो जाता। लगता था जैसे बादल बारिश योग्य जमीन की टोह लेने निकला हो।

खोमचे वाले ने अपना ठेला चौराहे के किनारे पेड़ तले नियत जगह पर लगा दिया। कुछ दूरी के हैंडपम्प से कनस्तर में पानी ले आया। साफ-सफाई की और बैंच जमा दिए। फिर चप्पल एक किनारे अलग-थलग उतार कर अगरबत्ती जलाई। भक्ति-भाव से ठेले के ऊपरी हिस्से में लगे किसी महात्माजी के फोटो पर अगरबत्ती घुमाई। छोटे से डिब्बे के गल्ले को भी अगरबत्ती का धुआँ दिखाया और फिर ठेले की प्रदक्षिणा की और अगरबत्ती को ठेले के एक तरफ खोंच दिया। ऐसे सुगन्धित प्रसन्न वातावरण में अचानक खोमचे वाले के मन में भारी उदासी घिर आई।

'भगवान बारिश रोक लेना जरा। थोड़ा धन्धा हो जाए तो छत का इन्तजाम कर लूँ। फिर तू गिरा देना पानी।'

रोज की तरह खोमचे वाले का धन्धा शुरू हो गया। चौराहे पर भीड़ बढ़ने लगी थी। बस से उतरने वाले, बस में चढ़ने वाले, राह गुजरने वाले, बिल्डिंग निर्माण के मजदूर- नाना तरह के लोग चौराहे पर थे। इनमें से सुबह का नाश्ता चाहने वाले लोगों ने खोमचे वाले का ठेला घेर लिया था। खोमचे वाला पूरी तरह व्यस्त हो गया।

अब सुबह की भीड़ छटने लगी। मजदूर अपने ठेकेदारों के साथ जा चुके थे। लगातार नाश्ता या चाय बनाना, देना, पैसे का हिसाब करना, प्लेट-बर्तन साफ करना। खोमचे वाले के लिए अब जरा-सा राहत का वक्त था। वह बैंच पर बैठ गया।

ठेले से कुछ दूरी पर खड़े बूढ़े पर उसकी नजर पड़ी। पता नहीं कब से खड़ा था! तीन-चार साल का एक छोटा-सा बच्चा बूढ़े की मैली-सी धोती पकड़े बैठा था। बूढ़े के चेहरे की उलझन और बच्चे की सहमी आँखें खोमचे वाले ने झट भाँप ली। किसी खेड़े-गाँव का लगता है। खोमचे वाले के दिमाग में उसका अपना गाँव घूम गया।

अचानक और ग्राहक आ गए। खोमचे वाला फिर व्यस्त हो गया। फिर राहत मिली तो बूढ़े और बच्चे को जस-का-तस पाया।

'बाबा! कौन गाँव जाओगे?' खोमचे वाले ने जोर से आवाज लगाई। बूढ़े ने आवाज की ओर नजर फिराई। नकार में सिर हिला दिया। खोमचे वाले का ठेला देख बच्चे की आखों में चमक आ गई। शायद भूखा था। 'कुछ खाओगे?' बूढ़े ने फिर सिर हिला दिया।

तभी एक बस वहाँ आकर रुकी! बूढ़ा बड़ी फुर्ती से बस की ओर लपक लिया। बच्चे के हाथ से धोती की पकड़ छूट गई। बच्चा सहम गया। वह भी तेजी से बूढ़े की ओर भागा और बूढ़े के पैरों से लिपट गया। बूढ़े को बस से उतरते लोगों से हाथ जोड़े कुछ कहते देखा खोमेचे वाले ने सोचा कि यह कोई नया भिखारी है, बच्चे को साथ ले लाचारी दिखाना चाहता है। लेकिन कपड़े-लत्ते और हाव-भाव से तो ये भिखारी जरा भी नहीं लग रहा। खोमचे वाले को दूसरी बात सूझी! अच्छा! यह बूढ़ा बस से उतरते लोगों से हमाली का काम माँग रहा है। लेकिन बूढ़े को इस बस से कोई हमाली का काम नहीं मिला।

निराश बूढ़े ने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। लौटने लगा। खोमेचे वाला रास्ते के दूसरे छोर की ओर इशारा करते हुए चिल्लाया बाबा वहाँ! उस ओर!

