राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के 14 नवंबर 2011 के आदेश में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को निर्देश दिया गया था कि वो विभिन्न बांध परियोजनाओं में भौतिक, जैविक और सामाजिक दृष्टि से एक-दूसरे पर पड़ने वाले असरों पर एक उचित समिति बनाये जिसके निणर्य व सिफारिशें निश्चित समय पर आये ताकि लाभ-लागत का अनुपात निकालने में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को अंतिम निर्णय लेने के समय अनचाही पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय खतरे को दूर किया जा सके।उत्तराखंड में अलकनंदा गंगा पर प्रस्तावित विष्णुगाड़-पीपलकोटी बांध परियोजना पर अभी रोक जारी है। 25 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय के हवाले से जारी अंग्रेजी के एक अखबार में भ्रामक खबर आई और उसके बाद विश्वबैंक व अन्य सरकारी परियोजनाओं से जुड़ी देहरादून स्थित एक एनजीओ वक्तव्य जारी किया गया जिसे कई अन्य अखबारों ने छाना है। हम बताना चाहेंगे की इस तरह से फैलाई गई बातें भ्रामक, तथ्यहीन, आधारहीन है।
सर्वोच्च न्यायालय के 24 जनवरी, 2013 के आदेश में ऐसा कही कुछ नही लिखा है। जिसे प्रचारित किया जा रहा है। सब सही नही है और बांध के पक्ष में हवा बनाने के लिये यह दुष्प्रचार है। आदेश में सिर्फ याचिका को निरस्त करने के बारे में लिखा है केस आदेश की प्रति संलग्न है। जिसे पढ़कर सही स्थिति मालूम होती है।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के 14 नवंबर 2011 के आदेश में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को निर्देश दिया गया था कि वो विभिन्न बांध परियोजनाओं में भौतिक, जैविक और सामाजिक दृष्टि से एक-दूसरे पर पड़ने वाले असरों पर एक उचित समिति बनाये जिसके निणर्य व सिफारिशें निश्चित समय पर आये ताकि लाभ-लागत का अनुपात निकालने में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को अंतिम निर्णय लेने के समय अनचाही पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय खतरे को दूर किया जा सके। पर्यावरण एंव वन मंत्रालय वन भूमि हस्तांतरण के सही मूल्यांकन के लिये लाभ-लागत निकालने के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देशों को तैयार करे।
उत्तराखंड के पर्यावरण व निवासियों के भविष्य के हित में विमलभाई और भरत झुनझुनवाला ने सर्वोच्च न्यायालय में इसी आदेश को विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना पर भी लागू करने के लिये याचिका दायर की थी। जिसे सर्वोच्च अदालत ने स्वीकार नही किया। किन्तु अभी कानूनी रुप से टीएचडीसी बांध काम नही कर सकती है। बिना द्वितीय चरण की वन स्वीकृति के बांध का काम नही हो सकता है। जो कि अभी नही मिली है।
सरकार ने राष्ट्रीय नदी गंगा व उसकी सहायक नदियों में लगातार बहने वाला पानी कितना हो यह तय करने के लिये योजना आयोग के सदस्य श्रीमान बी. के. चतुर्वेदी की अध्यक्षता में विभिन्न मंत्रालयों की एक समिति बनाई है जिसकी रिपोर्ट मार्च 2013 में आने की संभावना है। विष्णुगाड़-पीपलकोटी बांध का भविष्य इस समिति की रिर्पोट पर भी निर्भर करता है।
इन सब बातों से जाहिर है कि बांध के प्रभावों को, बांध पीड़ितों की समस्याओं को समझे बिना सिर्फ बांध के पक्ष में वे ही बोल सकते है जिनके हित बांध के साथ जुड़े हैं। जिन्होंने कभी बांध प्रभावितों की लड़ाई नही लड़ी है। जिन्हे उत्तराखंड के स्थायी विकास और पर्यावरण सुरक्षा से कोई मतलब नही है। बांध की जनसुनवाई के समय विरोध में खड़े कुछ व्यक्ति अब कितने ठेके और दूसरे लाभ लेकर बैठे है यह जानने से उनके बांध समर्थन की सारी असलियत सामने आ जाती हैं।
टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास ना किये जाने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे एन0 डी0 जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार व अन्य तथा विस्थापितों के दूसरे मुकदमें चल रहे हैं। जिसमें लगातार दिये गये आदेशों के बावजूद भी उनकी पालन नही हो रहा है। माननीय न्यायाधीशों को कड़ी टिप्पणियां करनी पड़ी है। यदि अदालत का दवाब नही होता तो पुनर्वास के नाम पर जो हुआ है वो भी नही होता।