बूढ़े ने पलटकर देखा। बस आ रही थी। पलक झपकते ही बूढ़े ने रास्ता पार कर लिया। बस की छत से गठरी उतार कर रिक्शा में डालने का काम मिल ही गया। दस रुपए पाकर बूढ़े की बाछें खिल गईं।

बूढ़े ने खोमचे वाले की ओर कृतज्ञता भाव से देखा। खोमचे वाला ज्ञानी है। जानता है बस कब कहाँ आनेे वाली है। बूढ़ा खोमेचे वाले की ओर खींचा चला आया।

बैठ जाओ! खोमचे वाले ने बैंच की ओर इशारा किया। बूढ़े ने पहले बच्चे को बैंच पर बिठाया और फिर स्वयं सकुचाकर बैठ गया।

'कौन गाँव से हो? खोमचे वाले ने बात-चीत शुरू की।'
'बोरपानी का हूँ जी!' कौन-सा? ये नदी किनारे वाला क्या?
हाँ! जानते हो लगता! अरे! आप के गाँव से तो पुरानी रिश्तेदारी है। मैं कालडोंगरी का हूँ।
ओह! लेकिन वह तो...

खोमचे वाले ने बूढ़े की बात बीच में ही तोड़ दी। 'हाँ बाँध की डूब में था, डूब गया। कोई नहीं रहता अब वहाँ। सब बिखर गए। मुआवजा क्या मिला? खा-पीकर कब का खत्म हो गया। मैं पहले ही निकल आया था। जिन्दगी थाट ली यहाँ।' खोमचे वाला एक ही साँस में सब कहता गया। मगर उसके स्वयं में लगातार उदासी बढ़ती गई।

बूढ़ा अपने बचपन की कालडोंगरी में चला गया। फुफी का बाड़ा... वो शानोशौकत... और वो शैतान गोरा... उसने चुपके से पीछे से सिर दे मारा था। ...आज भी पीठ पर चोट है... इतने सालों में फुफी के किसी बच्चे की सुध कैसे नहीं ली? बूढ़ा खो गया!

ठेले के सामने शानदार कार आकर रुकी तो बूढ़े की तन्द्रा भंग हुई। आँखों पर काला चश्मा चढ़ाया एक युवक कार से उतरा, 'भाई यहाँ कोई हमाल मिल जाएगा? बस से कुछ माल आ रहा है।'

'मैं हूँ न साहाबजी!” बूढ़ा तुरन्त चहका।
'आप...!' युवक की शंका कुलीनतापूर्वक जुबान पर आ अटकी।

'किसान हूँ साहबजी! फसल का बोझ ढोते उमर ढल गई। हमारे यहाँ हमाल नहीं हुआ करते। जो वाजिब लगे दे देना।' बूढ़े के स्वर में गर्व, आत्मविश्वास, संयम था।

युवक का चेहरा मन्द हुआ। आश्वस्त हुआ। चाय मिलेगी? उसने पूछा। खोमचे वाले ने हामी भरी। 'कम चीनी की स्पेशल कड़क बनाना। ध्यान रहे, ग्लास साफ माँजा हुआ रहे।'

खोमचे वाला चाय के बर्तन साफ करने लगा। 'सुना था आपके यहाँ बाढ़ ने काफी तबाही की! कहीं उसी वजह से आप यहाँ तो नहीं?'

बाढ़ तो कई देखीं। कभी ऐसा नुकसान नहीं देखा। शौक था बाढ़ में छलांग लगाने का। तैरकर निकल जाता, बाकी सब पीछे छूट जाता। किनारे पेड़ घने थे। वहाँ टकराकर पानी थमता जाता। बस उथल-पुथल होती। काली उपजाऊ मिट्टी किनारे ला फेंकती। समेट कर ले जाते थे हम। वह बाढ़ कुदरती थी, अलग थी। पर यह बाँध वाली बाढ़ गजब थी। पानी बन्दूक की गोली की तरह छूटता है। सन्न-सन्न। सब कुछ बर्बाद हो गया। गाय-बैल, घर-बार, सब बह गया। यहाँ तक कि...' बूढ़े का स्वर रुन्ध गया।

'हाँ!' बूढ़े ने लम्बी साँस ली, जैसे बाढ़ के उफान में खुद को बचाना हो। और फिर बूढ़े ने बाढ़ के विनाश में गोता लगाया। 'बाढ़ तो कई देखीं। कभी ऐसा नुकसान नहीं देखा। शौक था बाढ़ में छलाँग लगाने का। तैरकर निकल जाता, बाकी सब पीछे छूट जाता। किनारे पेड़ घने थे। वहाँ टकराकर पानी थमता जाता। बस उथल-पुथल होती। काली उपजाऊ मिट्टी किनारे ला फेंकती। समेट कर ले जाते थे हम। वह बाढ़ कुदरती थी, अलग थी। पर यह बाँध वाली बाढ़ गजब थी। पानी बन्दूक की गोली की तरह छूटता है। सन्न-सन्न। सब कुछ बर्बाद हो गया। गाय-बैल, घर-बार, सब बह गया। यहाँ तक कि...' बूढ़े का स्वर रुन्ध गया। थूक गिटका, फिर संयत होकर बच्चे के सिर पर से हाथ फेरते कहने लगा। 'इसके माँ-बाप, मेरे बेटा-बहू भी नहीं बचे। पहले से ही मेरे आँग पर का था। अब पूरा ही मेरा चिपकू हो गया।'

'कैसे-कैसे सम्भालेंगे आप इसे?” यवुक इस बात-चीत में आने से अपने आप को नहीं रोक पाया। उसके चेहरे का विस्मय और चिन्ता दर्सा रहे थे कि वह जिन्दगी के ऐसे रूप से बिलकुल अनजान था।

बूढ़े के चेहरे पर मुस्कान मूँछों के छोर से चौड़ी-चौड़ी फैलती चली गई। 'किसान हूँ। हर साल बच्चे ही सम्भालता हूँ... पौधों के। अपने बच्चे तो सम्भाले नहीं। इसकी दादी थी वही सब करती थी।'

बर्तन को आँच पर गोल-गोल घूमाकर उफनती चाय को पकाते खोमचे वाले ने पूछा 'शहर में कोई सहारा मिला?'

कल ही आया हूँ। सोचा कोई मोल-मजदूरी कर लूँगा। हमाली काम तो जम ही जाएगा। बस अड्डा गया था। वहाँ के हमाल कहाँ टिकने देते। वहीं पड़ा रहा रातभर। फिर किसी ने बताया तो इस चौराहे पर चला आया। खोमचेवाले ने युवक को चाय परोसी। युवक ने पहली चुस्की लेते ही कहा बढ़िया! खोमचे वाले ने सिर झुकाकर तारीफ स्वीकार कर ली।

लेकिन उस बाँध से ही तो इस शहर को पानी मिला है। कारखाने बढ़े हैं। युवक के स्वर में जानकारी देकर जानकारी पाने की उत्सुकता भी थी। सही बात है साहबजी! कवेल पानी नहीं बाँध ने हम जैसे विस्थापित लाचारों की डंडार भी दी है शहर की सेवा करने। खोमचे वाले ने थोड़ी कड़वाहट उगली।

“बेटा, तू काश्तकारी करता होता तो समझ पाता! वो पैसे बीज के लिए हैं। मैं आज भूखा रह सकता हूँ, लेकिन बोऊँगा नहीं तो ये बच्चे कल भूखे मर जाएँगे। बीज क्यों बड़ा बुरा वक्त था। सारा अनाज खत्म हो गया। जवानों की भूख वैसे भी ज्यादा होती है। वे नहीं सहन कर पाए। बीज को भी पका कर खा गए। कहीं से बीज खरीद लूूँ तो भुखमरी रोक लूँगा। मुझे अनाज नहीं, बीज चाहिए।”

युवक स्तब्ध रह गया। अपने शहर को उसने कभी इस तरह जाना ही नहीं था। उसने चुपचाप चाय के पैसे खोमचे वाले को अदा किए। बाबा, आपकी बहू खाने का डिब्बा लेकर आएगी। उसके साथ घर चले जाना। कल से भूखे हो। भोजन करके आराम कर लेना। संकोच मत करना। आदमी ही आदमी के काम आता है। खोमचे वाले का प्रस्ताव बहुत अपनापन लिए था।