इन्हीं कार्यरत बांधों में हो रही पर्यावरण व विस्थापितों की दुर्दशा परिप्रेक्ष्य में बांधों का विरोध हो रहा है।
स्थानीय स्तर पर विरोध जारी है। ज्ञातव्य है कि जुलाई 2010 में भी स्थानीय लोगों के पत्र के आधार पर विश्व बैंक ने इस परियोजना को वित्तीय सहायता देने पर विचार नहीं किया था।
बांध के पावर हाउस के लिये जाने वाली सुरंग हरसारी गांव के नीचे से निकाली जा रही है। जिसके कारण 2004 से लोगो के घरों में दरारें आई, जलस्रोत सूखे, खड़ी फसल का नुकसान हुआ। प्रभावितों ने काम रोककर रखा। 15 मार्च, 2012 को ज़िलाधीश महोदय व बाद में विश्व बैंक के अधिकारी भी गाँव आकर समस्याओं को देख गए हैं। किंतु इन सब नुकसानों का मुआवजा आजतक नही मिला है। आश्वासन दिया गया कि हरसारी गांव के प्रभावितों से बात करके सुरंग का रुख बदला जायेगा। किंतु टीचडीसी ने एक तरफ़ा कार्यवाही करके बिना प्रभावितों से चर्चा किये जुलाई 2012 में दूसरी सुरंग का निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। जो कि पूर्व सुरंग से मात्र 10 मीटर अलग है। टीएचडीसी लगातार प्रशासन व प्रभावितों को गुमराह कर रही है।
टीएचडीसी प्रभावितों को आगे के विकल्प देने की बात कर रही है किंतु अब तक के हुये नुकसानों की बात को टाल रही है। प्रभावितों पर दवाब है कि वे पहले बांध की स्वीकृति के लिये हामी भर दे फिर वे उनके पूर्व में हुये नुकसानों पर चर्चा कि जायेगी। इसमें भी भरपाई की गारंटी नही है। वर्तमान में हो रहे विस्फोटों से हरसारी गांव का शेष पानी भी सूखने कि कगार पर है। दुर्गापुर गांव में भी यही होने वाला है। गुलाबकोटी व यूंणा आदि गाँवों की जमीनों में मक डालने से समस्यायें हो रही है। नौरख गांव में बिना वन स्वीकृति के बांध के लिये सड़क निर्माण किया जा रहा है, जिसे वन विभाग ने रोका है। स्थानीय ठेकेदार को नौरख के वन सरपंच ने मात्र जुर्माना लगाकर छोड़ा है। किन्तु टीचडीसी ने इसमे कोई ज़िम्मेदारी नही ली। यह स्थिति स्थानीय रोज़गार की है।
हम फैलाई जा रही अपवाहों से परेशान होने वाले नही है। हम उत्तराखंड के पर्यावरण जोकि देश भर के लिये महत्वपूर्ण है और लोगो के प्राकृतिक संसाधनों के अधिकारों तथा पहले से प्रभावित हो चुके लोगों के उचित पुनर्वास के लिये अपना संघर्ष जारी रखेंगे।
विष्णुगाड़-पीपलकोटी की वन स्वीकृति को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती और परिणाम
सर्वोच्च न्यायालय के 24 जनवरी, 2013 के आदेश में ऐसा कही कुछ नही लिखा है। जिसे प्रचारित किया जा रहा है। सब सही नही है और बांध के पक्ष में हवा बनाने के लिये यह दुष्प्रचार है। आदेश में सिर्फ याचिका को निरस्त करने के बारे में लिखा है केस आदेश की प्रति संलग्न है। जिसे पढ़कर सही स्थिति मालूम होती है।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के 14 नवंबर 2011 के आदेश में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को निर्देश दिया गया था कि वो विभिन्न बांध परियोजनाओं में भौतिक, जैविक और सामाजिक दृष्टि से एक-दूसरे पर पड़ने वाले असरों पर एक उचित समिति बनाये जिसके निणर्य व सिफारिशें निश्चित समय पर आये ताकि लाभ-लागत का अनुपात निकालने में पर्यावरण एंव वन मंत्रालय को अंतिम निर्णय लेने के समय अनचाही पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय खतरे को दूर किया जा सके। पर्यावरण एंव वन मंत्रालय वन भूमि हस्तांतरण के सही मूल्यांकन के लिये लाभ-लागत निकालने के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देशों को तैयार करे।
उत्तराखंड के पर्यावरण व निवासियों के भविष्य के हित में विमलभाई और भरत झुनझुनवाला ने सर्वोच्च न्यायालय में इसी आदेश को विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना पर भी लागू करने के लिये याचिका दायर की थी। जिसे सर्वोच्च अदालत ने स्वीकार नही किया। किन्तु अभी कानूनी रुप से टीएचडीसी बांध काम नही कर सकती है। बिना द्वितीय चरण की वन स्वीकृति के बांध का काम नही हो सकता है। जो कि अभी नही मिली है।
सरकार ने राष्ट्रीय नदी गंगा व उसकी सहायक नदियों में लगातार बहने वाला पानी कितना हो यह तय करने के लिये योजना आयोग के सदस्य श्रीमान बी. के. चतुर्वेदी की अध्यक्षता में विभिन्न मंत्रालयों की एक समिति बनाई है जिसकी रिपोर्ट मार्च 2013 में आने की संभावना है। विष्णुगाड़-पीपलकोटी बांध का भविष्य इस समिति की रिर्पोट पर भी निर्भर करता है।
इन सब बातों से जाहिर है कि बांध के प्रभावों को, बांध पीड़ितों की समस्याओं को समझे बिना सिर्फ बांध के पक्ष में वे ही बोल सकते है जिनके हित बांध के साथ जुड़े हैं। जिन्होंने कभी बांध प्रभावितों की लड़ाई नही लड़ी है। जिन्हे उत्तराखंड के स्थायी विकास और पर्यावरण सुरक्षा से कोई मतलब नही है। बांध की जनसुनवाई के समय विरोध में खड़े कुछ व्यक्ति अब कितने ठेके और दूसरे लाभ लेकर बैठे है यह जानने से उनके बांध समर्थन की सारी असलियत सामने आ जाती हैं।
टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास ना किये जाने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे एन0 डी0 जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार व अन्य तथा विस्थापितों के दूसरे मुकदमें चल रहे हैं। जिसमें लगातार दिये गये आदेशों के बावजूद भी उनकी पालन नही हो रहा है। माननीय न्यायाधीशों को कड़ी टिप्पणियां करनी पड़ी है। यदि अदालत का दवाब नही होता तो पुनर्वास के नाम पर जो हुआ है वो भी नही होता।
इन्हीं कार्यरत बांधों में हो रही पर्यावरण व विस्थापितों की दुर्दशा परिप्रेक्ष्य में बांधों का विरोध हो रहा है।
बांध प्रभावितों की स्थिति
स्थानीय स्तर पर विरोध जारी है। ज्ञातव्य है कि जुलाई 2010 में भी स्थानीय लोगों के पत्र के आधार पर विश्व बैंक ने इस परियोजना को वित्तीय सहायता देने पर विचार नहीं किया था।
बांध के पावर हाउस के लिये जाने वाली सुरंग हरसारी गांव के नीचे से निकाली जा रही है। जिसके कारण 2004 से लोगो के घरों में दरारें आई, जलस्रोत सूखे, खड़ी फसल का नुकसान हुआ। प्रभावितों ने काम रोककर रखा। 15 मार्च, 2012 को ज़िलाधीश महोदय व बाद में विश्व बैंक के अधिकारी भी गाँव आकर समस्याओं को देख गए हैं। किंतु इन सब नुकसानों का मुआवजा आजतक नही मिला है। आश्वासन दिया गया कि हरसारी गांव के प्रभावितों से बात करके सुरंग का रुख बदला जायेगा। किंतु टीचडीसी ने एक तरफ़ा कार्यवाही करके बिना प्रभावितों से चर्चा किये जुलाई 2012 में दूसरी सुरंग का निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। जो कि पूर्व सुरंग से मात्र 10 मीटर अलग है। टीएचडीसी लगातार प्रशासन व प्रभावितों को गुमराह कर रही है।
टीएचडीसी प्रभावितों को आगे के विकल्प देने की बात कर रही है किंतु अब तक के हुये नुकसानों की बात को टाल रही है। प्रभावितों पर दवाब है कि वे पहले बांध की स्वीकृति के लिये हामी भर दे फिर वे उनके पूर्व में हुये नुकसानों पर चर्चा कि जायेगी। इसमें भी भरपाई की गारंटी नही है। वर्तमान में हो रहे विस्फोटों से हरसारी गांव का शेष पानी भी सूखने कि कगार पर है। दुर्गापुर गांव में भी यही होने वाला है। गुलाबकोटी व यूंणा आदि गाँवों की जमीनों में मक डालने से समस्यायें हो रही है। नौरख गांव में बिना वन स्वीकृति के बांध के लिये सड़क निर्माण किया जा रहा है, जिसे वन विभाग ने रोका है। स्थानीय ठेकेदार को नौरख के वन सरपंच ने मात्र जुर्माना लगाकर छोड़ा है। किन्तु टीचडीसी ने इसमे कोई ज़िम्मेदारी नही ली। यह स्थिति स्थानीय रोज़गार की है।
हम फैलाई जा रही अपवाहों से परेशान होने वाले नही है। हम उत्तराखंड के पर्यावरण जोकि देश भर के लिये महत्वपूर्ण है और लोगो के प्राकृतिक संसाधनों के अधिकारों तथा पहले से प्रभावित हो चुके लोगों के उचित पुनर्वास के लिये अपना संघर्ष जारी रखेंगे।
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