नहीं बेटा! कुछ पैसों का जुगाड़ कर लूँ तो बीज खरीदूँगा। बारिश से पहले खेत जोतना है। इतना होने पर भी आपको खेत की पड़ी है। खोमचे वाला झल्लाया। बस आ गई। बूढ़ा फुर्ती से लपक लिया। बस के पिछले हिस्से में बनी सीढ़ी से झटझट छत पर चढ़ गया। युवक ने कंडक्टर से बात की और बूढ़े को इशारा किया। एक बोरा सिर पर ढोते बूढ़ा आहिस्ते से नीचे उतरा। फिर चढ़कर दूसरा बोरा नीचे लाने में थोड़ा हाँफने लगा। युवक तुरन्त सामने हुआ। दो सीढ़ी ऊपर चढ़कर उसने बोरे को थाम लिया। कार की डिक्की में बोरा डालने में मदद भी की। खोमचे वाला बैंच पर बच्चे के पास बैठा देखता रहा। युवक कार में जा बैठा और खिड़की से एक नोट निकालकर बूढ़े की ओर बढ़ाया। रख लीजिए। युवक ने विनम्रता पूर्वक आग्रह किया।

यह क्या? बूढ़े की आँखें फट गईं। 500 का नोट! बूढ़ा झिझका, दस रुपए काफी हैं। सामान उठाने में आपने भी तो मदद की।

रख लीजिए। मेरी ओर से है।
लेकिन...। यह मेरी मेहनत नहीं।

कुछ नहीं! अभी की ना सही, जिन्दगी भर की मेहनत तो है। कुछ भी समझिए। असल तो यह बाँध के पानी का इस्तेमाल करने का हर्जाना है... उसी ने मुझे पैसा दिलाया और आपका ये हाल किया... पूरा हर्जाना शायद कभी अदा नहीं कर पाऊँगा... आपके खेत का...। नोट को बूढ़े के कुर्ते की ऊपरी जेब में जबरदस्ती ठूँस कर युवक ने कार आगे बढ़ा ली।

हक्का-बक्का बूढ़ा धीरे-धीरे चलकर आया और बच्चे के बगल में बैठ गया। कुर्ते की निचली जेब से दस रुपए का नोट निकालकर खोमचे वाले की ओर बढ़ाया। 'बच्चे को नाश्ता करा दो।'

'कैसी बात करते हो, बाबा! आप भी खाईए। आपसे पैसे न लूँगा।'
'बेटा! अगली बार तेरे घर आऊँगा। बहू से पकवान बनवाऊँगा। वो बात और है। यह तेरा धन्धा है। यहाँ पैसे का ही व्यवहार होना चाहिए।'
खोमचे वाले ने नोट ले लिया। कम तीखा नाश्ता बच्चे के लिए बना लाया। बच्चा नाश्ता खाने लगा। खोमचे वाला रूठ गया था। उपहास करने से नहीं चूका, आप क्यों नहीं करते नाश्ता? आपके पास तो अब बहुत से पैसे हैं।'

बूढ़े ने बच्चे को पानी पिलाया। प्लेट में बचा नाश्ता पूरा खाने को कहा। उसने मना किया तो बचा-खुचा नाश्ता खुद साफ-पोंछ कर खा लिया। 'तू बहुत भला है। तेरा भला ही होगा। भगवान तेरी दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करे। खेत सध जाए तब जरूर आऊँगा, तुझसे मिलने।' धीरे-धीरे खड़े होते हुए बूढ़े ने बच्चे को अपने कँधों पर बिठाया और लम्बे-लम्बे डग भरता चलने लगा।

खोमचे वाला उन दोनों को जाते हुए देखता रह गया। फिर उसने आकाश की ओर देखा। 'भगवान, अबके सही बारिश दे दे! बाबा के बीज सींच दे!' कहीं भीतर से आवाज गूँजी। खोमचे वाले की आँखें भींग गई।

नोबेल पुरस्कृत विख्यात लेखिका पर्ल एस. बक की कहानी ‘द रेफ्युजी’ पर आधारित। श्रीमती पर्ल को उनके जन्मदिवस पर भेंट।

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